युगांतर - भाग 7 Dr. Dilbag Singh Virk द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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युगांतर - भाग 7

रास्ते भर विचारों का ज्वार-भाटा उसके मस्तिष्क में उठता रहा। उसने पिताजी से पूछने की बात कही थी, लेकिन पूछने से पहले वह खुद भी इस निर्णय से सहमत होना चाहिए था। वह खुद से पूछ रहा था कि क्या यह उचित है ? एक पल वह सोचता कि इसमें खतरा है, लेकिन अगले ही पल वह खुद को समझाता कि सरकार अपनी है। कभी वह सोचता कि यह अनैतिक है और कभी उसे लगता कि इसमें पैसा है। यादवेन्द्र जो अपनी आर्थिक हालत से इस वक्त बौखलाया हुआ है, वह जानता है कि 'गरीबी तेरे तीन नाम, झूठा, पाजी, बेईमान'। वह इन तीनों नामों में किसी को अपना उपनाम नहीं बनाना चाहता, इसलिए उसको बार-बार मंत्री जी का सुझाव उचित लगने लगता है। यादवेन्द्र दौलत के महत्त्व को भली-भाँति जानता था। उसे पता था कि आज के दौर में पैसा ही सब कुछ है, क्योंकि पैसे के बिना कोई किसी को नहीं पूछता। पैसे के कारण ही पहले वह कॉलेज का प्रेजिडेंट बना और अब भी वह पैसा खर्च करने के कारण ही पार्टी में विशेष बना हुआ है, वरना इतनी जल्दी किसे इतना महत्त्व मिलता है। वह सोच रहा था कि अगर पैसा न होता तो उसकी मंत्री तक पहुँच कैसे होती और अगर पैसा न हुआ तो वह आगामी चुनावों में चंदा कैसे देगा और अगर चंदा न दिया तो पार्टी में उसे पूछेगा कौन? वह इसी उधड़ेबुन में घर आ पहुँचा | प्रतापसिंह बड़ी बेचैनी से उसका इंतजार कर रहे थे, बोले - "बिना बताए कहाँ चले गए थे बेटा।"
"बस मंत्री जी आए हुए हैं, उनसे मिलने चला गया था।"
"सिर्फ मिलने ही जाया कर, उनसे पैसा कमाने का जरिया न माँगना कभी।" - पिता ने व्यंग्य किया।
"पैसा कमाने का जरिया ही माँगने गया था आज।" - यादवेंद्र ने अपनी बेचैनी को छुपाते हुए कहा।
"कुछ उपाय किया?"- प्रताप सिंह ने उतावलापन दिखाते हुए पूछा।
"हाँ, मगर…"
"हाँ है तो ये मगर कैसा?" - प्रताप सिंह थोड़ा उदास होते हुए बोले।
"मगर तो मैंने इसलिए लगाया है कि काम थोड़ा मुश्किल है।"
"ऐसा क्या काम बताया है?" - प्रताप सिंह की अधीरता बढ़ रही थी।
यादवेन्द्र चुप रहा। वह खुद को अजीब सी उलझन में फँसा हुआ पा रहा था। क्या बताए और कैसे बताए? अगर न बताए तो कब तक वह इसे छुपा पाएगा। सच तो आखिर सामने आ ही जाता है।
"कुछ बोलेगा भी?" - प्रताप सिंह की अधीरता अब चरम पर थी।
"मंत्री जी हमें अपना सहयोगी बनाएँगे और इसके बदले कमीशन देंगे।" - उसने अधूरा सच बोला।
"कैसा कमीशन?"
"उनका पोस्त-अफीम का काम है। वे हमें भी अपना हिस्सेदार बनने को कह रहे हैं। हमें बस बड़ा हॉल बनवाकर देना है। अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।"
यह बात सुनकर प्रतापसिंह थोड़ा परेशान सा हो गए और बोले, "बेटा ऐसे काम क्यों करते हो जिसमें खतरा भी है और बदनामी भी।"
"पिता जी आप भी कैसी बातें करते हैं। मंत्री जी खुद हमारे साथ हैं। उनके आदमी ही काम संभालेंगे, ऐसे में हमें क्या खतरा और रही बदनामी की बात तो हमने कौन सा इसे गाँव वालों को बेचना है। गाँव वालों को तो कानो-कान खबर न होगी।"
प्रतापसिंह मेहनती किसान था। अच्छी जमीन थी इसलिए मेहनत भी रंग लाती थी। लक्ष्मी की उनके घर पर विशेष कृपा थी मगर पिछले दो वर्षों से उसने खेती बाड़ी का काम छोड़ दिया था और खर्च बढ़ गया था। खेतीबाड़ी छोड़ने का कारण, कुछ तो वह स्वयं कमजोर हो गया था, उसके घुटनों में दर्द रहता था और कुछ रजवंत की बीमारी। तीन साल पहले रजवंत कौर को अधरंग हो गई थी, इसके बाद उसके शरीर का दाहिना हिस्सा अब कम काम करता था। प्रताप सिंह उसकी सेवा सुश्रूषा में लगा रहता था। बीमारी के कारण दवाइयाँ आदि खरीदने पड़ती थी, जिस कारण खर्च बढ़ा। इससे बढ़े खर्च को तो सहा जा सकता था, लेकिन यादवेन्द्र की राजनीति कोढ़ में खाज साबित हो रही थी। प्रताप सिंह बेटे को बार-बार कमाई का जरिया ढूँढने को इसीलिए कहता था क्योंकि उसको पता था कि राजनीति में सिर्फ खर्च नहीं किया जाता, अपितु कमाई भी की जाती है या कहें कि कई गुणा कमाई करने के लिए ही राजनीति में खर्च किया जाता है। कमाई के लिए जायज-नाजायज सब हथकंडे अपनाए जाते हैं, यह भी वह जानता था।
पत्नी को अधरंग होने पर वैद्य जी ने उसे अफीम ही खिलाई थी। घुटनों में दर्द के कारण उसने भी दवा के रूप में अफीम खानी शुरू कर दी थी। अफीम खरीदना जोखिम भरा काम है, यह वह जानता था और इसी से उसको इस व्यवसाय के खतरों का पता था, लेकिन इसके साथ वह यह भी जानता था कि इस धंधे में मोटी कमाई है। मंत्री जी का सिर पर हाथ हो तो कोई खतरा नहीं, यह बात भी प्रताप सिंह को सही लग रही थी, लेकिन खानदानी लोग ऐसे धंधे नहीं करते, यह सोच उसे कह रही थी कि बेटे को वह इस काम से रोके। धन का उससे पुराना नाता था। धन के लिए अंधा हो जाने वालों में वह न था। वह सही-गलत, नैतिकता-अनैतिकता को समझता था। इसी कारण उसे यादवेंद्र को कहा, "बेटा, मंत्री जी से कहो कोई ईज्जत का काम दें।"
"ईज्जत तो धन से बनती है। आप व्यर्थ में चिंता कर रहे हैं। बड़ी मुश्किल से धन कमाने का अवसर मिला है, इसे जाने नहीं दिया जा सकता।"
ईज्जत के लिए धन कितना जरूरी है, यह प्रताप सिंह भली-भाँति जानता था। 'धन जाते ही ईज्जत भी चली जाएगी' के डर ने प्रताप सिंह को यह कहने पर मजबूर कर दिया - "चलो जो तुम्हारी मर्जी मगर संभलकर रहना।"
यादवेन्द्र ने इसके बाद जोर-शोर से काम शुरु करवा दिया। कुछ ही दिनों में हाल बनकर तैयार हो गया। हॉल का क्षेत्रफल गरीब लोगों के घर के क्षेत्रफल से बड़ा होगा। ट्रक से माल सीधा हॉल में उतरे, ऐसी व्यवस्था थी। काम शुरू होते ही यादवेन्द्र समझ गया कि कितना सच कह रहे थे मंत्री जी। कई बार तो माल उतारने से पहले ही आगे भेजने का आर्डर रहता था और इतने भर से नोटों का थैला उसका भर जाता था। अब विपन्नता के दूर भागने और सम्पन्नता के गले मिलने के दिन थे। यादवेन्द्र तो कब का बाहें फैलाए खडे था।
आमदन अकेली नहीं बढ़ती, आमदम के साथ खर्च भी बढ़ता है। यादवेंद्र को रोज देर-अबेर खेत आना अब काफी कठिन लगने लगा था। यदि आमदन न बढ़ी होती, तो शायद यह कठिन न होता, मगर अब कठिन था। इस कठिनाई का समाधान करने के लिए हाल के साथ मकान बनाने का निर्णय किया गया, वैसे एक कमरा और रसोईघर पहले ही था, बस उसमें थोड़ा परिवर्तन करने से वह घर लगने लग जाएगा, यही सोचा गया था, लेकिन साल बीतते-बीतते उस छोटे से घर के साथ ही हवेली का निर्माण कार्य शुरु हो गया। दो सालों में भव्य हवेली बनकर तैयार हो गई। प्रतापसिंह इसे व्यर्थ का खर्च मानता था। उसने बेटे को समझाया भी कि अच्छा घर होना चाहिए, लेकिन हम सिर्फ तीन आदमी हैं। तुम्हारी शादी हो जाएगी, तब भी परिवार बड़ा नहीं होगा क्योंकि हमारा क्या भरोसा, ऐसे में इतनी बड़ी हवेली किस लिए।
"इसी से तो रौब जमेगा पिता जी। अब बड़े-बड़े लोग मुझसे मिलने आते हैं, इसलिए ये सब ज़रूरी है। फिर हमने कौन सा हल जोतकर कमाई की है।"
प्रतापसिंह इस तर्क से सहमत न था क्योंकि कमाई भले कैसे भी की गई हो, कमाकर फिजूलखर्ची उचित नहीं, मगर वह बोला कुछ नहीं। पहले बना घर पशुओं और नौकरों के लिए छोड़ दिया गया और वे तीनो नई हवेली में आ गए। उस भव्य हवेली में, जिसका निर्माण उस राजनीति की बदौलत हुआ था, जिसका उद्देश्य ऐसे ही भव्य देश का निर्माण करना है। यह निर्माण कब होगा, पता नहीं, मगर इसका एक मॉडल बनकर तैयार हो गया था।

क्रमशः