भाई के कहे शब्दों से मुझे लोगों से घुटन होने लगी, ऐसा लगने लगा मानो जैसे यह जिंदगी चुभ सी रही हो, इसलिए में क्लास से जितना तेज़ चल सकता था उतनी तेज़ से चलते हुए में कॉरिडोर से निकला और सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर जाने लगा।मै तब तक सीढ़िया चढता गया जब तक मुझे सामने गेट नहीं दिख गया, मैंने गेट खोला और कुछ कदम बड़ा की में उस सुकुन में आ गया जो सुकुन मुझे ये कुदरत देती थी। मेने एक लंबी सांस छोडी, ठंडा हवा मेरे चेहरे पे पढ़ रही थी, में धीरे धीरे चलता हुआ आगे बड़ा और हर बार की तरह छत पे पैर लटकाकर बैठ गया और सामने आंखों से बहुत दूर......पर दिल के बेहद पास उन कुदरत के नजारे को देखने लगा।
दूर सामने के पहाड़ और उन पहाड़ों के ऊपर बिछी हुई आसमान की रेशम जैसी चादर, कुदरत के हसीन लम्हे को मोती जैसा चमकदार बना रही थी......बस यही तो चाहीए था मुझे अपने लिए, अपने दिल के सुकुन के लिए। ये मेरी जगह थी, जहां में दुनिया से दूर रह के अपने आप को संभालता हूं, सबसे दूर रखता हूं इसीलिए इस वक्त में यहां बैठा हूं सबसे दूर ।मैंने अपना बैग खोला, उसमे से अपनी डायरी निकली और पेन निकाल के खाली पन्ने को खोलकर उसकी पहली लाइन पे पेन की निब रख दी और सोचने लगा, आज फिर से दिल में एक अजीब सी चुभन महसूस हुई थी तो शब्दों को बटोर नहीं पा रहा था, लेकिन फिर भी लिखने का दिल कर रहा था....सोचते सोचते एक गहरी सांस ली और अखिर पेन की स्याही से शब्दों को उस खाली पन्ने पे उतारना शुरू किया
"जिंदगी की सबसे बड़ी चोट क्यों अक्सर अपने ही दे जाते हैं
क्यूं वो अपने ही हमें अपनी जिंदगी से बेगाने कर जाते हैं?"
मैं बस इतना ही लिखा पाया, इतना ही... पेन को वही डायरी के बिच में रखा और उसे बैग में डाल दिया।सामने धीरे-धीरे पहाड़ों के ऊपर चढ़ी बादल की परत हवा से आगे बढ़ रही थी, उसे देखते हुए आभास हो रहा था कि धीरे-धीरे वक्त बढ़ रहा था, पर मेरी जिंदगी नहीं,जैसे जिंदगी आज भी कही वक्त के उन अतीत के पन्नो में रुकी हुई है जिसे मैं अभी तक नही जानता। घर पहुंचते पहले शाम हो गई ,जब अंदर हॉल में पहुंचा तो वहां कोई नहीं था। मैं भी चुप - चाप अपने कमरे में चला गया। बैग टेबल पे रखते हुए कुर्सी पे अपना चश्मा उतार कर आंखें बंद कर के बैठ गया।
भाई की कही बातें अभी तक मेरे कानो में गूंज रही थी तभी मुझे अपने सर पर कोमल हाथ महसूस हुआ़ जो मेरे सर को प्यार से सहला रहा था "अपको कैसे पता में आ गया..." में सीधे बैठते हुए कहा।
"तुम्हे पहचाने के लिए मुझे आंखो ज़रूरत नही है बस एहसास ही काफी है " कहते हुए शिल्पा श्रेयस के बगल में बैठ गई और उसे खाने से भरी प्लेट सामने टेबल पे रख दी,शिल्पा की बात सुनकर श्रेयस ने कुछ नहीं कहा बस एक गहरी सोच में डूब गया। शिल्पा कुछ देर तक श्रेयस के चेहरे को देखती रही उसके बाद श्रेयस के सर पर हाथ रखते हुए कहा "क्या हुआ बेटा, कुछ परेशान लग रहा है" शिल्पा की बात सुनकर श्रेयस होश में आया और उसे देखने लगा,शिल्पा इस वक्त उसकी आँखों के पीछे छुपी हुई परेशानी देख रही थी और ये बात श्रेयस अच्छी तरह समझता था इसलिए उसे फौरन अपनी नजरें हटा ली "ना...नहीं मां.....कुछ नहीं...." वो कुछ देर पल मेरे चेहरे को देखती रही "हम्म ठीक है.....खाना खा ले फिर" मां ने प्लेट हटाते हुए कहा।
"नहीं.....माँ आज भूख नहीं है" कहते हुए में बैग से समान निकलने लगा, क्यूं की में मां से ज्यादा बात नहीं करना चाहता था वजह सिरफ यही थी की वो सब कुछ समझ जाएगी और उसके बाद मैं उनको तकलीफ में नहीं देख पाऊंगा "क्या हुआ है श्रेयस?" शिल्पा ने आखिर श्रेयस को यूं बेचेन होते हुए देखा तो वो समझ गई की कोई बात है जो वो उससे नहीं बता रहा "कुछ भी तो नहीं माँ, वो बस मेरी स्केच वाली पेंसिल नहीं मिल रही तो वही ढूंढ रहा हूं,पता नहीं कहा रख दी मेने "इतना कहते हुए मेरा गला साथ छोड़ रहा था और मेरी आंखे भी भारी हो रही थी "अब तू अपनी मां से भी झूठ बोलेगा" जैसे ही मां की ये बात कानो में पड़ी तो मैंने अपने बैग से नज़र हटा के उनकी तरफ देखा, तो उनके हाथ में वही पेंसिल थी। पर मेरी नज़र उस पेंसिल पे नहीं उनकी चेहरे पे गई, उनकी आँखों पे गई जिसमे मुझे दुख साफ दिखा दे रहा था....में कुछ कहता उससे पहले मां ने वो पेंसिल टेबल पे रख दी और उठ के जाने लगी..... में कुछ पल उस पेंसिल को देखता रहा लेकिन अपने आप को नहीं रोक पाया में अपनी आंखें बंद कर ली और ना में गर्दन हिलाने लगा।
"क्या अनाथ होना इतना बड़ा गुना है माँ?" श्रेयस ने काफी मुश्किल से बैठे गले से अपनी बात कही, उसकी बात सुनते ही शिल्पा के कदम वही रुक गए वो एक दम से मुड़ी और श्रेयस को देखने लगी और देखते ही देखते उसकी आंखों से आंसू ऐसे छलक आया जैसे उनके दिल को बहुत बड़ी ठेस पहुंची हो शिल्पा धीरे धीरे चलते हुए श्रेयस के पास आई और उसके सिर पर अपना हाथ रख दिया, शिल्पा के हाथ का स्पर्श होते ही श्रेयस ने अपनी आंखें खोली और उसकी तरफ देखा, तो उसकी आंखों से भी आंसु का एक कतरा निकला, जो उसके चेहरे से फिसलते हुए नीचे गिर गया।
"अगर में अनाथ हुं तो इसमे मेरा क्या कसूर है मां, मेरी क्या ग़लती है?" कहते हुए मेरी सांसें भारी हो रही थी, में मां से नजर नहीं मिला पा रहा था लेकिन इस बात का जो एक गम था वो आंखों से निकल के पलकों को भीगो रहा था......मेरी बात सुनते ही मां ने अपने दोनो हाथों से मेरे चेहरे को पकड़ा और उप्पर की तरफ उठा के मेरी आंखों में देखने लगी।
"किसने कहा तुझसे श्रेयस बता मुझे" कहते हुए मां की आंखों में दर्द और गुस्सा एक साथ दिख रहा था और वो दर्द आंसू के रूप में छलक आया। में अच्छी तरह समझ रहा था,जितनी तकलीफ मुझे हो रही है उससे कहीं ज्यादा तकलीफ इस वक्त मां को हो रही होगी, मैं उन्हें ऐसे रोते नहीं देख पाया और अपनी नजरें झूका ली।
"हर्ष ने कहा है ना?" उन्होंने थोड़ी रूखी आवाज़ में कहा तो मेंने ना में अपनी गर्दन हिलाते हुए कहा "नहीं... मां... भाई ने कुछ नहीं कहा" मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाकर मां के चेहरे पे आए आंसू हटा दिया, "आप मत रोइए प्लीज" में खड़ा हुआ और मां को कुर्सी पर बैठाकर घुटनो के बल जमीन पर बैठा और उनकी की गोद में अपना सर रख दिया।
"मेने तुझे इन्हीं हाथों से पाला है, तुम्हें मेरे प्यार में कभी कोई फर्क दिखाई दिया तो तू यह बात कैसे कह सकता है? "कहते हुए माँ मेरे बालो को सहलाने लगी, में कुछ नहीं बोला बस ऐसे ही बैठा रहा, आंखों से ना जाने क्यों खुद ब खुद आंसू निकलकर मां की गोद में गिर रहे थे।
"तू मेरा बेटा है, मेरी जिंदगी का वो हिस्सा जो मुझे अपनी जिंदगी से भी प्यारा है" शिल्पा ने रुआंसे गाले से कहा और उसके बालों को सहलाने लगी, उसकी आँखों में एक अज़ीब से दर्द की तकलीफ़ थी,जो उसकी आँखें में भरी थी पर बहार नहीं आ रही थी।
"माँ......क्या में थोड़ी देर ऐसे ही बैठा रहूँ" में हटना नहीं चाहता था। मां की गोद से क्यों की में जनता था बहुत कम होते हैं ऐसे जो मां के इस प्यारे एहसास को अपनी जिंदगी में बटोर पत्ते हैं, मां तो कुदरत का वो तोहफ़ा है जो शायद खुद कुदरत के पास नहीं है ,आज एक बार फिर मां के इस सुकुन भरे एहसास ने दिल के सभी गमो को बटोर लिया और मुझे अपनी ममता की चादर में ढक दिया पता ही नहीं चला की कब तक में ऐसे उनकी गोद में ऐसे ही सर रखके बैठा रहा।
कुछ देर तक मैं ऐसे ही बैठा रहा, उसके बाद उठकर बेड पर जाकर सो गया मां कुछ देर तक ऐसे मेरे माथे को सहलाती रही और मैं कब नींद के आगोश में को गया मुझे पता ही नही चला।
अगले दिन कॉलेज में....
"ये एक बिल्डिंग का ब्लू प्रिंट है, आज हम ये देखेंगे कि आप सब क्या किसी भी बिल्डिंग के ब्लू प्रिंट को देख के उसके बारे में बता सकते हैं कि कौन सी चीज कहां है, कहने का मतलब यह है कि खुद Design बनाना आसान होता है, लेकिन किसी दूसरे के Design को समझना मुश्किल, अगर में आप सब से कहूं की इस बिल्डिंग की एक जगह में कोई चीज रखी है और आपको पता है वो चीज़ कहां है, लेकिन अगर आपको एक ब्लू प्रिंट के जरिए पता करना पड़ा तो क्या आप कर पाएंगे, इसीलिए आप सब इस डिज़ाइन को अच्छी तरह से समझ लो फिर ये सोच के बताओं की अगर पॉइंट B2 पे मैंने कुछ रखा है तो वो इस डिजाइन में कहा है?' क्लास में मिस डायना पढ़ा रही थी लेकिन ना जाने कौन सी सोच में, कौन से वक्त में था श्रेयस जो सामने देखते हुए खोया हुआ था, उससे होश तो तब तब आया जब साइड में बैठे मिलन ने उससे अपनी कोहनी से मारा
"उन्न...उन क्या हुआ" मिलन की तरफ देखते हुए मेने उससे पूछा... लेकिन उसने आंखों से इशारा किया की सामने देख, जब मैंने सामने देखा तो मिस. मुझे ही देख रही थी।
"श्रेयस आर यू ओके?" उन्होंने मुझसे पूछा तो मेने हां में गर्दन हिला दी.... "अच्छा तो श्रेयस Answer दो मेरे Question का"मिस. के कहते ही में ब्लूप्रिंट की तरफ कुछ मिनट तक देखता रहा।
"मिस लेफ्ट कॉर्नर का जो रूम है वहां पर" मैंने अपना जवाब दिया..
"नहीं.....मिलन तुम" डायना ने सवाल को मिलने की तरफ फॉरवर्ड किया।
"मिस. उप्पर राइट कॉर्नर" मिलन के आंसर देते ही डायना के चेहरे पे स्माइल आ गई, "राइट, एब्सोल्यूटली राइट, एक्सीलेंट मिलन" डायना के कहते ही मिलन के चेहरे पे एक बड़ी सी स्माइल आ गई।मैं कभी मिलन की तरफ देखता तो कभी ब्लू प्रिंट की तरफ, ये एक ऐसी चीज जिसको में कैच अप नहीं कर पा रहा था, मैं इस पॉइंट में थोड़ा वीक था।
आख़िर एक और दिन कॉलेज का ख़तम हो गया, मैं मिलन और श्रुति के साथ मेट्रो स्टेशन तक आ गया फिर वो दोनो अपने अपने प्लेटफॉर्म की तरफ निकल गए और में अपनी मेट्रो लाइन की तरफ चल दिया, चलते हुए में सोच में डूबा हुआ था की तभी मैंने सामने देखा की भीड़ सी लगी है... में अपनी सोच से बहार आया और तेज़ से चलते हुए उस भीड़ के पास जा पहुंचा, लोगों को थोड़ा साइड करते हुए भीड के अंदर घुसने लगा ये देखने के लिए आखिर सब ऐसे क्या देख रहे हैं,आख़िर जब लोगों के बीच में से होते हुए उस में घेरे के अंदर पहुंचा तो सामने देखते ही में चौंक उठा।
एक लड़की अपनी आंखे बंध किए हुए बेहोश पड़ी थी और उसके इर्द गिर्द कुछ लोग बैठे उसे उठाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन को लड़की आंखे नही खोल रही थी, मेरी नज़र उसकी बंद आँखों पर थी, उन बंद आँखों को देख दिल घबरा रहा था और सांसे तेज चल रही थी की मन में एक ही सवाल चल रहा था कि आखिर क्या हुआ आंशिका को?,मैं तेज़ कदमों से आगे बढ़ा और उसके आसपास जितने लोग बैठे थे उन्हें हटा दिया।मेने फौरन उसके सर के नीचे हाथ लगा और उसका सर उठा के अपनी गोद में रख लिया।
मेरी सांसें ज़ोरों से चल रही थी, घबराहट के मारे हाथ कांप रहे थे,मुश्किल से मेने अपना बैग खोला और उसमें से पानी की बोतल निकली,हाथ में हल्का सा पानी लिया और उसके चेहरे पर छिड़का, जिससे उसकी हल्की सी आंखें हिली जिसको देख दिल में ऐसा लगा मानो एक नई धड़कन ने जन्म लिया हो, मैंने हल्का सा पानी ओर छिड़का जिससे उसकी पलकें हिलने लगी, जिसे देखकर मेरे चेहरे पर हल्की सी रौनक बढ़ गई।
"आंशिका.....आंशिका....... "कहते हुए मैंने अपने हाथ ले जाके उसके माथे पे रख दिए और उसे सहलाने लगा, उसका नाम पुकारने लगा,पानी की बूंदों ने अपना काम कर दिया, आंशिका की आंखें धीरे धीरे हिलती हुई खुलने लगी, जब उसकी पलकें उपर उठी तो श्रेयस के चेहरे पे वो सुकून भर्री मुस्कान छा गई।आंशिका ने आंखें खोली तो धीरे-धीरे उसे दिखती दुनिया धुंधलेपन से साफ साफ नजर आने लगी और तभी उसकी नजरों ने उससे वो चेहरा साफ - साफ दिखाया जो उसका नाम पुकार रहा था।
"आंशिका......" मेने उसका नाम पुकारा तो वो मेरी गोद से खड़ी होने लगी, मेने उससे हल्का सा सहारा दिया और उसके पीछे दीवार के सहारे बैठा दिया, "आंशिका क्या तुम ठीक हो?"मेने उसकी तरफ देखते हैं हुए कहा क्यों की वो अपनी सर को दबा रही थी, जिसे देख में समझ गया की उसके सर में अभी भी दर्द हो रहा है।
"चलो भाई चलो.. लगता है ये दोनो जानते हैं एक दूसरे को" वहां खड़े एक आदमी ने कहा और फिर धीरे धीरे भीड़ हटनी लगी।
"आंशिका , पानी......" मेने पानी की बोतल उसकी तरफ बढ़ते हुए कहा, मेरी आंखें उसके चेहरे को देखने के लिए तरस रही थी जो इस वक्त उसके हाथों के पीछे छुपा हुआ था"आंशिका" मेने जब इसबार आवाज़ लगाई तो उसके अपने हाथ अपने चेहरे से हटाएं और मेरी तरफ देखने लगी और मैं उसके चेहरे पर छाई तकलीफ को देखने लगा, उसकी आंखे हल्की सी नम थी और थोड़ा परेशान लग रही थी।
"आंशिका, पानी" मैंने पानी की बोतल को खोलते हुए कहा, तो उसकी नजर इधर उधर घूमने लगी।
"मेरी मेडिसिन.... वो पर्स" अंशिका ने बेहद धीमे आवाज़ में अपनी बात कही जिसे सुन के मेंने उसका पर्स उठाया, "किस में है मेडिसिन" मेरे पूछने पर उसे अपनी उंगली से इशारा करके बता दिया, मेने जल्दी से मेडिसिन निकली और उससे दे दी।
दवाई खाकर वो आंखें बंद कर के दीवार से टेक लगा के बैठ गई, उसके चेहरे पे हल्की सी तकलीफ थी जिसे देखकर मेरा दिल बार-बार बैचेन हो रहा था, मेरी नज़र उसी पर टिक्की हुई थी, तभी उसे अपनी आंखें खोली और मेरी तरफ देखने लगी, मैं भी उसी को देख रहा था, न जाने पर मन ही नहीं कर रहा था अपनी नज़रे हटाने का उसके ऊपर से।
"क्या तुम ठीक हो आंशिका" मेने एक बार फिर पूछा मेरी बात सुन के उसने हां में गर्दन हिलाई, जिसे देख में हल्का सा मुस्कुराया "थोड़ी देर यहीं बैठते हैं फिर घर चलेंगे "मेने बेहद प्यार से कहा और मैं वहीं बैठा गया।
"थैंक यू श्रेयस" उन कोमल होठों से उसने मेरा नाम लिया तो मेरे दिल की धड़कने इतनी तेज चलने लगी की मानो हर धड़कन रेस लगा रही हो की कौन पहले उन अल्फाजों को सुनेगा।आज ये पहला मौका था मेरे लिए जो में उस चेहरे को इतने नजदीक से देख रहा था,3 साल बीत गए थे पर आज तक आंशिका से बात करने की हिम्मत नही कर पाया था।
"श्रेयस" उसने जब दुबारा मेरा नाम लिया तो में होश में आया... "हां" में बस इतना ही कहा पाया।
"थैंक यू" आंशिका ने जब दोबारा थैंक यू कहा तो मेंने मुस्कुराते हुए कहा "जी नहीं इसमें थैंक यू कैसा वैसे क्या हुआ था तुम्हें, आज अपने सुबह ब्रेकफास्ट नहीं किया था क्या, मां कहती है सुबह ब्रेकफास्ट न करो तो अक्सर चक्कर आ जात्ते हैं " मेने एक सांस में अपनी बात कहीं तो वो मेरी तरफ देखती हुई हल्का सा मुस्करा पड़ी, उसकी मुस्कान देख में बस उसे देखता ही रह गया।
"नही...नही वो तो दरअसल मुझे माइग्रेन की problem है, तो कई बार मुझे चकर आ जाते हैं " इसके आगे हम दोनों में से कोई कुछ बोलता उसके पहले आंशिका का फोन बजने लगा, उसे पर्स से फोन निकला और जवाब दिया "हां मां... नहीं बस आ रही हूं, हां वो कार खराब हो गई थी तो मेट्रो से आ राही हूं, नहीं मॉम कुछ नहीं हुआ है... मेरी आवाज तो बिलकुल ठीक है " कुछ देर बाद आंशिका बात करते हुए खड़ी हो गई "उफ्फ ये मां भी ना..." कहते हुए हमने फोन कट किया और मेरी तरफ देखने लगी।
"Thank you एक बार फिर श्रेयस तुमने आज मेरी बहुत मदद की" इसके आगे आंशिका कुछ कहती मेने उससे बीच में रोक दिया... "थैंक यू तब कहना जब में तुम्हे तुम्हारे घर सही सलामत छोड़ दूँ" मेने बिना झिझके अपनी बात कहीं, वो तो कहने के बाद एहसास हुआ की ये बात में इतनी आसानी से कैसे कह दी।
"नहीं श्रेयस इसकी जरूरत नहीं है, मैं चली जाऊंगी"
"नहीं आंशिका, बिलकुल नहीं,तुम्हारी तबियत अभी भी पूरी तरह से ठीक नही लग रही है अगर रास्ते मैं फिर तुम्हे कुछ हुआ तो Uncle Aunty परेशान हो जायेंगे इसलिए मैं अब तुम्हे घर छोड़ के ही अपने घर जाउंगा "मैं अपनी बात पे अड़ा रहा।
"so, kind of you shreyas but now I'm obsoletly fine ,मैं चली जाऊंगी तुम प्लीज मेरे लिए परेशान मत हो " आंशिका की उस प्यारी आवाज़ को सुन के कुछ नहीं कह पाया बस उससे खड़ा देखता रहा।
"bye" इतना कहकर वो मुडके जाने लगी और में बस उससे ऐसे ही जाते हुए देख रहा था।आंशिका प्लेटफॉर्म पे खड़ी मेट्रो का इंतजार कर रही थी, तभी मेट्रो आई और वो उसमे चढ़ गई। मेट्रो में चढ़ते ही उसका दिमाग दिन भर की चीजों के बार में सोचने लगा।वो सीट पर बैठने जा रही थी की तभी फिर से उसके सिर में दर्द शुरू हो गया,धीरे धीरे करते हुए उसकी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा,उसका बैलेंस बिगड़ा और वो गिरने ही वाली थी की तभी फिर उन हाथो ने आंशिका को थाम लिया और सीट पर लाकर बिठा दिया।
कुछ देर तक श्रेयस आंशिका के सर को दबाता रहा ताकि उसका सिरदर्द कम हो जाए।आंशिका कुछ देर तक श्रेयस के कंधे पर सिर रखकर बैठी रही। थोड़ी देर बाद जब आंशिका ने श्रेयस की और देखा जो उसे serious face बनाते हुए घुर रहा था।आंशिका बात समझ गई इसलिए उसके अपने कानो को पकड़कर cute सा मुंह बनाते हुए सॉरी कहा। एक दो पल की इशारों में हुई बात पर दोनो मुस्कुराने लगे तभी फोन की रिंग सुनाई दी आंशिका ने फोन की स्क्रीन पर देखा तो अभिनव का नाम दिख रहा था। यह नाम देखकर आंशिका के चेहरे की वो मुस्कान गायब हों गई,उसने फोन कट किया और ट्रेन की खिड़की के बाहर देखने लगी।अभिनव शहर के जाने माने Builder का बेटा था इसीलिए वो कॉलेज मैं सबसे ज्यादा popular था और कॉलेज मैं कोई भी उसके खिलाफ बात करने या बोलने की हिम्मत नही करता था,जिसकी वजह से उसका ego और Attitude बहुत बढ़ गया था।
आंशिका अभिनव की गर्लफ्रेंड थी इसलिए कोई लड़का उसे बात या दोस्ती करने की हिम्मत नही करता था और शायद मुझे भी कही इसी बात का डर था,पर आंशिका को इस तरह परेशान देखकर मैं समझ गया की ज़रूर अभिनव की वजह से आंशिका परेशान है,पर इस वक्त मुझे उसके बारे मै बात करना सही नहीं लगा।
"श्रेयस" मेरे कानो में आवाज पड़ी।
"जी" मैंने अपना चश्मा ठीक करते हुए कहा।
"मेने तुमसे कभी बात नहीं की, यहां तक की मैं तुम्हारे नाम के अलावा में कुछ भी नहीं जानती फिर भी तुमने मेरी मदद की और अभी तक कर रहे हो.....क्यों?" उससे इतने प्यार से पूछा की बस मन कर रहा था की बस वो बोलती रहे और में यूं ही सुनता रहूं और उसकी आवाज को मेरे वक्त के खाली पन्ने में सज़ाता जाऊं।
"बात करने से कोई अपना नहीं होता, अपना बनाने से अपना होता है" इतना कहने के में रुक गया, क्यों की आंशिका की आँखों मेरी आँखों में झलक रही थी।
"wow...so pure" आंशिका ने अपने चेहरे को प्यार से भरते हुए कहा।"माँ कहती है" में हल्का सा मुस्कुराते हुए कहा तो वो मेरी बात सुन के मुस्करा पडी "Honest Too" उससे मुझसे कहा और अपने फोन में लग गई लेकिन मेरी नजर उसी पर से नहीं हटी।
थोड़ी देर बाद स्टेशन आ गया तो हम दोनों उतर गए, दोनो स्टेशन से बहार निकल के रास्ते पे चल रहे थे, ना तो आंशिका ने कुछ कहा और ना ही श्रेयस की हिम्मत हुई कुछ कहने की। उसे चलते हुए होश ही नहीं था कि वो कहां चल रहा है उससे बस ये एहसास हो रहा था कि आज जो भी वक्त उनसे कह रहा हो कि वो उन्हें अलग नहीं करना चाहता है।
"श्रेयस......श्रेयस" आंशिका ने आवाज़ लगाई तब जाकर मुझे होश आया, "हां.. सॉरी...वो कुछ सोचता रहा था...क्या हुआ? "मेने उसकी तरफ देखते हुए कहा
"इट्स ओके, वो मेरा घर आ गया" उसने अपनी उंगली से इशारा करते हुए कहा, "ओह... अच्छा" ना जाने क्यों इस बात को सुनते ही थोड़ा जी बैठा गया।
"आओ श्रेयस अंदर चलो मॉम को तुमसे मिल के अच्छा लगेगा" आंशिका ने गेट खोलते हुए कहा।
" नही.....नहीं आंशिका फिर कभी वो मां मेरा इंतजार कर रही होगी "
"ओह....चलते तो अच्छा लगता मुझे भी, तुम मेरे लिए इतनी दूर हो" आंशिका ने इतना ही कहा की मेने उससे रोक दिया... "इस बात को लेकर मन मैं कोई भी Guilt मत रखना,हो सकता है आज शाम का यह सफर तुम्हारे साथ लिखा हो, वैसे भी इन सब मैं फायदा तो देखो मेरा ही हुआ ना" मेरी बात सुनकर सवाल भरी नजरो से मुझे देखने लगी मैंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा "मुझे तुम्हारे जैसी एक दोस्त मिल गई।"मेरी बात सुन के उसका चेहरा एक नए फुल की तरह खिल उठा, "बाय श्रेयस" कहते हुए वो मुडकर जाने लगी, मैं उससे जाता हुआ देख रहा था।
"आंशिका" मेरी आवाज़ सुनते ही वो रुक गई और मेरी तरफ देख के मुस्कराती हुई बोली "हां" लेकिन में कुछ नहीं कहा पाया और अपनी गर्दन ना में हिलाने लगा, जिसे देखते ही उसे अपनी आइब्रो छोटी कर ली और मुस्कुराए हुए मुझे हाथ से इशारा करते हुए बाय किया और मुडकर घर के अंदर जाने लगी। मैने कदम पीछे लिए और मुडकर अपने घर की और बढ़ने लगा।
"नही यह रास्ता मेरा नही है और ना ही वो मंजिल है जो मुझे मिलेगी, अपने प्यार को दिल मै दबाए एक जूठी मुस्कान लिए वो आगे बढ़ रहा था।आंशिका ने पीछे मुड़कर देखा तो श्रेयस धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था,उसे वो सारी बाते याद आने लगी जो हर्ष ने श्रेयस को क्लास के सामने कही थी "कोई भला कैसे इतने अच्छे और सच्चे दिल वाले इंसान से इतनी बेरुखी से कैसे बात सकता है?" यह सब सोचते हुए आंशिका अपने घर के अंदर चली गई।
To be Continued.......