सोई तकदीर की मलिकाएँ - 30 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 30

सोई तकदीर की मलिकाएँ 

 

30

 

 

जयकौर और उसका भाई चरण सिंह अंदर कमरे में एकदूसरे से बहस रहे थे । चरण सिंह जयकौर को शांत करने की कोशिश कर रहा था । उसे समझा रहा था और जयकौर पना रोष प्रकट कर रही थी ,  तब तक बसंत कौर चौंके में सामान इधर उधर करती रही । आखिर बहन भाई का आपसी मसला था । जयकौर के कई गिले शिकवे थे ।  पर मुश्किल से दो चार मिनट ही बीते होंगे कि चरण सिंह भीतर से तमतमाया हुआ निकला और मेन दरवाजे की ओर बढ गया । चरण सिंह को इस तरह बिना पानी पिए वापस लौटते देख कर बसंत कौर उसे रोकने के लिए बाहर के बङे फाटक तक गई पर उसके वहाँ पहुँचने से पहले ही चरण सिंह जा चुका था । बसंत कौर काफी देर तक टकटकी लगाए सूनी सङक को देखती वहीं दहलीज पकङे खङी रही । फिर पलटी । आँगन में खङी जयकौर सिसकियाँ ले लेकर रो रही थी । रो रो कर हलकान हो रही थी । वह उसके पास जा खङी हुई । उसे पास आया देख कर जयकौर उसके सीने से लग गई – बहन जी मुझे माफ कर दो । मा..फ क..र दो ..मुझे । मुझे कुछ नहीं पता । कब तय हुआ । क्या तय हुआ । किसने यह सब तय किया । मुझे तो य..ह भी नहीं पता , यहाँ घर में कौन कौन हैं । इन मर्दों ने खुद ही फैसला कर लिया । खुद ही ... । उसकी रोते रोते हिचकियाँ लग गई थी ।

... आपकी गुनहगार हो गई मैं । बताओ बहन जी , अब मैं क्या करूँ ?

बसंत कौर जयकौर के  इस अप्रत्याशित व्यवहार से अचंभित रह गई । जयकौर उसके कंधे से चिपकी रोये जा रही थी । वह चुपचाप उसकी पीठ मलती रही । उसे चुप कराए तो क्या कह कर । कैसे चुप कराए । वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे सांत्वना दे तो क्या कह कर दे । एक टूटी किश्ती पर सवार होकर यह औरत समन्दर पार करने चली थी । इस पुरानी नाव को किनारे से धकेल कर लहरों के हवाले करके मल्लाह तट छोङ कर जा चुके थे । अब यह लहरों के थपेङों पर था कि उसे कौन से पानी में डुबोते हैं या किसी किनारे तक पहुँचाते हैं । फिलहाल के हालातों को देखते हुए उसका डूब जाना तय था ।

आखिर उसने बात करने के लिए कहा -  

ये तेरा भाई आया था न । फिर रुका क्यों नहीं । तुरंत ही लौट क्यों गया । चाय का घूंट तो पी कर जाता । किसी से मिल कर भी नहीं गया ।

मुझे घर जाना था । मैंने भाई से मिन्नते की थी ... मुझे साथ ले जा । मुझे यहाँ नहीं रहना । मैं उसके घर में नौकरानी बन कर रह लेती । कहते कहते वह फिर से रो पङी ।

अब बसंत कौर को बात समझ में आई – रीति रिवाज और गाँव , जाति के दबाव के चलते चरण सिंह शादी के बाद पहली बार बहन से मिलने आया होगा और भाई को देखते ही जयकौर ने साथ चलने की जिद की होगी इसलिए घबरा कर बिना किसी से मिले ही वह चला गया ।

जय कौर भी क्या करे । जैसे भी हो , थी तो नयी नवेली दुल्हन ही न । पता नहीं रास्ते भर क्या क्या सपने देखती हुई इस घर में आई होगी । यहाँ किसी ने बात ही नहीं पूछी । कोई वार फेर नहीं । कोई द्वार चार नहीं । किसी ने पानी वार के नहीं पिया । न सुहाग के गीत किसी ने गाए । मिठाई तो एक तरफ , यहाँ तक कि खाने के लिए सूखी दाल रोटी भी नसीब नहीं हुई । भूखी प्यासी यहाँ रात भर आँगन में अकेली बैठी रही । रो रो के रात काट ली । भाई से साथ ले जाने की जिद न करती तो और क्या करती । उसे भोला सिंह पर गुस्सा आया । क्या जरूरत थी एक लङकी की जिंदगी बरबाद करने की । और ये भाइयों ने भी रिश्ता जोङने से पहले एक बार भी नहीं सोचा कि वे कर क्या रहे हैं ।

 उसने मंजी के पैताने पङे मिठाई के इकलौते  डिब्बे और एक दर्जन केलों को देखा , भाई पहली बार अपनी बहन की ससुराल आया था । किसी और के न सही , अपनी बहन के लिए ही एक जोङा कपङे सिलवाकर दे जाता । लङकी नहा कर पहन तो लेती । उसने एक गहरी , ठंडी सांस भरी – हो मेरे रब्बा , ये गरीबी जो न करवाए , वही कम है ।

और इस जयकौर का क्या कसूर । पता नहीं वहाँ किस तरह , किन हालातों मे ब्याह हुआ होगा । हुआ भी होगा या यूं ही इसके साथ भेज दिया । हम हिंदोस्तानी औरतें । हमारी हैसीयत ही क्या है समाज में । पहले बहन भाइयों को पालने में और बाप दादा का हुकम मानने में बचपन निकल जाता है । थोङा होश संभालते ही घर गृहस्थी के काम सिखाने के नाम पर चूल्हे चौके में झोंक दिया जाता है  । अभी पूरी तरह से जवान भी न हुई कि  ससुराल भेज दी गयी । वहाँ सास ससुर और पति का हर कहना सिर झुका कर सुनो । दिन भर पशुओं की तरह गृहस्थी में जुटो । रात को पति का बिस्तर गरम करो । ऊपर से पूरा दिन सबकी गालियाँ खाओ । और बदकिस्मती यह कि बच्चे से लेकर खेत खलिहान , जमीन जायदाद सब मरदों का , उनके नाम पर ।  औरत का कहीं कोई नाम नहीं । किसी चीज पर उसका कोई हक नहीं । यहाँ तककि अपनी देह की मिट्टी से बनाए बच्चे भी पिता की मलकीयत ।  गाय भैंस की तरह इस औरत नाम के बेजुबान जानवर को जिस मरजी खूंटे से ले जाकर बाँध दो , वहीं दूध देना शुरु कर देगी ।  कोई उसकी मरजी नहीं पूछेगा । न बाप , न भाई , न खाविंद और न बेटे ।

भगवान औरत तो किसी को न बनाए । कोई जून नहीं उसकी ।

बसंत कौर की अपनी आँखें भर आई ।  उसने चुन्नी के पल्लू से आँसू पौंछे ।

चल रोटी बना रही हूँ । आजा रोटी खा ले ।

वह उसे चारपाई पर बैठा कर चौंके में गयी । आटा गूंथ कर रोटियाँ सेकने लगी । अभी आधी रोटियां बनी थी कि रख्खी आ पहुँची – क्या बना रही है बसंत कौरे ।

कुछ नहीं बहन  , ये रोज के रोटी के झमेले । सब्जी तो तेरा देवर लाया नहीं तो सोचा कढी ही बना दूंगी ।

सही सोचा तूने । कढी तू बनाती ही बहुत स्वाद है । बन जाए तो मुझे भी खिलाना ।

पक्का बहन । तू भी खा लेना ।

सुना है , भाई शादी करके एक लङकी ब्याह लाया ।

बसंत कौर ने सिर झुका लिया । बात का कोई जवाब नहीं दिया ।

 

 

बाकी फिर ..