हमेशा की तरह मैं खड़की में बैठा दूर आसमान से उभरते चाँद को देख रहा था। चाँद आधा-सा, अधूरा-सा, फिर अपने ग़म की परछाई को छुपाता-सा। शायद उसे भी यह मालूम था कि मैं रोज़ाना की तरह ही उसका इन्तज़ार कर रहा होऊँगा। खिड़की से झाँकता चाँद और मैं दोनों तन्हा, चाँद तन्हा इसलिए कि वो आधा है उसकी चाँदनी शायद रूठी हुई है, और मैं.........मैं तो तन्हा हूँ ही। यही तन्हाइयाँ तो अब मेरी संगी है। इन्हीं तनहाइयों के भीतर मैं अपने आप को ढूँढता हूँ, अपने वजूद को टटोलता हूँ। एक आत्मविश्लेषण सा करता हूँ। मैं कितना प्रतिशत आदमी हूँ, इन्सान बनने की बात तो दूर है। इस दौर में आदमी होना भी तो बड़ी बात है। लेकिन प्रश्न तो यह है कि आप कितने प्रतिशत आदमी हैं। आदमी की गणितीय परिभाषा को खोजता मैं बस यूँ ही अपने आप में ही उलझता-सा, कुछ उखड़ा-सा। इसी अकेलेपन ने मुझे कई रचनाएं दी हैं। कई बार सोचता हूँ यह तो ठीक है कि रचनाएं भी हैं, किन्तु मेरे भीतर के खालीपन का क्या करूँ ? यूँ ही ख़यालों के रथ पर सवार रोहन न जाने अतीत के कितने ही गलियारो में चलता गया।
वो कॉलेज के दिन जब रोहन और रानी दोनों ही लव बर्ड्स के नाम से जाने जाते थे। दुनिया की परवाह किए बगैर वे दोनों बांहों में बाहें डाले उन्मुक्त, खुले गगन के नीचे। प्रेम की पींगे बढ़ती गई और धीरे-धीरे उन्होंने यह तय कर लिया कि वो जल्दी ही विवाह बन्धन में बंध जाएंगे दो प्रेमी सदा के लिए एक हो जाएंगे, एक अटूट बन्धन जो नई ऊर्जा देगा, नई ऊष्मा देगा, जिसमें पिघले-पिघले से बदन एकाकार होंगे। और फिर वो दिन भी आया जब रानी सचमुच रोहन के दिल के साथ-साथ घर की भी रानी बन गई। घरवालों का पुरज़ोर विरोध, तमाम रिश्तेदारों के ताने और सभी वर्जनाओं के सेतु तोड़ वे एक हो गए, प्रेम विवाह के इस अटूट बन्धन से। विवाह के बाद भी लव बर्ड्स का यह प्रेम बढ़ता गया। साथ ही साथ दोनों अपने-अपने हिसाब से जोब भी तलाशने लगे। कहीं पेट की आग प्रेम की ऊष्मा को जला कर राख न कर दे इसलिए जोब ज़रूरी था। रोहन को जूनियर अकाउंटेंट का जोब मिल गया, वे दोनों खुश थे। धीर-धीरे रोहन के परिवार वालों का विरोध भी ठण्डा पड़ने लगा था। रानी के व्यवहार ने सभी का दिल जीत लिया था। मन ही मन वे रानी की प्रशंसा करते थे और तभी रानी का सिविल सेवा में चयन हो गया। अब तो घर परिवार, नाते रिश्तेदार सभी का जमावाड़ा होने लगा। कल तक जिस पर रिश्तेदार नाक-भौंह चढ़ाते थे अब वे ही चापलूसों की तरह आगे-पीछे दौड़ने-से लगे थे।
रानी इस प्रकार की बातों से बेपरवाह बस नए सपनों में खोई सी। धीर-धीरे व्यावसायिक विवशताओं के चलते रानी घर के लिए समय कम ही निकाल पाती थी। कभी-कभी खाना समय पर खाया तो खाया, कभी बिना खाए ही भागना पड़ता था, घर का काम करो फिर दफ़्तर का काम करो। हर कामकाजी विवाहिता को इस प्रकार की दोहरी ज़िन्दगी जीनी ही पड़ती है। पुरुष का अहंकार स्त्री और पुरुष के भेद को जीवित रखता है, चाहे पत्नी से कमतर ही क्यों न हो। मध्यम वर्गीय मानसिकता सदैव पत्नी पर भारी पड़ती है। सच बात तो यह है कि औरत भी तो अपनी पुरातन पतिव्रता की छवि से उबर ही नहीं पाती है। वो हमेशा प्रयास करती है कि नदी के तटों को धारा बनकर जोड़ती रहे। पुरुष भीतर से बहुत डरपोक होता है अपनी कायरता, अपने डर को छुपाने के लिए ही वो बाहुबल पर उतर आता है। पत्नी की तुलना में दूसरी स्त्री भले ही कमतर हो किन्तु उसे वो भाती है, सुन्दर लगती है। उसे हर कोण से निहारना चाहता है और यदि पत्नी थोड़ा सा भी सजधज कर या सलीकेदार कपड़े पहन कर बाहर अकेली जाए तो पुरुष का सशंकित मन अड़ जाता है। शायद पुरुष की इसी मानसिकता को भांपते हुए, सिमोन द बऊवार ने लिखा था कि ‘‘जब भी मध्यम वर्गीय लड़की सितारा हैसियत अर्जित करती है। सजने-धजने के बुर्जुआ संसाधनों को त्याग कर स्वयं को प्रदर्शित करती है निःसंकोच, तो उसकी इस बेबाकी से दुनिया के तमाम पुरुष डर जाते हैं, घबरा जाते हैं, वो कभी भी नहीे चाहते हैं कि औरत अपनी सैक्सुलिटी का प्रदर्शन करें। पुरुष केवल यही चाहता कि वो अपनी सुविधानुसार ढकीमंदी औरत को बेपर्दा करे। स्त्री की विराट क्षमताओं से भयाक्रांत पुरुष सदैव उस पर वर्जनाएँ आरोपित करता रहा है चाहे स्वयं वह कितना ही लम्पट क्यों ना हो। उसे पत्नी केवल सजी-धजी गुड़िया-सी बस परदानशीं चाहिए।
रोहन और रानी का प्रेम भी यथार्थ के धरातल पर औंधे मुँह गिर पड़ा था। लव बर्ड्स लहूलुहान ज़मीं पर गिरे थे। वो ही रानी जो कभी रोहन के दिलो-दिमाग कि रानी थी, अब उसमें उसे खोट नज़र आने लगा। रानी चाहे कितनी ही थकी हुई क्यों न आई हो पति के पहले घर पहुँचना और पति को चाय देना उसका फर्ज़ था। रोहन यह भूल जाता था कि उसकी पत्नी उससे कई दर्ज़ा उच्चत्तर अधिकारी है। वो सोचता था कि होगी अफसर, यहाँ तो मेरी पत्नी है, और पत्नी का फर्ज़ होता है, पति की सेवा करना। रानी कई बार सोचती यह वहीं रोहन है जो ज़रा सी तकलीफ पर उसके लिए जागता रहता था। सर दबाता रहता था क्या हो गया इसको ? कोई जवाब नहीं खोज पाती थी वो। कितना फ़र्क होता है प्रेमिका और पत्नी में। सच ही है प्रेमिका यदि पत्नी बन जाती है तो वो प्रेमिका नहीं रह जाती है। पति उस पर केवल पति होने का अधिकार जताता है और पत्नी अपना अधिकार जताती है। घर प्रेम नगरी ना हो कर दंगल बन जाता है। प्रेम का यह रूप भी रानी ने देख लिया था। वो खोई-सी अपनी ही यादों में- रोहन की बांहों में बाहें डाले खुले आसमान के नीचे घण्टों बस यूँ ही, और अब एक ही बिस्तर पर दो शरीर, दो अलग-अलग दिशाओं में करवटें। क्या यही नियति होती है तो प्रेम की ? और यदि यही नियति होती है तो प्रेम को केवल प्रेम ही रहने दिया जाए। क्यों उसे रिश्तों का नाम दें, रिश्तों के नाम पर इल्ज़ाम दें, आँखों में उमड़ते ख़्वाब को क्यों आंसुओं में तबदील करें हम ? वो सोचती रही बस यूँ ही करवट बदले, और उधर रोहन खिड़की से आधे चाँद को देखता रहा। आज रोहन एकदम अकेला है, उसे याद आया वो दिन जब उन दोनों ने अलग होने का फैसला किया रोहन बहुत खुश था। चलो अब मन के भीतर जो पीड़ा है, वरिष्ठ अफसर पत्नी का कमतर पति होने की वो अब नहीं रहेगी। वो सेाच रहा था कदाचित् उस अफसर के अहंकार के तले रानी का प्रेम दब गया है। उसके भीतर कुण्ठाओं ने जन्म ले लिया है। काम्पलेक्सिटी आ गई है उसमें। उधर रानी सोच रही थी कितना आसान है पुरुष के लिए स्त्री का त्याग करना बिना उसकी ग़लती के भी। पर यह कौन सी नई बात है ? रामजी ने भी तो सीता को बिना किसी ग़लती के त्याग दिया था। यह तो पुरुषों की पुरातन आदत है। वो भीतर ही भीतर टूटती रही क़तरा-क़तरा टूटन बहती रही आंसुओं के रूप में। आज बरसों बाद रोहन चाँद देखते-देखते खूब रोया, जी भरकर रोया एकदम अकेले में। सबके सामने तो पुरुष का रोना वर्जित है ना। आज उसे लग रहा था कि वो कितना अकेला है रानी के बिना, एक-एक चीज के लिए रानी पर निर्भर रोहन अब बस अकेला, एकदम अकेला। उसका मन कर रहा था कि रानी से बात कर, लेकिन पुरुष के अहंकार और ऐंठ ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। वो रोता रहा, चाँद देखता रहा उदास, दोनों दुःखी, दोनों आधे हैं, अधूरे हैं।