मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 3 Chaya Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 3

भाग 3
आरिज़ ने तो कई बार उसके साथ मार-पीट भी की थी। तब भी कोई कुछ नही बोला था। उसका गुनाह था कि उसने कठपुतली बनने से इन्कार कर दिया था। मजलूम औरतों के हक़ के लिये लड़ने की ठानी थी। ये दो चीजें थी जो उन्हें नश्तर के माफिक चुभ रही थीं। हलाँकि एक हद तक उसने सहा भी था।
उनके बाहर निकल जाने के बाद फिज़ा ने जैसे ही खुद को महसूस किया एक अन्जाने दर्द से वह चिल्ला उठी। गिरियां कर रो पड़ी।
पेट के निचले हिस्से में भयंकर दर्द उठा था, साथ ही उसे अपने नीचें कुछ गीलेपन का अहसास हुआ। अहसास कुछ चिपचिपा सा था। वह एकदम डर गयी। देखने से पहले ही मन में खौफनाक से विचार आने लगे। अक्सर ऐसे वक्त में बुरे विचार पहले आ धमकते हैं।
उसने देखने की कोशिश की, तो सलवार में खून के धब्बे नजर आये। जो बिल्कुल ताजे और गीले थे। सलवार के साथ-साथ पलंग पर पड़ी हल्की गुलाबी चादर भी सन गयी थी। जिन्हे देख कर वह बुरी तरह डर गयी। ये धब्बे दो-चार नही थे, आधी से ज्यादा जगह खून से लथपथ हो गयी थी। सफेद सलवार, सफेद नही, लाल दिखाई दी। ये महाबारी का खून नही था। इतना खून महाबारी का नही हो सकता। वह तो पिछले दो महीनों से रुकी हुई थी। क्योंकि वह हामिला थी। अम्मी ने बताया था महाबारी अब, तब तक नही होगी जब तक वह बच्चा नही जन लेती। यानि उसे तो नौ महीने बाद ही महीना होना था फिर..? फिर ये कैसा खून है? पेट को हाथ से छूकर देखा और किसी अनजानी आशंका से कलेजा मुँह को आ गया -"मेरा बच्चा......सही सलामत तो है न? कहीँ उसे तो कुछ नही हुआ?
उसे तजुर्बा नही था सिर्फ कयास था कुछ अनहोनी हुई है। वह नही समझ पाई क्या हुआ है? इतना खून देख कर बुरी तरह घबरा गयी थी। पेट में असहनीय दर्द रह-रह कर उठ रहा था। दर्द बहुत तेज उठा था। इतना तेज दर्द उसे पहले कभी नही हुआ था। वह बुरी तरह तड़पने लगी।
इस बार उसकी चीखों की आवाजें बाहर तक जाने लगीं। ऐसी हालत में वह बिल्कुल पागल जैसी हो गयी थी। एक साथ दो बज्र पात जो हुये थे। जो उसे ही क्या किसी भी औरत को पागल करने के लिये काफी थे। उसने महसूस किया वह दरगाह के बाहर पटटे पर बैठी किसी भिखारन के माफिक लग रही थी। जिसके जिस्म पर चीथड़े होते हैं और जहन में टुकड़ों की भूख।
आरिज़ की माँ ने उसकी चीखों को पहले तो नजर अंदाज कर दिया फिर उनको मजबूरन कमरें में आना पड़ा ये सोच कर, अगर मेहमान खाने में बैठे मर्दों तक आवाज चली गयी तो क्या होगा? अगर ऐसा हुआ तो उनकी बनी बनाई साख मिट्टी में मिल जायेगी। खामखाहँ बात का बतंगड़ बनेगा और उनके खानदान की इज्ज़त भी जायेगी।
किचिन से निकल कर सने हुये हाथ लेकर फिज़ा के कमरे में पहुंची। वह अपने दोनों घुटनों को पेट से लगाये हुये करवट से लेटी हुई थी और दर्द से तड़प रही थी। उन्होंने फिज़ा को इस हालत में देखा तो फौरन समझ गयी माजरा कुछ और भी है। उन्होने उसकी सलबार की तरफ गौर किया, जहाँ ताजा खून उन्हें दूर से नजर आ गया।
उन्होंने आँखें गड़ा कर मुआयना किया, और यकीन हो जाने पर जिस्मानी हरकत के रंग कुछ बदल गये। उनके चेहरे पर आने वाले उतार-चढ़ाव बता रहे थे, जो उसकी फिक्र के नही थे, बल्कि आने वाली मुसीबत की उधेड़बुन थे। जिसे वह चाह कर भी छुपा न सकी। वैसे उनके लिये चेहरे के रंगों को छुपाना कोई मुश्किल काम नही था। वह तो इसकी आदी हो चुकी थी। चूकिं उनके खानदान का ये पहला तालाक नही था। इससे पहले भी यहाँ कई बार तालाक दिये जा चुके थे। ऐसा फिज़ा ने गुपचुप तरीके से सुन लिया था। वैसे तो उस घर का माहौल कुछ ऐसा नही था कि खुल कर बात की जा सके। फिर तो ऐसे हालात, आदत में शुमार हो जाते हैं। जिन पर अफसोस जताना जरुरी नही था।
जिस वक्त उन्होनें फिज़ा की चीखों को सुना था वह बुर्का उतार चुकी थीं और उस वक्त गोश्त पर लगे खून को साफ कर रही थीं वह उसे पकाने की तैयारी में थीं। उन्हें काम को इस तरह अधूरा छोड़ने की तिलमिलाहट थी। आमतौर पर वह खाना नही पकाती थीं। आज खानसामा भी नही आया था, दोनों बड़ी दुल्हनें घर में नही थीं। फिज़ा भी अब घर की दुल्हन रही नही, लिहाजा सारा काम उन्हें ही करना था। वह आकर बस इतनी सी फ्रिक के साथ बोलीं, जैसे घर में किसी को हल्का बुखार चढ़ जाता है- "ओह ...हमल गिर गया है शायद, डाक्टर के पास ले जाना होगा, अब ये बला भी हमारे ही सर फूटनी थी।" दुपट्टे को सँभालती हुई, अजीब सा चेहरा लिये बाहर चली गयी। बिल्कुल उसी तरह जैसे पर सड़क चलते हुये कोई हादसा हुआ हो और वह देखने के लिये कुछ पल रुकी हो। उस वक्त भी दो लब्ज मोहब्बत के नही बोले, अगर बोल लेतीं तो क्या बिगड़ जाता? औरत की हैव़ानियत उसने पहली मर्तबा ही देखी थी। आरिज़ की अम्मी ने फिज़ा से कुछ पूछने, तसल्ली बँधाने या छूने की भी ज़हमत नही उठाई।
इस वक्त उसे एक औरत की सख्त जरूरत महसूस हो रही थी। जिसका हाथ पकड़ कर वह रो सके। जिसके सीने से कस कर लिपट सके, वो तमाम सवाल कर सके, जो उसके दिल को लहूलुहान कर रहे थे।
मगर फिज़ा को आशुफ़्ता देख कर, उसके दिल में तो रहम का कतरा भी न था। औलाद जनने और खोने का दर्द वह बखूबी जानती होगी और ये भी कि ये पल कितने जिल्लत भरे होते हैं। औरत को औरत का आसरा चाहिये होता है। बावजूद इसके वह टस से मस न हुई। उसके अन्दर की औरत मर चुकी थी। उसकी इस बेरुखी का कोई पुख्ता कारण नही था उसके पास, हाँ इतना जरुर था जब बेटे ने ही बेदखल कर दिया हो तो उसकी अम्मी क्यों मोहब्बत जताने लगी। वैसे भी वह जब से इस घर में आई है उसे यहाँ किसी का भी प्यार नसीब नही हुआ। कोई खुशी मयस्सर नही हुई। ये कैसा रसूख था? जिसकी आड़ में औरत की कुर्बानियाँ दी जाती हों।
वैसे फिज़ा के वालदेन को फोन करके बुलाया गया था। उन्हें आने में थोड़ा वक्त था। उस बीच ये हादसा हो गया। उन्हे फिज़ा की हालत का पूरा इल्म नही था। मगर वह उसके अहज़ान से बाकिफ़ थे। फोन पर वह लोग बस इतना ही समझ पाये थे कि कुछ गड़बड़ हुई है और वह आने की तैयारी में थे। आरिज़ की अम्मी उनके आने से पहले इस आई हुई बला को टालना चाहती थी।
जो ड्राइवर चाचा उसे मायके ले जाने के लिये तैयार खड़े थे, उससे अस्पताल ले जाने के लिये कहा गया था। वह भी चुपचाप सिर नीचा किये सब देख सुन रहे थे। समझ कर भी चुप्पी साधना उनकी मजबूरी थी। आखिर वह उस घर के एक मुलाजिम जो ठहरे। उनके तास्सुरात बता रहे थे कि वह उस घर की दुल्हन के अहज़ान से वाकिफ थे और रंज में थे। मगर बोल नही सकते थे। उनका कुछ बोलने का हक़ भी नही था। ये बड़ी मुश्किल घड़ी होती है, जब आप सामने वाले का दुख- दर्द समझ रहे हों और कुछ कर नही सकते। केवल दर्शक बन कर रह जाते हैं।
जैसे- तैसे वह हिम्मत बटोरती और खुद को संभालती हुई अकेले ही गाड़ी तक पहुँची थी। आरिज़ की अम्मी काफी दूर खड़ी थीं। वह खुद को व्यस्त रखने के नाटक में थीं। दर्द के मारे उसकी जान निकल रही थी। कदम उठाना मानों पहाड़ चढ़ने जैसा था। उसकी दोनों टाँगें थरथर काँप रहीँ थीं। कुछ तो हमल गिरने के वक्त की तकलीफ थी और कुछ उस जलजले की, जिसने उसे ज़िस्मानी और ज़हनी तौर पर तोड़ के रख दिया था।
अब आरिज़ की अम्मी आगे बढ़ कर आ गयी थीं उन्होंने उसे गाड़ी की पीछे की सीट पर लिटाने में उसे थोड़ा सा सहारा दे दिया था। बेशक उन्होनें सहारा दिया था मगर फिज़ा उस सहारे से और भी घबरा रही थी। उसे ये भी नही पता था कि उसकों यकीनन अस्पताल ले जाया जा रहा है या नही? उसे गाड़ी में लिटाने के बाद वह खुद ड्राइवर चाचा के साथ आगे बैठ गयीं थीं।
गाड़ी स्टार्ड करते उससे पहले ही आरिज़ की अम्मी ने ड्राइवर चाचा को हुक्म दिया कि वह फिज़ा के वालदेन को फोन पर इत्तला दे दें- कि वो लोग घर न आकर सीधे अस्पताल पहुँचें।
रास्ते भर खून के कथड़े बहते रहे और वह दर्द से चिल्लाती रही चीखती रही और अपने ही हाथों से अपने पेट को पकडे़ रही। अपने बच्चे को मरता हुआ महसूस करती रही। मगर आरिज़ की अम्मी ने एक बार भी पीछे मुड़ कर नही देखा। अगर ये बच्चा जन्म लेता तो वह भी तो दादी बनती? उसका भी तो कोई रिश्ता होता इससे? मगर उसे इस बात की न तो कोई खुशी थी और न ही बच्चे के मर जाने का गम था। ड्राइवर चाचा एक दुख्तर की तरह उसे देख कर लाचार थे। वह चाह कर भी कुछ नही कर सकते थे। ये दुनियाबी ज़हनीयत की अजीब सी रवायत थी। जहाँ पहुँच कर इन्सान , इन्सान नही रहता सिर्फ अपने ही बनाये उसूलों का पुतला बन जाता है।
क्रमश: