पोथी पढ़-पढ़ जग मुवा,
पंडित हुआ न कोय।
ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े सो पंडित होय।
हिंदी में जो शब्द है-प्रेम, उसमें ढाई अक्षर हैं; लेकिन कबीर का मतलब गहरा है,जब भी कोई व्यक्ति किसी से प्रेम करता है, तो वहांँ ढाई अक्षर प्रेम के पूरे होते हैं, प्रेम करने वाला-एक; जिसको वो प्रेम करता है वह-दो; और दोनों के बीच में जो कुछ अज्ञात है-वह ढाई,उसे कबीर आधा कहते हैं? ढाई क्यों? तीन भी तो कह सकते हैं ना,लेकिन ऐसा इसलिए है कि आधा कहने का बड़ा मधुर कारण है, कबीर कहते हैं कि प्रेम कभी पूरा नहीं होता, प्रेम कितना भी विकसित होता जाए, फिर भी उसका विकास निरन्तर जारी रहता है,जैसे प्रेम का जो अधूरापन है, वही उसकी शाश्वतता है,क्योंकि जब कोई चीज पूरी हो जाती है या वृद्ध हो जाती है तो वह मर जाती है,क्योंकि पूर्णता ही मृत्यु है,जो शाश्वत रूप से अपूर्ण है वही जीवित है,
प्रेम कोई ऐसा जल नहीं है कि तुम पी लो और तृप्त हो जाओ,प्रेम तो तुम्हारी प्यास को और बढ़ाएगा, इसलिए प्रेमी कभी तृप्त नहीं होता,इसलिए उसके आनंद का कोई अंत नहीं है, क्योंकि आनन्द का अन्त वहीं हो जाता है ,जब चीजें पूर्ण हो जाती हैं,कामी तृप्त हो सकता है,लेकिन प्रेमी नहीं, प्रेम आदि-अनादि है, इस जगत में प्रेम परमात्मा का प्रतिनिधि है, परमात्मा कभी पूरा नहीं हुआ और ना कभी पूरा होगा, यदि वो पूरा हो गया तो समाप्त हो जाएगा, उसकी पूर्णता बड़ी गहन अपूर्णता जैसी है,उस पूर्ण में और पूर्ण को डाल दो, तो भी वह उतना ही रहता है, जितना था, प्रेम से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है और जिनके पास प्रेम ना हो, वे अभागे ही केवल अनपढ़ हो सकते हैं, जीवन में मस्तिष्क की नहीं, हृदय की महत्वता अधिक है,क्योंकि आनन्द और आलोक के फूल मस्तिष्क से नहीं, हृदय से ही उत्पन्न होते हैं....
इस दोहे की पहली पंक्ति में कबीर दास जी स्पष्ट रूप से संकेत करते हैं कि प्रेम विद्वानों के लिए नहीं है, जो बहस में लगे रहते हैं,लेकिन दुख इस बात का है कि सदियों से विद्वान इस दोहे की व्याख्या को लेकर, इस आधे अक्षर के अर्थ को लेकर, जिसका कबीर ने उल्लेख किया है, आपस में झगड़ रहे हैं,जैसा कि ज्ञानी साधक समझ सकते हैं, इन विद्वानों को अभी भी वह बात समझ में नहीं आई है जो कबीर हमें समझाना चाहते हैं,कि शाब्दिक शब्द प्रेम में दो अक्षर होते हैं; लेकिन वास्तविक प्रेम कुछ परे है, वह आधा अक्षर क्या है जो अदृश्य है? वह आधा अक्षर सिर्फ एक संकेतक है, एक संकेतक जो हमें केवल शब्दों से न चिपके रहने के लिए कहता है, वह आधा अक्षर कुछ ऐसा है जिसे जीवन जीकर खोजना है न कि शास्त्र पढ़कर, शास्त्र आपको केवल प्रेम के दो अक्षर ही सिखा सकते हैं, यदि आप शास्त्रों से चिपके रहते हैं तो आप कभी भी शेष आधे अक्षर की खोज नहीं कर पाएंगे, जिसमें प्रेम का वास्तविक सार है,
प्रेम वह है जो इन्सान को अंधा कर देता है प्रेम पागल बना देता है, प्रेम सुधबुध भुला देता हेै, प्रेम समर्पण का प्रतीक बन जाता है, प्रेम अवलंबन का प्रतीक बन जाता है, प्रेम धर्म का प्रतीक बन जाता है, प्रेम पवित्रता का प्रतीक बन जाता है, प्रेम अपने को समाहित कर देने की भावना का प्रतीक बन जाता है, मीरा का प्रेम समर्पण का प्रेम है, मीरा का प्रेम विश्वास का दर्पण है, मीरा का प्रेम तप का प्रतिफल है, मीरा का प्रेम संगीत का स्वर है, मीरा जहर का प्याला उठा लेती है हाथों में और एक ही सांस में पी जाती है, मीरा नाचती है मीरा गाती है ‘‘मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई ’’ और एक दिन वह कृष्ण की मूर्ति में ही सशरीर समा जाती है ,सारा जग देखता है प्रेम के इस अनूठे बंधन को,इसे प्रेम कहते हैं,पूर्ण समर्पण ही प्रेम कहलाता है,राधा का प्रेम सच्चा प्रेम था,उसने कृष्ण का त्याग किया तभी तो उसकी संगिनी ना होकर भी सारा जग "राधे कृष्ण"...."राधे कृष्ण" गाता है,इसे कहते हैं प्रेम....
संसार में प्रेम अब बचा ही कहांँ है ? प्रेम तो खत्म हो चुका है मीरा के साथ, राधा के साथ गोपियों के साथ और सूरदास जी के साथ अब तो केवल दैहिक आकर्षण है उसी की कहानियांँ लिखी जाती हैं, उसी को परिभाषित किया जा रहा है , ‘‘ढाई अक्षर प्रेम का’’ उसका तो अन्त हो चकुा है, ना मानव को प्रकृति से प्रेम रहा और ना धरती से ,फिर किसी और प्रेम की कल्पना ही निराधार है, अब आँखों के अश्रु, प्रेम में मीरा की तरह बहने को आतुर नहीं हैं, राधा की तरह मुरली की धुन पर नृत्य करने को आतुर नहीं हैं, गोपियों की तरह प्रतीक्षा करने को आतुर नहीं हैं, सूरदास की तरह तरंगित होने को आतुर नहीं हैं,प्रेम म़ें आजकल आँसू बह ही नहीं रहें ,आँखों की पलकें नम नहीं हो रहीं हैं,अश्रु का रूप परिवर्तित हो चुका है अश्रु तो बहते हैं पर वें ना तो मीरा की तरह होते हैं और ना ही राधा की तरह,
ढाई अक्षर का प्रेम अब रहा कहां ?प्रेम अब आत्मसात करने का नहीं प्रदर्शन करने का साधन बन चुका है, लुप्त हो गया है वह प्रेम , जिसकी परिभाषाएँ मीरा और राधा थीं, एक दूसरे के प्रति भी तो प्रेम नहीं रहा है हम इन्सानों में,‘‘इंसान से इंसान का हो भाईचारा’’ की पंक्ति विलाप करती नजर आ रही है, अब तो कल्पना करना भी व्यथित कर देता है कि कभी इसी धरा पर निश्चल प्रेम की दीवानी मीरा का जन्म हुआ था, क्या सच में कभी इसी धरा के बरसाने में राधा का प्रभाव था, क्या सूरदास जी के नयन कृष्ण के प्रेम में भींगे थे,क्या यही युग परिवर्तन है जहांँ किस्सा कहानी तो हें पर उनमें जीवंतता डालने का उपक्रम नहीं हेै,मानव क्या से क्या हो गया है,उसके लिए अब ढ़ाई अक्षर प्रेम का अस्तित्व ही नहीं बचा है......
समाप्त.....
सरोज वर्मा....