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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 4

सोई तकदीर की मलिकाएँ 

4


भोला दोनों भाइयों में बङा था । इस नाते वह शुरू से ही जिम्मेदार था । भोले ने स्कूल से आठवीं पास की थी । वह लंबे तगङे जुस्से का मालिक था । कद सवा छ फुट । कबढ्डी में उतरता तो जिस टीम की ओर से खेलता , उस टीम का जीतना पक्का होता । गतका खेलने मैदान में उतरता तो लङकियाँ उसकी बांहों की मछलियाँ देख कर होंके भरना शुरु कर देती । दूध घी का शौकीन था । यारों का यार ।

आठवीं के बाद उसने भी पढाई छोङ दी और बाप के साथ खेती बाङी में जुट गया । सुबह मुंह अंधेरे ट्रैक्टर लेकर निकलता तो दोपहर तक कई क्यारे जोत देता । अभी बीस साल का हुआ ही था कि उसके लिए रिश्तों की लाईन लग गयी । एक से बढ कर एक घरों की खूबसूरत लङकियों के बाप हाथ जोङे आ खङे हुए । आखिर जगराऊँ के बङे ग्रेवालों की बेटी से उसका लगन पक्का हुआ । चाँदी के सिक्के , नारियल और पंसेरी गुङ देकर उन्होंने भोले को माँग लिया था और इस रिश्ते के एक साल बाद बसंत कौर उसके घर , उसकी जिंदगी में आ गयी । ग्रेवालों ने अपनी बेटी के दहेज में पाँच गाय , पचास तोले सोना और तीस किल्ले जमीन दी थी । पूरे गाँव में इस शादी की आवभगत की चर्चा थी । पाँच –पाँच नाई , तंबोली और मालशिए बारातियों के सेवा में हाजिर किये थे ग्रेवालों ने । मिनट मिनट बाद शरबत भरे गिलास , मिठाई के थाल हाजिर होते । नाच गाने का खास प्रबंध किया गया था । पटियाले की नचनिया और गवैये बुलाए गये थे । शादी के बाद भोला सिंह की धाक पूरे गाँव में छा गयी थी । भई इतने बङे घर का दामाद जो बन गया था ।
बसंत कौर गोरी चिट्टी थी खूबसूरत औरत थी । ऊँचा लंबा कद । घुटनों को छूते लंबे घने काले स्याह बाल । सेब जैसे गुलाबी गाल । घनी पलकें । संतरे की फांक जैसे होंठ । कोहकाफ की परी शायद इसी को कहते हैं । सुखवंती तो अपनी इस बहु को देख देख निहाल हो जाती । दिन में दो बार राई नोन लाल मिर्चों से बहु की नजर उतारती । बस चलते उसे धरती पर पैर न रखने देती । इकबाल सिंह भी इस बहु पर बार बार न्योछावर होता । आखिर इस बहु ने पूरे गांव में उसकी पगङी ऊँची कर दी थी । भोला सिंह तो उसका दीवाना ही था । एक तो सुंदर , ऊपर से उतनी ही लियाकत । सातवीं तक पढी थी बसंत कौर । इससे पहले गांव में इतनी पढी लिखी बहु किसी घर में नहीं आई थी । वह रामायण , गीता , भागवत के साथ रहरास का इतना सुंदर पाठ करती कि सुनने वाले मंत्रमुग्ध होकर हाथ जोङे रह जाते । बेहद दयालु और नरम स्वभाव पाया था उसने । कभी किसी ने उसे ऊँचा बोलते या हँसते नहीं सुना । हमेशा सबको जी करना और जी करवाना ।
बसंत कौर ने अपने मधुर स्वभाव से सबका दिल जीत लिया था । कोई गरीब गुरबा अब उनकी दहलीज से भूखा न जाता । कमेरों के सिर पर खङे होकर वह अपनी निगरानी में जानवरों को चारा सानी कराती । बिनौले और खली भरपूर खिलाती । बछिया और बछङों के लिए गुङ आता जिन्हें वह अपने हाथों से खिलाती । अच्छी सेवा मिलने से लवेरों के दूध की मात्रा और क्वालिटी दोनों सुधर गये तो आमदनी भी बढ गयी । जैसे जैसे वह बङी हो रही थी , वैसे वैसे उसके रूप और गुणों में निखार आता जा रहा था ।

सब मजे से चल रहा था कि हर तरफ कोहराम मच गया । देश का विभाजन हो गया था । इस विभाजन की आँधी में कई घर तबाह हो गये । कई लोग बेघर बार हो गये । हजारों लोग अपने ही देश में मुहाजिर ,रिफ्यूजी या शरणार्थी करार दे दिये गये । लोग बदहवास होकर भाग रहे थे । यहाँ वहाँ भटक रहे थे । देश का , खास तौर पर पंजाब का एक बहुत बङा हिस्सा अब पाकिस्तान बना दिया गया था । पाकिस्तान जिसका झंडा अलग था । कैबिनट अलग थी । सोच अलग थी । जो अब सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों का था । पूरे भारत के अलग अलग हिस्सों से मुसलमान अपने परिवारों सहित इस नये मुल्क की ओर भागे जा रहे थे । वहाँ हिंदुओं के घरों , खेतों , मकानों , दुकानों पर कब्जा कर रहे थे । हिंदुओं की धन सम्पत्ति बेरहमी से लूटी जा रही थी । औरतों और बच्चियों को अगवा कर उनकी अस्मत से खेला जा रहा था । लोग अपनी बहु बेटियों को इस जुल्म से बचाने के लिए खुद ही अपने हाथों से मार रहे थे । लोग पाकिस्तान से उजङ कर हिंदोस्तान आ रहे थे । फिर अचानक उधर से रेल गाङियाँ खून से लथपथ होकर आने लगी । डिब्बे के डिब्बे , बोगियाँ की बोगियाँ लाशों से भरी हुई आने लगी । ऐसी ही गाङियाँ जब फिरोजपूर स्टेशन पर पहुँची तो क्षत विक्षत लाशें देख कर यहाँ के नौजवान सिक्खों को भी जोश आ गया । वे भी टोलियाँ की टोलियाँ बनाकर मुसलमानों के घरों में घुस जाते और परिवार के सब सदस्यों को मार देते । गाँव गाँव में यह उन्माद फैल गया था । भोला सिंह उस समय बाईस साल का भर जवान गभरू था । वह भी टोली में शामिल होकर गाँवों में जाता । मुसलमानों को ढूढ ढूँढ कर मारता । कई मुसलमान इस मौत के खौफ से अमृत छक कर गुरू के खालसे सिक्ख हो गये । उन्होंने अपने नाम भी सरदारों वाले रख लिए । कुछ पाकिस्तान भाग गये । ऐसे ही एक रात भोला सिंह अपने साथियों के साथ रोमाणा अलबेल सिंह गाँव गया था । रात को ही उन्हें किसी ने सूचना दी थी कि इस गाँव में एक मुस्लिम परिवार छिपा हुआ है जिसमें सात मैंबर हैं । सूचना मिलते ही ये सब लोग रात के बारह बजे ही धावे पर निकल पङे थे । इन लोगों ने जाते ही तलवारों से सारे सदस्य काट डाले । लाशें गिनी तो निकली छ ।
ओए जीते ने तो बताया था , घर में सात लोग हैं पर निकले छ । एक कहाँ गया ।
ढूँढो यहीं कहीं घर के किसी कोने में छिपा होगा ।
सारे लोग घर का कोना कोना देख रहे थे कि एक कोने से मरियल सी आवाज उभरी – खुदा के वास्ते मुझे मत मारो । तुम्हें तुम्हारे गुरू का वास्ता , मुझे मत मारो ।
सबने जिधर से आवाज आई थी , उस दिशा में देखा – एक बारह तेरह साल की मासूम सी खूबसूरत बच्ची हाथ जोङे थरथर काँप रही थी । आँसु उसके गालों पर बह रहे थे ।
भोला सिंह को अचानक पता नहीं क्या हुआ , वह लपक कर उस लङकी के आगे जा पहुँचा – इसे छोङ दो यार । मत मारो इसे ।
तलवारे ताने खङे लोग सकते में आ गये । फिछले दस दिन में उन्होंने कितने विधर्मियों का खून बहा दिया था , कोई हिसाब ही नहीं पर ऐसा पहले कभी नहीं हुआ । आज अचानक ?
दलनायक ने सबका चेहरा देखा और ठठाकर हँस पङा ।
जा यह तुझे बख्श दी । ले जा और ऐश कर । तेरा नाम क्या है लङकी –
लङकी ने कांपते हुए कहा – नसीबन ।
आज से तेरा नाम हुआ केसरवंती । भूल जा तू कभी नसीबन थी । बस आज से यही याद रहे कि तू केसरवंती है । नसीबन मर चुकी । समझी ।
लङकी चुपचाप सिर झुकाए खङी रही । दलनायक ने लङकी को पकङा और भोले पर उछाल दिया । लङकी भोले की बाहों में आ गिरी ।


बाकी फिर 

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