सही गलत दों हैं और वास्तविकता एक मात्रता का नाम, इसका मतलब हैं जहाँ सही और गलत हों सकता हैं वहाँ भृम या सत्य की ओर इशारे हों सकतें हैं.. सत्य नहीं! और जहाँ न सही हैं और न ही गलत वहीं का यानी वही हैं सत्य..!
सही अर्थों के अभिव्यक्ति कर्ता की सबसें बड़ी प्राथमिकता/धर्म होता हैं ईमानदारी या सत्यनिष्ठा यानी कि जिसें वह व्यक्त कर रहा हैं उसमें यथावत्ता अर्थात् उसकी वास्तविकता की प्रगटता अतः अभिव्यक्ति में यथावत्ता की समाविष्टि हैं कि नहीं इससें या इस कसौटी से किसी भी पाठक को अभिव्यक्ति की यथा योग्यता की जाँच करना यथा योग्य मुझें समझ आती हैं; अभिव्यक्ति सही हैं या गलत इस आधार पर किसी भी अभिव्यक्ति को जाँचना अज्ञानता मात्र हैं क्योंकि जिसें जिस योग्यता से सही सिद्ध किया जा सकता हैं; उतनी ही योग्यता से वह गलत भी सिद्ध हो सकता हैं क्योंकि जो जितना या जितनें यथा अर्थों में सही हैं उसका उतना ही या उतनें ही यथा अर्थों में गलत भी सिद्ध होना यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर देखें तो वास्तविकता हैं अतः मेरी अभिव्यक्ति में भी क्या सही और क्या गलत देखना हैं तो मेरी अभिव्यक्ति आपके लियें नहीं हैं अखंड मौन भी जो सर्वाधिक अनुकूल अभिव्यक्ति हैं वह भी नहीं क्योंकि यदि आप ऐसा पूर्ण गहरायी से करेंगें तो जानेंगे कि सभी की तरह मैं आपके लियें जितना अनुकूल हूँ उतना ही अनुचित भी और वैज्ञानिक, यथार्थ या जैसा होना ही चाहियें वैसा दृष्टिकोण यदि नहीं भी रहा तो, केवल सकारात्मक दृष्टिकोण रहा तब भी ठीक; आप नकारात्मकता पर ध्यान नहीं देंगे पर यदि नकारात्मक दृष्टिकोण रहा तो आप केवल बुराई देख अपनें अहित का कारण खुद होंगें। अभिव्यक्ति करना आकारिता के आयाम में आता हैं जो कि द्वैत होनें सें दोगलयी तो होंगी हीं अतः होती भी हैं अंततः यदि द्वैत नहीं चाहियें तो अखंड मौन ही समाधान हों सकता हैं क्योंकि वास्तविक आकार रिक्तता यानी परम् या एकमात्र सत्य की अभिव्यक्ति संभव नहीं क्योंकि अभिव्यक्ति के माध्यम् से उसके इशारे मात्र ही संभव हों सकतें हैं।
किसी के भी संबंध में पूरी जानकारी का आभाव; इस बेचारगी की हमारें साथ उपस्थिति होने पर भी.. यदि हम कहनें वालें अर्थात् अभिव्यक्ति देने वालें के संबंध में या वह जो कह रहा है उसकें संबंध में अपनी निर्णायक धारणा बना लेना बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण हैं जो कि; जो कह रहा हैं उसकी पूरी बात पर किसी भी अनावश्यक या आवश्यक कारणों वश पर्याप्त ध्यान नहीं दें पाने से स्वाभाविक हैं अतः ऐसा ना हों इसका ध्यान रख लेना जरूरी हैं।
तुम प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष या दूर - पास हुआ तों क्या.. हों तों मुझसें संबंधित हीं; हों तों मेरी संबंधी हीं.. और संबंधी या संबंध बड़ा हों या छोटा, मेरे लियें तों सब समान ही हैं; मेरे लियें तों हर संबंध; हर संबंधी समान हैं जिससें में सभी से एक सा यानी अनंत अर्थात् असीम प्रेम करता यानी रखता हूँ; अंततः संसार हैं तो मोक्ष का द्वार ही अन्यथा दूसरों की परम् या सर्वश्रेष्ठ अर्थ सिद्धि के लियें दिखानें मात्र के लियें ही सही और नहीं भी.. पर परमात्म स्वयं माया या भृम अर्थात् संसार को उसका निर्माण कर उसकी स्वीकृति, संचालन कर उस पर नियंत्रण और उसकी पुनः निर्मितता हेतु विनाश कर उससें मुक्ति के लियें महत्व नहीं देतें; उसे महत्व देकर महत्वपूर्ण नहीं कहतें..? वह संसार कों जड़ हों या चैतन्यता सभी के लियें महत्वपूर्ण होनें से महत्व देते हैं..! मैं चाहूँ तों अभी मुक्ति या मोक्ष को उपलब्ध हों जाऊँ क्योंकि मेरा मुझ पर पूर्ण नियंत्रण हैं जिससें मैं जब चाहें इस भृम या संसार को स्वीकृति को तों जब चाहें तब संसार से मुक्ति को उपलब्ध हों जाऊँ पर मुक्ति अर्थात् कुछ एकमात्र सर्वश्रेष्ठ उद्देश्यों में से एक सें अभी इस समय इस लियें वंचित रह रहा हूँ कि सभी मुझसें संबंधित का सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य पूर्ति अर्थात् आत्म नियंत्रण में जरूरी होनें से सहयोग कर सकूँ। मैं प्रेम वश उनकी सहूलियत के लियें हर सम्भव प्रयास करूँ क्योंकि यदि किसी भी कारण वश वह थोड़ी सी भी परेशानी में हैं तो वह मेरी सबसें बड़ी परेशानी हैं; वह यानी उनकी और मेरी परेशानी मुझें चैन से नहीं रहनें देती और मेरी सहूलियत मेरे लियें सबसें अधिक महत्वपूर्ण हैं; मैं बेचैनी में नहीं रह सकता।
मेरी हर अभिव्यक्ति पूर्णतः जितना मुझें जाननें का मार्ग हैं उतना ही तुम्हें खुदकों भी जाननें के लियें किया गया इंतज़ाम हैं इसलियें इस पर पर्याप्त ध्यान दें देना ज़रूरी हैं।
जाननें से हर चीज़ का समाधान हैं अर्थात् तुम्हारी या मेरी हर समस्या का; यह कहना गलत नहीं कि जानना ही समाधान हैं क्योंकि अज्ञानता सभी समस्याओं की जननी हैं; इससें ही हर समस्याओं का आकार हैं; यह सभी आकारों की जननी हैं और समाधान अजन्मा निराकार हैं; वह निराकार जों मेरी हर आकार की निर्मितता अर्थात् अभिव्यक्ति का उद्देश्य हैं। वह निराकार जो मेरी सबसें बड़ी जरूरत या प्राथमिकता की पूर्ति हैं; वह निराकारता जिसमें सभी की और मेरी उद्देश्य पूर्ति हैं; वही निराकार जिसमें सभी की सुकून या सहूलियत अर्थात् मेरे लियें मेरी सभी परेशानियों से मुक्ति हैं।