गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 64 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 64

भाग 63 जीवन सूत्र 71,72


जीवन सूत्र 71 कर्म करते रहें नहीं तो करने होंगे समझौते



भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।3/24।।

इसका अर्थ है, हे अर्जुन!यदि मैं कर्म न करूँ,तो ये सारे मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएंगे;और मैं वर्णसंकर का कर्ता तथा प्रजा को नष्ट करने वाला हो जाऊँगा।।

पिछले श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं द्वारा कर्मों को निरंतर करते रहने की बात कही है।

जीवन सूत्र 72 बड़े जो आचरण करते हैं,उसका अनुसरण छोटे करते हैं

बड़े जो आचरण करते हैं,उसका अनुसरण छोटे करते हैं।भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं के कर्म नहीं करने की स्थिति में मनुष्यों के नष्ट- भ्रष्ट होने की बात कही है अर्थात अगर भगवान स्वयं कर्मों में प्रवृत्त नहीं होंगे तो अन्य लोग भी नहीं होंगे और कर्म नहीं करने से वे नष्ट हो जाएंगे।

इस श्लोक में भी श्री कृष्ण ने कर्म की महत्ता बताई है और लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित किया है।अगर मनुष्य सही तरीके से कर्म नहीं करेंगे तो न सिर्फ वे किसी अभीष्ट कार्य को पूरा नहीं कर पाएंगे,बल्कि उस कार्य की सफलता में भी संदेह बना रहेगा।

वर्णसंकर का अर्थ विभिन्न जाति के स्त्री- पुरुष के बीच विवाह से उत्पन्न संतान होता है। पूर्व के एक श्लोक में अर्जुन ने श्री कृष्ण से युद्ध में जनहानि की स्थिति में वर्णसंकर संतानों के उत्पन्न होने की चिंता प्रकट की। इस शब्द को लेकर अर्जुन का तात्पर्य लाखों की संख्या में लोगों के मारे जाने के बाद स्त्री पुरुषों की जनसंख्या की असंतुलित स्थिति और किसी भी दृष्टिकोण से मजबूरीवश किए जाने वाले बेमेल विवाह की आशंका को लेकर था।

इस श्लोक में भी भगवान कृष्ण ने वर्णसंकरता की स्थिति की चर्चा की है।कर्म न करने या कर्मों को आलस्य तथा ढीलेपन के साथ करने से भी मनुष्य का पतन होगा।वह अपनी योग्यता के अनुरूप स्थान प्राप्त नहीं कर पाएगा।आज के समतामूलक लोकतांत्रिक युग में आमतौर पर लोग अपनी क्षमता,योग्यता और रूचि के अनुसार अवसर मिलने पर कार्य कर रहे हैं। अगर स्वयं को मिले दायित्व या स्वयं के समक्ष उपस्थित कर्म को करने में कोताही बरते तो फिर उसे समझौते तो करने ही होंगे।ऐसे स्थिति में उसे विरोधी विचारों के द्वंद्व और तनाव वाली वर्णसंकरता का सामना करना पड़ सकता है। कोई भी अकुशलतापूर्वक किया जाने वाला कर्म न केवल वर्तमान कार्यक्षमता और कार्यस्थिति बल्कि भावी विवाह, संतति आदि सभी को प्रभावित करता ही है।श्री कृष्ण यहां अकर्मण्यता के दूरगामी परिणामों की ओर संकेत कर रहे हैं।


(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय