युगांतर - भाग 13 Dr. Dilbag Singh Virk द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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युगांतर - भाग 13

यादवेंद्र यहाँ क्लीवेज को देख रहा था, वहीं परेशान होने का अभिनय भी कर रहा था
"आप तो गहरी सोच में पड़ गए।" - शांति ने धीरे से उनका हाथ अपने नाजुक हाथो में लेकर सहलाते हुए कहा।
"सबूत तो चाहिए ही, भले झूठा ही हो।" - यादवेंद्र ने अपनी परेशानी का कारण बताया।
आँखों के मयखाने में चतुराई का जाम भरते हुए शांति बोली, "अगर आप चाहें तो हम खुद ही सबूत बन जाएँ।"
यादवेन्द्र ने शांति की गर्म साँसो को अपने करीब अनुभव करते हुए और उससे आनन्दित होते हुए कहा, "हम तो चाहेंगे ही।"
शांति ने अपने धड़कते हुए दिल को यादवेंद्र की छाती से सटाते कहा, "तो चाहिए न, आपको रोका किसने है।"
यादवेन्द्र ने उसे अपने आगोश में भरते हुए कहा, "इससे सबूत कैसे मिलेगा।"
शांति ने अपना सिर यादवेन्द्र के कंधों पर रखकर अपनी ऊँगली उसकी ठोड़ी पर चलाते हुए कहा, "आप तो इस मामले में कच्चे खिलाड़ी लगते हैं।"
यादवेन्द्र ने शांति के चेहरे को हाथ से पकड़कर ऊपर उठाया और आँखों से आँखे मिलाते हुए कहा, "वह कैसे?"
यादवेन्द्र के हाथों को चूमते हुए और थोड़ा शर्माते हुए वह बोली, "वैसे तो वह आपके एक फोन से ही रास्ते पर आ जाएगा और अगर वह न माने तो जो कुछ आप मुझसे अब करोगे, मैं कह दूँगी, वह उन्होंने मुझसे जबरदस्ती किया है।"
यादवेन्द्र ने खुश होते हुए कहा, "वाह! मैंने तो ऐसा सोचा ही न था। मान गए मैडम जी आपके दिमाग को।" शांति ने प्यारी सी अदा के साथ मुँह बनाते हुए कहा, "यह मैडम जी मैडम जी क्या लगा रखा है, आपके लिए तो मैं बस शांति हूँ। आपकी शांति... है ना।
यादवेन्द्र ने उसे अपनी बाहों में भींचते हुए कहा, "बिल्कुल लेकिन फिलहाल तो हमें शांत होने दो डार्लिंग।" इतना कहकर दो शरीफ़ अपनी शराफत से एक बदमाश से नारी का नारीत्व बचाने के लिए योजना बनाने लगे।
अगले ही दिन मैडम शांति के तेवर बदले हुए थे। कल तक जिस चोपड़ा साहब का नाम सुनते ही उसकी घिग्घी बंध जाया करती थी, आज वह उसे रास्ते का वह पत्थर समझ रही थी, जिसे हर कोई ठोकर मार सकता है। लेट आने का कारण बताने की बजाए वह उन्हीं पर बरस पड़ी, "मि. चोपड़ा अपनी जबान को लगाम दीजिए। मैं औरत हूँ तो क्या हुआ, इतनी कमजोर नहीं है कि हर कोई आकर अपनी धौंस जमाने लगे। मैं इसी वक्त आया करूँगी, आप से जो बन पड़े वह कीजिए।" - इतना कहकर वह दफ्तर से बाहर चली गई।
मि. चोपड़ा तो हतप्रभ से होकर देखते रह गए। तभी टेलीफोन की घंटी बजी। यादवेन्द्र का फोन था। उनका नाम पूरे इलाके में जाना जाता था और छोटे-मोटे अधिकारियों पर उनकी दहशत थी। और ऐसा हो भी क्यों ना, मंत्री जी के निकटम व्यक्तियों में एक थे वे। मि. चोपड़ा ने फोन उठाया, बोले, "जी, कौन बोल रहा है।"
जबाब आया, "यादवेन्द्र सिंह।"
"जी आप! कहिए क्या आज्ञा है।"
"क्या चल रहा है आपके दफ्तर में?" - यादवेंद्र ने रौबदार आवाज में कहा।
"मैं समझा नहीं।" - डरते-डरते मि. चोपड़ा ने कहा।
"जितनी जल्दी समझ जाएँ, उतना ही बेहतर होगा आपके लिए।"
मि. चोपड़ा कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे। जब किसी कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति की कर्त्तव्यनिष्ठा पर दोषारोपण किया जाता है तब उसकी स्थिति वैसी ही होती है जैसी सूखी लकड़ियों पर आग की चिंगारी डालने पर लकड़ियों की हुआ करती है। मि. चोपड़ा की मनोदशा भी कुछ ऐसी ही थी। वह क्रोध से जल रहे थे और चाहते थे कि मुँह तोड़ जबाब दें कि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जो गलत हो, मगर वह ऐसा जवाब दे न पाए क्योंकि समझदार थे। वे अपनी औकात जानते थे इसलिए कुत्ते के बेबस पिल्ले की तरह, जो डर के मारे भौंक नहीं पाता और अपनी पूँछ अपनी टाँगों में लेकर चूँ चूँ करने लगता है, गिड़गिड़ाते हुए बोले, "जी आप यह क्या कह रहे हैं, क्या मुझसे कोई गलती हो गई है ?"
"नादान बनने की कोशिश मत करो, हम जानते हैं कि आपके ऑफिस में क्या चल रहा है।"
"जी मैं कुछ समझा नहीं।"
"समझो, समझो, जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी समझ जाओ, यही तुम्हारे हित में है।"
"प्लीज आप साफ-साफ कहें कि आखिर हुआ क्या है?"
"आप मैडम शांति को क्यों तंग कर रहे हैं?" - यादवेंद्र ने सख्त लहज़े में पूछा।
"जी...जी...वह..."
बीच में ही टोकते हुए यादवेन्द्र बोला, "यह जी जी क्या लगा रखा है। आपको शर्म नहीं आती अबला नारियों पर अपनी अफसरी का रोब झाड़ते हुए।"
"नहीं सर, आपने गलत सुना है, मैं उसे तंग नहीं कर रहा, अपितु वह रोज लेट आती है, काम भी ढंग से नहीं करती।"
"लेट आने की तो बेचारी की मजबूरी है। वह कोई तुम्हारी तरह तो है नहीं कि सुबह उठे और नहा-धोकर दफ्तर को चल पड़े। बेचारी औरतों को घर पर भी काम करना पड़ता है। फिर इंसानियत के नाते इतनी एडजस्टमेंट तो की ही जा सकती है। रही दफ्तर में काम न करने की बात। भला वह काम कैसे करे, जब आप आते ही उसका मूढ़ खराब कर देते हैं।"
"मगर सर..."
"अगर-मगर कुछ नहीं, मैं आपको मैडम शांति के विषय में पहली और अन्तिम बार कह रहा हूँ, आगे से शिकायत आई तो अपना बोरिया-विस्तर संभाल लेना।"
मि० चोपड़ा समझ गए कि माजरा क्या है। शांति के आज के तेवरों का राज़ भी खुल चुका था। वैसे वे ईमानदार और शरीफ़ व्यक्ति थे और नियमों का पालन करना और करवाना ही उनका एकमात्र उद्देश्य था मगर जब हर काम में राजनीति चलने लगे तब कौन पूछता है नियमों को। आज उनके आदर्श नारीत्व से हार गए थे। ईमानदार होने के साथ वे समझदार भी थे, इसलिए शांति के इस अमोघ अस्त्र से बचने के लिए उन्होंने आँखें बंद कर लेने की ढाल अपनानी ही उचित समझी।।

क्रमशः