स्कूल के अध्यापक को फटकारने के उद्देश्य से वह अगली सुबह स्कूल जा धमका। शिष्टाचार की रस्म को निभाना न तो बेटे ने उचित समझा और न ही बाप ने। मास्टर जी तब बैठे काम कर रहे थे। प्रतापसिंह उनके पास जाकर गरजे, "आपने मेरे बेटे को क्यों मारा?"
मास्टर जी ने यादवेन्द्र की तरफ देखा, जो अपने पिता की ऊँगली पकड़े मुस्करा रहा था और फिर प्रतापसिंह को ओर देखते हुए बोले, "एक तो यह कभी भी घर से स्कूल का काम करके नहीं लाता, दूसरा इसने कल एक लड़के को मारा।"
"तो बच्चों की लड़ाई में आपको दखल देने की क्या जरूरत थी? यदि इसने उसको मारा था तो वह भी इसे मार लेता।"
"सरकार मुझे तमाशबीन बनने की तनख्वाह नहीं देती, इन्हें संभालने की तनख़्वाह देती है।" - अध्यापक ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा।
"तनखाह तो आपको पढ़ाने की मिलती है, मारने-पीटने की नहीं।"
"जब कोई बच्चा अनुशासन में न रहे, तो उसे मारना हमारा अधिकार है।"
"आप यदि अपने अधिकार और अपने अनुशासन को अपने पास ही रखें तो बेहतर होगा।"
"हमारा काम अनुशासन को अपने पास रखना नहीं, बल्कि बच्चों को सिखाना है।"
"तो सिखाएँ, मगर मेरे बेटे पर दोबारा हाथ उठाने की कोशिश न करना।"
"यदि यह ऐसे ही शरारतें करेगा और स्कूल का काम करके नहीं लाएगा तो मार तो पड़ेगी ही।"
"यह काम करता है या नहीं, यह हमारी सिरदर्दी नहीं, मैं तो बस इतना जानता हूँ कि मैं आपको अपने बच्चे पर हाथ उठाने नहीं दूँगा।"
"और बच्चों पर भी तो मार पड़ती है।"
"मुझे क्या लेना है किसी से, मैं सिर्फ अपने बेटे की बात कर रहा हूँ।"
"पढ़ाई की परवाह आपको है नहीं, इसे सुधारना आप चाहते नहीं, फिर इसे स्कूल से हटा क्यों नहीं लेते।"
"क्यों हटाएँ स्कूल से, क्या स्कूल तुम्हारे बाप का है?"
"बाप का तो भले नहीं है, मगर स्कूल में अनुशासन रखना मेरा कर्त्तव्य है और मैं इसे छूट देकर सारे स्कूल का अनुशासन बिगाड़ना नहीं चाहता।"
"आपका कर्तव्य भले कुछ भी हो, मगर मैं आपको इतना बताए देता हूँ कि अगर आपने मेरे बेटे पर फिर कभी हाथ उठाया तो नतीजा अच्छा न होगा।"
इस चेतावनी के साथ प्रतापसिंह यादवेन्द्र को उसकी कक्षा में छोड़कर अपनी विजय पर झूमता हुआ घर चला गया, लेकिन मास्टर जी क्या करें? प्रताप सिंह की धमकी को साधारण धमकी समझने की भूल वे नहीं कर सकते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि समाज में अध्यापक सबसे नर्म चारा है। पत्रकार महोदय भी ऐसे समाचार ढूँढते रहते हैं, जिनमें अध्यापकों के ख़िलाफ़ ज़हर उगला जा सके। अधिकारी भी उनकी नहीं सुनते। दरअसल अधिकारी भी नेताओं की कठपुतली हैं और नेताओं को जनता से वोट लेने होते हैं और एक कर्मचारी के ख़िलाफ़ कार्यवाही करके वे सैंकड़ों वोट पक्के कर सकते हैं, ऐसे में उनके पक्ष को सुने बिना फ़रमान जारी होना आम बात है। अध्यापक महोदय को लगता है कि चुप रहकर वक़्त गुज़ार लेना ही ठीक है, लेकिन उसका ज़मीर इसकी इजाज़त नहीं देता। उसके भीतर द्वंद्व चल रहा है। उसे लगता है कि बच्चों को अच्छी शिक्षा देना, अच्छे संस्कार देना उसका कर्त्तव्य है, लेकिन समस्या है कि कैसे करे वह अपने कर्त्तव्य का पालन? कैसे बिना भेदभाव के सभी बच्चों से एक-सा व्यवहार करे क्योंकि यह तो तभी संभव है जब कोई टाँग अड़ाने वाला न हो। आखिर वह भी तो एक इंसान है। अपमानित होकर, उस अपमान को भुला पाना कैसे संभव है? सम्मान को खोकर कर्त्तव्य पालन करे तो करे कैसे? दुविधा में फँसे मास्टर जी ने आखिर में अपनी ज़मीर को दरकिनार कर यह फैसला लिया कि अपनी सुरक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह सोचता है कि उसे कौन सी आफत आन पड़ी है मधुमक्खियों के छत्ते में हाथ डालने की।
इस दिन के बाद मास्टर जी ने यादवेन्द्र को मारना भी छोड़ दिया और पढ़ाना भी। वह स्कूल में भी सबसे अलग खेलता रहता था। कभी देर से पहुँचता और कभी पहले ही भाग आता, लेकिन मास्टर जी ने उसे कभी कुछ नहीं कहा। यादवेन्द्र को फेल करना भी मास्टर जी ने उचित न समझा क्योंकि वे जल्दी-से-जल्दी इस आफत से पिंड़ छुड़ा लेना चाहते थे। यादवेन्द्र के लिए तो अब मौज ही मौज थी। बिना पढ़े उसने पाँचवी तक की पढ़ाई पूरी कर ली। गाँव में प्राथमिक स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रताप सिंह ने उसे गाँव में पढ़ाना उचित न समझा। अब तक यादवेंद्र भी संभल चुका था इसीलिए उसे शहर के महँगे स्कूल में दाखिला दिलवा दिया गया, वह वहीं होस्टल में रहता था। प्राइवेट स्कूल में अलग प्रकार का माहौल था। यहाँ ज्यादातर अध्यापिकाएँ बड़ी कम उम्र की थी और उनकी मार यादवेंद्र को मार नहीं लगती थी। यादवेंद्र थोड़ा बड़ा होने के कारण हर बात की शिकायत भी नहीं करता था, इसलिए यहाँ की डाँट बड़ा मुद्दा नहीं बनी। इसके अतिरिक्त पढ़ाई का मापदण्ड पैसा है। सामान्यतः यह माना जाता है कि जिस स्कूल में खर्चा अधिक होगा, वह स्कूल अच्छा है और यहाँ खर्चा कम होगा वह घटिया है। गाँव के सरकारी स्कूल में यहाँ खर्च बहुत कम था, वहीं यहाँ हज़ारों खर्च करने पड़ते थे और होस्टल का खर्च अलग। अधिक खर्च करने के कारण यहाँ की मार माँ-बाप को भी नहीं अखर रही थी। खर्च और मार दोनों को सहकर यादवेन्द्र पढ़ाई के साथ संघर्ष कर रहा था। पढ़ाई और अनुशासन दोनों चीजें यादवेन्द्र के लिए अजनबी थी और इन्हीं दोनों से वह जूझ रहा था।
प्राथमिक शिक्षा का जीवन में वही स्थान है, जो मकान की नींव का होता है। मकान की नींव कभी दिखाई नहीं देती, मगर सुन्दर से सुन्दर इमारतों की मजबूती और सुन्दरता का आधार नींव ही होती है। यादवेन्द्र की नींव बहुत कमजोर थी और इसीलिए उस पर बनने वाला शिक्षा का महल लगभग आधारहीन-सा था। यादवेन्द्र तो यहाँ आकर मुश्किल में आन पड़ा था। न कुछ किए बनता था और न ही गला छूटता था। छठी से दसवीं तक के पाँच सालों की पढ़ाई पूरी करने में उसने सात वर्ष लगा दिए और दसवी पास की सिर्फ 41% नम्बरों के साथ। लेकिन अंकों को कौन पूछता है, उसके लिए तो यही काफी था कि वह दसवीं पास कर गया और उसकी स्थिति तो ठीक वैसी थी जैसे युद्ध में हजारों योद्धाओं से हाथ धोकर जीत का जश्न मनाया जाता है।