भाग 62 जीवन सूत्र 70 बड़े आगे आकर करते हैं नेतृत्व
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।(3/23)।
इसका अर्थ है:-हे पार्थ! अगर मैं सदैव सावधान होकर कर्तव्यकर्म न करूँ तो बड़ी हानि हो जाएगी; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
भगवान कृष्ण के इन प्रेरक वचनों से हम 'मेरे ही मार्ग का अनुसरण' इन शब्दों को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। वास्तव में बड़े जैसा करते हैं छोटे उनका अनुसरण करते हैं, इसलिए बड़ों को एक आदर्श, प्रेरक, मार्गदर्शक व्यवहार करना ही होता है।धर्मयुद्ध में भगवान श्री कृष्ण अपनी भी भूमिका निभा रहे थे, इसीलिए उन्होंने अर्जुन के सारथी का कार्य भी स्वीकार किया। वे चाहते तो युद्ध से पृथक रह सकते थे या उसमें निष्क्रिय भूमिका भी निभा सकते थे, लेकिन "कर्मों के बंधन से कोई नहीं बचा है" और "मनुष्य के लिए कर्म अनिवार्य है," यही सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक कर्मयोगी की तरह जीवन जिया।
घर के मुखिया,विद्यालय के शिक्षक,सार्वजनिक जीवन में शीर्ष पदों पर रहने वाले व्यक्ति आदि ये सब एक प्रेरक की भूमिका में होते हैं।वे जैसा करते हैं,लोग उनका अनुसरण करते हैं। एक तरह से वे अपने अच्छे कार्यों से दूसरे लोगों के लिए एक उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं।महात्मा गांधी ने विश्व के सबसे बड़े अहिंसक जन आंदोलन का सफल नेतृत्व किया और इसके लिए वे सत्याग्रह,आंदोलन आदि कार्यों में स्वयं आगे बढ़कर नेतृत्व करते थे।अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में अपनी गिरफ्तारी देकर और अनेक वर्ष जेल में बिताकर उन्होंने यह सिद्ध किया कि नेतृत्व करने वाला स्वयं आगे रहता है।अर्जुन के द्वारा हथियार रखने को अगर भगवान कृष्ण युद्ध क्षेत्र से पलायन और कर्तव्य से विमुख होने के तुल्य बताते हैं तो इसका अर्थ भी यही है कि जब सेना को पांडवों के एक श्रेष्ठ सेनापति अर्जुन की ऐन वक्त पर नेतृत्व करने की सर्वाधिक आवश्यकता है,तो वे अपने कर्तव्य से मुँह क्यों मोड़ना चाहते हैं?नेतृत्व करने वाले में सहजता,सादगी,अनुशासन,निरहंकार और समय की पाबंदी के गुण का होना अत्यंत आवश्यक है। अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन का भी एक उदाहरण है। एक बार वे अपने घोड़े पर सवार होकर कहीं जा रहे थे।उन्होंने देखा कि कुछ सैनिक एक लकड़ी के भारी लट्ठे को हटाने का प्रयास कर रहे हैं और वहीं पास में खड़ा एक नायक उन्हें आदेश दे रहा है। पहले जॉर्ज वाशिंगटन ने उस कमांडर से कहा कि इस भारी लट्ठे को हटाने के कार्य में आपकी भी आवश्यकता है,लेकिन उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि यह मेरा काम नहीं है।मेरा काम केवल कमांडर के रूप में सैनिकों को आदेश देना है। इस पर घोड़े से उतरकर जॉर्ज वाशिंगटन ने स्वयं उस लकड़ी के भारी लट्ठे को हटाने में सहायता की।इसके बाद विनम्रतापूर्वक उस कमांडर के पास जाकर कहा, "आपको भविष्य में अपने कार्य में और किसी व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता पड़ेगी तो अपने सुप्रीम कमांडर को प्रेसिडेंट हाउस से बुलवा लेना।….. किसी भी कार्य को छोटा नहीं समझना चाहिए।" यह सब सुनकर वह कमांडर अत्यंत लज्जित हुआ।यह होती है- विनम्रता,अहंकार का अभाव और आपातकाल में कहीं पर भी कार्य करने के लिए तत्पर होने का नेतृत्व का एक श्रेष्ठ गुण।
पिछले श्लोक में स्वयं भगवान ने कर्म क्षेत्र में उतरने और कर्मरत रहने की चर्चा की थी। इस श्लोक में भगवान कृष्ण ने आलस्य और प्रमाद छोड़कर कर्म करने का निर्देश दिया है। आलस्य की अवस्था न सिर्फ हमें अपना कार्य करने से रोकती है बल्कि अगर यह आलस्य हमारी आदत में शामिल हो जाए और यह एक स्थाई भाव के रूप में हमें कर्मों से विरक्त कर दे तो फिर स्थिति हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाती है।
जो कर्म हमारे लिए निर्धारित हैं, जो कर्म हमारे लिए आवश्यक हैं,अगर मनुष्य उन कर्मों से विरक्त हो जाए तो फिर उसके सामने जीवन निर्वाह के साथ-साथ समाज के प्रति अपने दायित्वों को पूर्ण करने में असमर्थता की स्थिति बनने लगेगी।कर्म के क्षेत्र में ऐसी अरुचि उस कर्म में मनुष्य का अभ्यास ही समाप्त कर देती है। कई बार हमें अपनी रुचि, इच्छा, प्रतिभा योग्यता और आवश्यकता के अनुरूप कार्य नहीं मिलता,फिर भी हम अपने प्राप्त कार्य के प्रति समायोजन का दृष्टिकोण रखते हुए उसे भी आनंद के साथ करते हुए कर्तव्य निभाते हैं।स्वयं श्रीकृष्ण ने अपने जीवन के उदाहरणों से इसे सिद्ध किया है।अर्जुन की ओर इसी बात का संकेत करते हुए उन्होंने कहा है कि कर्म के प्रभाव से कोई मुक्त नहीं है और अगर नेतृत्वकर्ता के सामने कर्म करने या ना करने का प्रश्न हो, तो उसे तो निरंतर कर्म करना होता है।
श्री कृष्ण ने अपने जीवन में आवश्यकता के अनुसार एक साधारण मनुष्य की तरह अपने मिले दायित्वों को भी पूरा किया।एक गोपालक परिवार में पालन पोषण और वहां उनके द्वारा साधारण बालक के रूप में संपन्न की गई लीलाएं,तत्कालीन राजा कंस के आदेश को मानते हुए मथुरा पहुंच जाना,अनेक बार शांति स्थापना के प्रयास के लिए साधारण दूत की भूमिका भी स्वीकार कर लेना और आवश्यकता होने पर अर्जुन के रथ का सारथी भी बन जाना। श्री कृष्ण कर्मों को आवश्यकता के अनुसार संपन्न करते हैं।वे आदर्श और उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।अन्य लोगों को भी स्थिति के अनुसार हर कार्य को करने के लिए तैयार रहना चाहिए और अपने दायित्वों से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। बड़े लोगों द्वारा प्रस्तुत किए गए उदाहरण और कार्यों का लोगों के अवचेतन मन पर अवश्य गहरा प्रभाव रहता है।
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय