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बूढ़ा बरगद

घूमने-फिरने का शौकीन संदेश आज फिर निकल गया था एक अनजानी सी डगर पर। घूमना-फिरना, नई से नई जगह देखना और उस जगह की पूरी जानकारी लेकर कुछ ना कुछ लिखना संदेश को बहुत ज्यादा पसंद था। वो आज फिर से अपनी गाड़ी लेकर यूँ ही आवारगी में निकल गया। कितना चला - उसे मालूम नहीं, वो एक अनजाने से गाँव के बारे में जानकारी लेने की सोचकर निकला था। एक गाँव में रूक कर घण्टों वहाँ के बड़े-बूढ़ों से उस गाँव की जानकारी लेता रहा। जो भी बात उसे लिखने लायक लगती उसे वो अपनी डायरी में लिखता जा रहा था। इसी में कब शाम हो गयी उसे पता ही नहीं चला। मुण्डेरों से धूप कब की ही ढल चुकी थी। धीरे-धीरे सांझ हो रही थी उसने अब वापस अपने शहर लौटने का मानस बनाया और गाड़ी स्टार्ट की। 


गाँव के कच्चे-पक्के रास्ते से गुजरता हुआ वो उसी गाँव के बारे में सोच रहा था। क्या लाइफ है गाँव की भी - कोई भागम-भाग नहीं, कोई कोलाहल नहीं, बस बेफिक्री की जिन्दगी और बेखयाली। ना किसी बात की चिन्ता, जितना मिला उसी में गुजारा कर लिया। ना कम का दुःख और ना ज्यादा की चाह। कितनी सहज और सरल लाइफ है इनकी। जी करता है मैं भी किसी गाँव में ही बस जाऊँ मगर यह भी संभव नहीं। अपने दफ्तर का काम, अखबार के लिए साप्ताहिक लेख और सारी दुनियादारी, क्या-क्या नहीं करना पड़ता। फिर ऐसे भला - गाँव में कैसे रह सकता हूँ। यही सोचते हुए वो आगे बढ़ रहा था कि अचानक उसकी गाड़ी बन्द हो गयी। उसने नीचे उतरकर देखा, धीरे से बोनट खोला - मगर अंधेरे में उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। वो गाड़ी में वापस गया और टाॅर्च निकाल कर लाया। देखा तो गाड़ी में से थोड़ा धुआँ सा लगा। संदेश को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि वो क्या करे ? गाड़ी का काम भी तो वो नहीं जानता था। उसे तो गाड़ी चलानी आती थी और बस घूमने-फिरने, नई से नई जगह देखने का ही शौक था। गाड़ी को छोड़कर इस अंधेरी रात में कहाँ जाए। दूर-दूर तक कोई गाँव, ढ़ाणी नजर नहीं आ रही थी। इधर-उधर टाॅर्च से रोशनी डाली तो पास ही एक बूढ़ा बरगद का पेड़ दिखाई दिया - सोचा चलो आज की रात इसी बरगद के साथ बितायी जाए। खाना तो गाँव वालों ने खिला दिया था और थोड़ा-सा उसकी गाड़ी में भी रख दिया था। वो धीरे-धीरे उस बरगद के पास पहुंच उसके तने का सहारा लेकर बैठ गया। कोई आधी रात का समय होगा, उसे कुछ सरसराहट सी आवाज आई उसने टाॅर्च की रोशनी डाली, कहीं कोई नहीं था, उसने सोचा कोई चूहा या कोई रेंगने वाला जानवर होगा - लेकिन कोई मानव आवाज उसे आयी। वो एक बार तो बुरी तरह से डर गया था। उसने बचपन में भूत-प्रेतों की कहानियाँ सुनी थी, कि बरगद के खोखर में ही उनका वास होता है। आज वो पहली बार खूब डर गया था। तभी आवाज आई - डरो नहीं मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचाऊँगा - मैं तुम्हें बस अपनी कहानी सुनाना चाहता हूँ। मैं बूढ़ा बरगद, त्रिकालदर्शी तो नहीं मगर कालदर्शी जरूर हूँ। सदियों से यूँ ही यहाँ पर खड़ा हूँ, सब कुछ देखता और सहता हुआ। मैंने द्रोपदी का चीर हरण तो नहीं देखा किन्तु अबलाओं की इज्जत इसी छाया के नीचे लुटते हुए देखी है पर मैं कुछ नहीं कर पाया। चोर-लुटेरे, चोरी का सारा माल मेरी छाया में बैठकर ईमानदारी से बांटते थे। मैं मूकदर्शक बना सब कुछ सहता, सब कुछ देखता। बचपन में तुमने सुना होगा कि बरगद के खोखर में ही प्रेतों का वास होता है, लेकिन यह भी तो सुना होगा कि मेरी जड़ों में ही ग्रामदेवता भी बसता है। कितने अच्छे दिन थे वो भी। लोग मेरी छाया में बैठकर घण्टों अपने सुख-दुःख की बातें किया करते थे। गाँव में आने वाली हर नई दुल्हन सबसे पहले मेरी जड़ों में बसे ग्रामदेवता की पूजा किया करती थी। ग्रामदेवता के साथ-साथ मुझ बरगद की पूजा करती थी। मैं भी कम इठलाता नहीं था। अपनी टहनियों से खुशियों की हवा चलाता था। कभी-कभी मेरा भी मन शरारत करने का होता तो एक तेज हवा के झौंके के साथ दुल्हन का घूंघट भी हटा देता था और दुल्हे से पहले ही मैं उसकी दुल्हन का मुखड़ा देख लेता था।

 
हर बार मेरी ही डाल से विक्रम बेताल को उतारकर ले जाता था। बेताल भी विक्रम को नई से नई कहानियाँ सुनाता और बोलने पर मजबूर कर देता था। न्यायप्रिय विक्रम को गलत बात का विरोध करना ही पड़ता था और बेताल फिर से मेरी डाल पर वापस आ जाता था। मुझे भी विक्रम और बेताल की इस आँख मिचौली का भरपूर मजा आता था। मुझे याद है, गाँव की पंचायत भी मेरे ही पास होती थी। अब कहाँ वो दिन रहे है। लोग गाँव को छोड़कर ढाणियों में बंट गए, कुछ तुम्हारी तरह दूर परदेस जाकर शहरी बाबू बन गए। किसी ने मेरी खबर नहीं ली। एक-एक कर लोगों को टूटते देखा है। रिश्तों को तार-तार होते देखा है। क्या-क्या नहीं देखा, मेरी इन बूढ़ी आँखों ने, पर मैं कर कुछ भी नहीं सकता हूँ। मेरे वश में होता तो कभी का मैं भी..............। खैर, मेरा जीवन सफर बहुत लम्बा है। इब्लिश ने मुझे श्राप दिया था, मैं बहुत दुःखी हुआ था। तब मेरे विषाद को देख और सभी पंछी-परिन्दों की भलाई की सोच जिब्रिल ने कयामत तक जिन्दा रहने का वरदान दिया। अब तुम ही बताओ - आज ये वरदान अभिशाप है या वरदान। कभी सोचता हूँ, इससे अच्छा तो इब्लिश का वो श्राप ही था - कम से कम इतनी अनाचारी, लाचारी, बेबसी को देखने को नहीं मिलती। लेकिन दूसरी तरफ फिर सोचता हूँ, कितने हजारों परिन्दे मेरा आश्रय पाते है। दैत्य, पिशाच, गन्धर्व-किन्नर, मानव ये सब भी तो कभी ना कभी मेरे पास आते ही है। फिर क्यों दुःखी होऊँ। सैकड़ों बरसों से मैं अकेला ही था। आज तुम यहाँ आए तो मेरा मन भी तुम्हें अपनी व्यथा-कथा सुनाने का हुआ। मैं जानता हूँ तुम लेखक हो, एक कहानी लिख लोगे लेकिन मेरी इस व्यथा-कथा को लिखने के लिए तुम्हारी कलम कितनी बड़ी हो पाएगी यह तुम ही समझो। 


बस! इसके बाद वो आवाज बन्द हो गयी। संदेश बैठा सोचता रहा, यह सपना था या सच। कोई इस कहानी पर विश्वास कर पाएगा। आज सभी अपने-आपको वैज्ञानिक युग का मानते है, ऐसे में यदि मैं यह कहानी लिखूंगा तो कौन विश्वास करेगा। इसी उधेड़-बुन में उसे सुध ही नहीं रही कि कब भोर की पहली किरण आकर उसे एक नूतन संदेश दे रही थी। पंछियों की चहचहाहट देख उसे बार-बार बरगद की कही वो बात सुनाई सी दे रही थी ‘‘कितने हजारों परिन्दे मेरा आश्रय पाते है’’ वाकई जिब्रिल का वो वरदान बरगद के लिए ही नहीं हम सब के लिए है। यदि बरगद खत्म हो जाता तो...............। नहीं-नहीं, यह सम्भव नहीं है, जिब्रिल का वरदान कयामत तक रहेगा। बरगद यूँ ही आश्रय देता रहेगा, सभी परिन्दों, दैत्यों, दानवो, मानवों, किन्नरों, गन्धर्वों और बेताल को। साथ ही साथ वो हमारे लिए प्राणवायु भी इसी तरह से देता रहेगा। यही तो जिब्रिल का वरदान है और संदश की एक नई कहानी का सूत्रपात।

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