सोई तकदीर की मलिकाएँ - 31 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 31

सोई तकदीर की मलिकाएँ 

 

31

 

बसंत कौर के जवाब न देने से रख्खी का हौंसला पस्त नहीं हुआ । उसने हाथ नचाते हुए कहा – बाहर निकल कर देखो , सारा गाँव मुंह जोङ जोङ कर बातें कर रहा है । इस उम्र में शादी की बात किसी को हजम नहीं हो रही । ऐसे कैसे माँ बाप हैं जिन्होंने यह मेल मिला दिया ।
माँ बाप नहीं हैं बहन । उन्हें मरे तो दस बारह साल हो गये । दो भाई है । दोनों ब्याहे हुए । बाल बच्चेदार ।
तभी मैं कहूँ । बेगानी बेटियों को घर की बेटी का दर्द कहाँ महसूस होता होगा । पीछा छुङाया इस तरह ।
तब तक कढी बन गई थी । बसंत कौर ने रोटी थाल में रख कर कटोरा कढी से भर दिया – ले बहन खा ले । भाई के लिए लेती जाना ।
रख्खी ने आशीषों की झङी लगा दी - तेरा भाई जिए । भतीजे बने रहें । सुहाग बना रहे । घर में बरकत हो । सब सुख भोगे ।
बसंत कौर हँस पङी – तेरा देवर सुख भोगवा तो रहा है और कितना सुख बख्शेगी । कहते कहते उसकी आँखें नम हो गयी पर उसने अपने आप को संभाल लिया । नहीं वह शरीकनी के सामने हल्की नहीं पङेगी । अपने स्वाभिमान को बुलंद रखते हुए सामने आई मुसीबत का सामना करेगी ।
रख्खी रोटी खाने लगी । उसने एक निगाह इघर उघर मारी – वो है कहाँ ? कहीं दिखाई नहीं दे रही ।
यहीं होगी और कहाँ जाएगी अब । सुबह इसका भाई आया था पगफेरे के लिए । दोनों बहन भाइयों में न जाने क्या बात हुई कि इसे बिना लिए , बिना किसी से मिले चला गया ।
अच्छा ! तूने उसे रोका नहीं । कम से कम इस सौत को तो उसके साथ चपेङ देती । यहाँ तेरे सिर पर बैठ कर मूंग तो न दलती ।
कुछ देर दोनों में चुप्पी छाई रही । फिर रख्खी ने ही बात छेङी – सुन बेबे जिंदा होती तो और बात थी । वह या तो इसे वापिस फेर देती या अपने हिसाब से सारे रीति रिवाज निभा लेती पर अब वह तो रही नहीं । घर में हम दो ही औरतें हैं । बङे बडेरो को माथा टिकाना तो जरूरी है और कोई रसम हो या न हो ।
जैसा आपको ठीक लगे ।
बसंत कौर ने थाली परोस कर केसर को आवाज लगाई – केसर रोटी बन गयी है । केसर आई तो उसने थाली केसर की ओर सरका दी – ले यह थाली उसे दे आ । कल से भूखी प्यासी बैठी है ।
तो मरने दो न भूखे प्यासे । हमने कहा था क्या यहाँ आने को ? यहाँ करने क्या आई है -? – केसर ने गुस्से में गाल फुला लिए ।
बसंतकौर ने थाल बढाया – ले पकङ ।
केसर थाल लेकर आँगन की ओर चल दी । आँगन में जयकौर नहीं थी तो वह झिझकते झिझकते कमरे की ओर बढी । इतने सालों में पहली बार वह किसी कमरे के भीतर जा रही थी । जयकौर घुटनों में सिर दिए दीवार से लगी बैठी थी । केसर ठिठक गयी । वह कई मिनट वहीं थाली लिए खङी रही । जयकौर पर कोई असर नहीं हुआ । आखिर उसने पुकारा – सुन ले ये रोटी पकङ । छोटी सरदारनी ने तेरे लिए भेजी है ।
जयकौर उसी तरह उकङूं बैठी रही । अधीर होकर केसर ने फिर पुकारा – ले ये थाली पकङ । मुझे और बहुत काम हैं । तू रोटी खा लेना ।
जयकौर ने सिर ऊपर उठाया । लगातार रोते रहने से उसकी आँखें लाल रतनजोत जैसी हो गी थी । होंठ सूख गये थे क्योकि कल से उसे पानी की एक घूंट भी नसीब नहीं हुई थी ।
उसने केसर की नजरों में विनती देखी तो उसे अपनी भूख प्यास याद हो आई । उसने आगे होकर थाली पकङ ली । केसर ने एक लोटा पानी का लाकर रख दिया और खुद भी रोटी खाने लगी ।
रख्खी ने तब तक रोटी खा ली थी । उसने कढी का कटोरा उठाया – ले मैं तेरे भाई को रोटी दे आऊँ । तब तक तू भी चूल्हा चौका संभाल ले । फिर बडे बढेरों को पूज लेंगे ।
पर बहन इसके पास तो कोई कपङा ही नहीं है पहनने को । जो एक सूट पहन कर आई थी , वही पहना हुआ है ।
ऐसे कैसे भुक्खे नंगे भाई हैं जो बहन को दो जोङी कपङे तक न दे सके । भाभियों ने यह नहीं सोचा कि वहाँ जाकर क्या पहनेगी , क्या धोए सुखाएगी । कंगलों के खानदान की । नहीं तो गरीब से गरीब लोग भी अपनी बेटी को पाँच सात जोङे कपङे तो देते ही है । इनसे एक जोङा भी न सरा । यह जो पहना कर भेजा है , यह भी न पहनाते ।
बसंत कौर चुपचाप सुनती रही और अंदर जयकौर । सच्चाई तो यही थी ।
आखिर वह घुटनों पर हाथ रख कर उठी । अपनी लोहे की बङी पेटी खोली । उसमें से एक सिल्क का सूट निकाला । एक सूट जयकौर के संदूक से । और दोनों सूट रख्खी को पकङा दिये ।
ले बहन ये दोनों सूट सिलवा दो । जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी ।
मैं कुलवंत की बहु से कहती हूँ । वह बढिया कपङे सिलती है और जल्दी दे भी देती है ।
रख्खी ने बगल में दोनों सूट दबाए । हाथ में कढी वाला कटोरा पकङा और चल दी ।
बसंतकौर , बहन जब चौके के काम से खाली हो जाय तो मुझे बुला लेना । माथा टेक लेंगे ।
ठीक है , बहन ।
रख्खी के जाने के बाद बसंतकौर ने लस्सी में से माखन निकाला । जूठे बर्तन निकाल कर नल पर मांजने के लिए रखे । खुद रोटी डाल कर ऊपर चौबारे में भोला सिंह के लिए ले गयी – ले पकङ रोटी । तूने तो मेरे साथ भली गुजारी पर मैं क्या करूं । तुझे खिलाए बिना मेरे हलक से ग्रास नीचे कैसे उतरेगा ।
भोला सिंह एक ओर सरक गया – आ जा तू भी बैठ जा । यहीं इसी थाली में दोनों खा लेते हैं ।
नहीं तू खा । मैं पानी लेकर आती हूँ ।
भोला सिंह नें खींच कर बसंत कौर को अपने पास बिठा लिया । - तू यहाँ रुक । पानी में लाता हूं । भोला नीचे गया । थोङी देर बाद ही एक लोटे में पानी और एक लोटे में लस्सी लेकर लौट आया ।
दोनों रोटी खाने लगे ।
सुन , उस नयी का बङे वाला भाई आया था । पता नहीं दोनों भाई बहन में किस बात को लेकर बहस हुई कि किसी से बिना मिले , बहन को बिना लिए ही चला गया ।
चरण सिंह आया था और मुझसे बिना मिले ही चला गया ?
भोला सिंह ने हाथ का ग्रास थाली में छोङा और उठ गया ।
कहाँ चला । रोटी तो खाता जा । अभी तो तूने एक ही रोटी खाई है ।
एक नहीं , मैंने दो रोटी पूरी खा ली । बस अब भूख नहीं है । तू आराम से रोटी खत्म कर । मैं आता हूँ ।
वह सीधा जयकौर के कमरे में गया । वह अभी भी दीवार से लगी सोचों में डूबी थी । पास पङी थाली में रोटी और सब्जी बची पङी थी ।
भोला सिंह ने बिना किसी भूमिका के पूछा - ये चरण यहाँ आया था क्या ?
हां जी – लगा बोलने में बहुत जोर लगाना पङ रहा है । आवाज जैसे किसी गहरे कुएँ से आई थी ।
फिर बिना किसी से मिले क्यों चला गया ?
पता नहीं
तब तक रख्खी लौट आई थी – भाई ऐसा करो । मुँह हाथ अच्छे से धो लो और बडे बडेरों का माथा टेको । पहले ही किसी बडे का करोप है कि इतने साल बाद भी औलाद का मुँह देखना नसीब नहीं हुआ ।
जी भाभी ।
भोला सिंह दोबारा चौबारे में जा चढा और रख्खी पूजा की तैयारी करने लगी ।

 

बाकी फिर ...