हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग सत्रह) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग सत्रह)

आपरेशन के बाद एक सप्ताह मैं बहन के घर रही |इस बीच बहन के पति और बच्चों ने मुझसे कोई मतलब नहीं रखा |बहन की बेटी घर रहकर ही आई ए एस की तैयारी कर रही है और बेटा कालेज में है |मैं किसी काम से उन्हें बुलाती तो वे अनसुना कर देते थे |बहन का पति तो मुझसे बोला तक नहीं |दरअसल इसमें उनका कोई दोष नहीं था |बहन पति और बच्चों के सामने ही सबकी अच्छाई –बुराई का बखान करती रही है |इसी कारण उनके मन में सबके प्रति वही भाव है ,जो बहन के मन में है|ये बात और है कि वह सबसे सामने अच्छा व्यवहार करके सबकी प्रिय बनी रहती है |मुझसे पंद्रह वर्ष छोटी होने के बावजूद वह दुनियादारी में प्रवीण है |बिना फायदे के किसी से रिश्ता नहीं रखती| अपने बच्चों और पति के मन में मेरे लिए कड़वाहट उसी ने भरी है |उसकी और उसके परिवार की मेरे छोटे बेटे आयुष से दोस्ती है |वह उनके यहाँ बराबर आता रहा है और उसके इमोशन का फायदा भी ये लोग उठाते रहे हैं |बहन चाहती तो आयुष के मन में पड़ी गाँठ खोल सकती थी, पर उसने उसकी एक भी शिकायत दूर नहीं की| उल्टे उसे समझाया कि वह आज जो कुछ है ,अपने पिता के कारण है,इसलिए उनका साथ कभी न छोड़े |हालांकि वह कहती है कि ऐसा उसने इसलिए कहा था कि वह आयुष का विश्वास जीत सके |कितनी अजीब बात थी कि बहन का परिवार मेरे बेटे से आर्थिक लाभ लेता था |उससे महँगे तोहफे लिए जाते थे |यहाँ तक कि लखनऊ में प्लाट दिलाने के बहाने उसके लाखों रूपए डूबा दिए गए |बाद में कह दिया गया कि प्लाट बेचने वाला फ़्राड था और इस समय जेल में है|सबसे अजीब बात तो ये थी कि बहन और आयुष दोनों मुझसे हर बात छुपाते रहे |
बहन बड़े ही गर्व से कहती कि आयुष कहता है कि औरत आपके जैसी होनी चाहिए |पति की ज्यादती सहकर भी आपने उनका घर नहीं छोड़ा ,बच्चों को छोड़कर भागी नहीं |धीरे-धीरे ही सही पर अपना घर-परिवार को खुशहाल बना लिया |
प्रकारांतर से दोनों मेरे ही जीवन की समीक्षा करते हैं |मेरे किए पर टिप्पड़ी करते हैं |बेटे की बात तो फिर भी समझ में आती है पर क्या बहन ऐसी होती है ?क्या सब कुछ जानने के बावजूद भी वह मेरे पक्ष में खड़ी नहीं हो सकती?बेटे का ब्रेन-वाश नहीं कर सकती ?वह तो चालाक लोमड़ी की तरह हमारे बीच की वैमनस्यता का फायदा उठाने में जुटी है |वही क्यों मेरी सारे भाई-बहन भी मन ही मन मुझे ही दोषी मानते हैं |बेटों से यहाँ तक कि उनके पिता से भी उनकी सहानुभूति है |वे जब आपस में मिलते हैं तो मुझे ही स्वार्थी ,कंजूस,आजाद -ख्याल ठहराने की कोशिश करते हैं |दरअसल उन्होंने मेरे जीवन को नजदीक से नहीं देखा |बस माँ ही मेरी हर व्यथा की साझीदार रही और अपने जीते –जी उसने मेरे पति को माफ नहीं किया |
मेरे भाई-बहनों की मुझसे कटने की कई वजहें हैं |उनमें बड़े भाई और सबसे छोटी बहन के अलावा कोई ग्रेजुएट नहीं है |उनकी अपनी कोई पहचान नहीं है |शिक्षित समाज में उच्च स्थान नहीं है |अपनी कोई सोच नहीं है |सभी विलासितापूर्ण जीवन जीते हैं |आर्थिक दृष्टि से सभी सम्पन्न हैं पर विचार-शून्य |घोर परंपरावादी और सामाजिक ,धार्मिक रूढ़ियों पर चलने वाले |वे मुझे कैसे समझ पाएंगे ?वे सिर्फ पैसे की भाषा समझते हैं |
वे मुझसे इसलिए भी नाराज हैं कि मैंने अपनी बागडोर उनके हाथ नहीं सौंपी है |अपना वारिस उनमें से किसी की संतानों को नहीं बनाया है |वे जानते हैं कि सारे अंतर्विरोधों के बावजूद मेरे बेटे ही मेरे उत्तराधिकारी होंगे |इसलिए चिढ़ में वे मुझे चालाक,स्वार्थी ,मतलबी जाने क्या-क्या समझते और कहते हैं|मेरे बेटों को मेरे खिलाफ भड़काते हैं कि मैं सबसे कहती हूँ कि मेरे बेटे संपत्ति के लालच में मेरे पास आते हैं ।जबकि वे खुद मुझसे यही बात कहते हैं कि बेटे लालच से आ रहे हैं |उन्हें तुमसे कोई प्रेम या लगाव नहीं है |मेरे भाई-बहनों की इस राजनीति को मेरे बेटे नहीं समझते ,पर मैं खूब समझती हूँ|
मेरे बेटे कभी अपने पिता की झूठ-फरेब से भरी बातें सुनते हैं |कभी मेरे भाई-बहनों की ,बस मेरी बात नहीं सुनते | काश,वे समझ सकते कि भागी हुई स्त्री भी एक माँ होती है. जो किसी भी हालत में अपने बच्चों का अहित नहीं कर सकती |