गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 54 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 54


जीवन हो यज्ञमय

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।3/10।।

इसका अर्थ है,प्रजापिता ब्रह्मा ने सृष्टि के प्रारंभ में यज्ञ सहित प्रजा का निर्माण कर कहा- इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम्हारे लिये इच्छित कामनाओं को पूर्ण करने वाला (इष्टकामधुक्) हो।

पिछले आलेख में अपने कर्मों में यज्ञ जैसा परोपकार भाव लाने की चर्चा की गई थी।पंच महायज्ञ के अंतर्गत हमने ब्रह्म यज्ञ,देवयज्ञ,पितृ यज्ञ,नृ यज्ञ और भूत बलि यज्ञ की बात की। वास्तव में अग्नि में समिधाएं अर्पित कर देवताओं को समर्पित किए जाने वाला यज्ञ ही एकमात्र यज्ञ नहीं है। अगर बारीकी से विश्लेषण किया जाए तो पूरा जीवन ही यज्ञमय होना चाहिए।यज्ञ की अवधारणा परोपकार और लोक कल्याण से जुड़ी हुई है।व्यक्ति के वैयक्तिक कर्म भी लोक कल्याण और परोपकार की सीमा को स्पर्श करते हैं। इनमें कर्तापन और आसक्ति के त्याग से ये कर्म भी लोगों की मदद और जनकल्याण की परिधि में आते हैं।अगर भगवान कृष्ण के निर्देश के अनुसार यज्ञमय जीवन से जुड़ें तो फिर यह मनुष्य को वैयक्तिकता से सामूहिकता की ओर मोड़ता है।

कर्मों को यज्ञमय बना लेने के कारण ही समाज में सहयोग और समन्वय की प्रवृत्ति बढ़ती है। एक से सोच का दायरा बढ़कर अपने परिवार और फिर पास- पड़ोस से लेकर उदात्त रूप होता हुआ पूरे समाज और फिर अंतरराष्ट्रीयवाद तक विस्तृत हो सकता है। यह भारत की प्राचीन वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा भी है। प्रजापिता ब्रह्मा संस्थागत यज्ञ के साथ-साथ धरती के प्रारंभिक मनुष्यों के लिए यज्ञ द्वारा वृद्धि और कामनाओं की पूर्ति का संकेत करते हैं ।इसका अर्थ है - एक दूसरे से सहयोग और सामूहिक परिश्रम से पूरे समाज की उन्नति।श्री कृष्ण इसी उद्देश्य से धरती पर यज्ञ के महत्व और यज्ञमय आचरण पर बल देते हैं। इसका अर्थ है - एक से बढ़कर अनेक और फिर अंततः सबका भला।

हमारे कर्म अगर यज्ञमय हो गए तो हम सामूहिकता से जुड़ जाएंगे क्योंकि यज्ञ की अवधारणा परोपकार की अवधारणा से भी कहीं ऊपर है।

(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय