हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग--सात) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग--सात)

(भाग--सात)

माँ ने तत्काल बिहार जाना मुनासिब नहीं समझा। आखिर बच्चे अपने पिता के घर गए हैं । वहाँ उनके ताई- ताया हैं, दादी है। एक पूरा समाज है उनको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। एक हफ्ते बाद जाकर मिलने से बात बनेगी। तत्काल जाने पर वे लोग सतर्क हो जाएंगे। उस एक सप्ताह मैं हर पल मरती रही। 
उस समय यू पी से बिहार जाना आसान भी नहीं था । दोनों के बीच में एक बड़ी नदी थी, जिसे नाव से पार करना होता था, फिर बस का सफ़र। माँ अकेली ही यात्रा की कठिनाइयों से जूझती बच्चों तक पहुंची थी। जब वह किसी से घर का पता पूछ रही थी। पति को उसके आने का पता चल गया । वह अपनी माँ को हिदायत देकर गायब हो गया। बुढ़िया सास ने बच्चों को बड़े जँगले वाले एकमात्र कमरे में बंद कर बाहर से ताला लगा दिया और खुद भी कहीं चली गयी। भूखी -प्यासी, यात्रा से हलकान माँ वहां पहुँचकर जँगले के बाहर से ही बच्चों से मिल सकी। उधर बच्चे रो रहे थे इधर माँ। छोटा आयुष माँ से ज्यादा हिला था, वह उसकी गोद में जाने के लिए रो रहा था। माँ ने पूछा-क्या खाओगे?तो वह बोला--रोटी है?
उसे रोटी पसन्द थी और लगभग अंधी सास सिर्फ भात पका पाती थी। 
माँ खूब रोई । बच्चों को बिस्कुट, मिठाई दी और देर शाम तक सास के आने का इंतजार किया। सास आई तो भीतर जाकर सिटकनी चढ़ा ली। फिर जंगले से ही बोली--बबुआ मना किया है बच्चों से मिलने देने के लिए। कहीं लेकर भाग गयीं तो!अपनी बेटी को संस्कार नहीं दे पाईं तो भुगतिए। 
और शेरनी- सी मेरी मां मुँह पिटाकर वापस आ गयी। उसे सदमा लगा था कि जिस दामाद को बेटा समझती रहीं, उसी ने उन्हें इतना बड़ा धोखा दिया। 
माँ ने घर आकर जब यह सब बताया, तो मैंने लम्बी साँस लेकर कहा -मुझे इसका पूर्वानुमान था। फिर मैं छत पर चली गयी। मुझे खूब रोना आ रहा था। मेरा बच्चा रोटी मांग रहा था, यह बात मैं कभी भूल नहीं पाई। मेरे बच्चों को झूठे अहंकार में मोहरा बना लिया गया। उनके नन्हे कंधों पर बंदूक रखकर मुझे हताहत किया जा रहा है। धिक्कार है पुरूष कहलाने वाले जीव तुमको। एक माँ से बच्चों को अलग किया तुमने! तुम्हें ईश्वर कभी माफ नहीं करेगा। यदि वह कर भी दे तो मैं कभी नहीं करूंगी ...कभी नहीं । तुम बच्चों को इसलिए नहीं ले गए कि तुम्हें उनसे प्यार था, तुमने मुझे तोड़ने के लिए ऐसा किया। मुझे वापस लाकर मार देने के लिए ऐसा किया। धिक्कार है तुमको कि तुमने यह नीच हथकंडा अपनाया। 
अभी मेरे लघुशोध का बाइबा होना था, पर मेरा पढ़ने में ध्यान ही नहीं था। छत के एक कोने को मैंने अपना साथी बना लिया था। वहीं किताबें लेकर बैठी रहती और रोती रहती। घर में माँ के अलावा कोई मेरा दुःख नहीं समझता था। पड़ोसी और रिश्तेदार मुझे बच्चों के पास चले जाने का सुझाव दे रहे थे, पर इसके लिए मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। वहां कौन मेरे पक्ष या सुरक्षा में खड़ा होगा। बच्चे भी अभी छोटे हैं। पति ने वहाँ चारों तरफ़ मेरे खिलाफ़ वातावरण तैयार कर लिया होगा। लंका में सीता की तरह मुझे जीना होगा पर कोई राम मेरे उद्धार के लिए नहीं आएगा। यहाँ भाई -बहन नासमझ हैं, हालात नहीं समझ सकते पर यहाँ मैं सुरक्षित तो हूँ ही । फिर माँ भी तो साथ है। 
हीरा भैया का तबादला दूसरे शहर हो गया था । जाते समय वे मेरे लिए कई जरूरी सामान (मेरे अभावों को देखते हुए) छोड़ गए थे, पर उस पर भाई ने कब्ज़ा कर लिया। मैंने दबी जुबान में माँ से शिकायत की, तो माँ का एक नया ही रूप दिखाई पड़ा। उसने कहा--लोगों से बताऊँ कि वह तुम्हारे लिए सामान छोड़ गया है । लोग तुम पर थूकेंगे कि एक जवान लड़की की वह क्यों मदद कर रहा था?
मैं छत जाकर भोंकार पार कर रोई कि मेरी मां ही मुझे ब्लैकमेल कर रही है। वह अच्छी तरह जानती है कि हम दोनों में भाई-बहन जैसा रिश्ता है फिर भी। पहली बार मेरी माँ ने मेरे चरित्र पर प्रश्न उठाया, वह भी सिर्फ मुझे दबाने के लिए। ये काम तो पति ने भी नहीं किया था। उसने कभी मेरे चरित्र पर अंगुली नहीं उठाई थी। भैया काफी समय तक मेरे लिए पैसे भेजते रहे पर माँ ने सब अपने कब्जे में कर लिया। 
इधर कालेज में मेरे गाइड और विभागाध्यक्ष में खुन्नस चल रही थी जिसके कारण वाइबा में मुझे दो नम्बर कम मिला और मात्र दो नम्बर से मेरा प्रथम श्रेणी रूक गया और साथ ही मेरे लेक्चरर बनाने की उम्मीद भी टूट गयी। अब लेक्चरर बनने के लिए पी एच डी करना अनिवार्य था और इसके लिए शहर के विश्वविद्यालय जाना पड़ता। मैं कभी शहर नहीं गयी थी। कोई साथ देने वाला नहीं था और सबसे बड़ी रूकावट तो आर्थिक थी। 
उसी बीच खबर मिली कि बच्चों की परवरिश के बहाने पति ने एक निस्संतान विधवा से विवाह कर लिया है। औरमुझे जलाने के लिए इस बात का प्रचार कर रहा है कि वह उम्र में मुझसे छोटी है साथ ही बी ए पास भी है। मैं सोच रही थी कि ना जाने उस लड़की के माँ-बाप कितने गरीब और मजबूर थे कि दो बच्चों के पिता से उसका विवाह कर दिया था । अभी हमारा तलाक नहीं हुआ था और पति ने यह हिम्मत दिखा दी। वह जानता था कि मेरे साथ कोई नहीं । मैं उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाऊँगी। बच्चों के मामले में ही मैं क्या कर पाई थी?मुझे उसकी शादी का दुख नहीं था । बस चिंता थी कि अब वह बच्चों पर पूरा ध्यान नहीं दे पाएगा। इधर- उधर से खबर मिलती रहती थी कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं, अच्छे से हैं। कोई उनसे माँ के बारे में पूछता है तो कहते हैं --मेरी माँ मर गयी है। 
शुरू में यह बात सुनकर मैं खूब रोती थी कि बच्चे मुझे मरा हुआ समझते हैं । फिर खुद को समझा लिया कि इस तरह उन्हें मुझे भूलने में आसानी होगी और वे सौतेली माँ को अपना लेंगे। पता चला कि वह औरत अच्छी है और बच्चों का ध्यान रखती है। बच्चे उसी को अपनी माँ समझने लगे हैं। कुछ लोगों ने कहा कि मुझे मुकदमा करके पति को जेल भिजवाना चाहिए पर बच्चों का ध्यान रखकर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। मेरे पास रहकर बच्चों को क्या मिलेगा?अभी तो मैं आत्मनिर्भर भी नहीं हुई हूँ। इस घर में उनकी कितनी उपेक्षा होती थी। छोटी से छोटी चीजों के लिए तरसा करते थे। पिता के घर पर तो उनका अधिकार है। फिर दिखावा-पसन्द उनका पिता समाज को दिखाने के लिए ही सही पर उनका ध्यान रखेगा । वरना समाज कहेगा कि माँ से अलग किया तो बेहतर तरीके से क्यों नहीं रखते!
कुछ दिन बाद पता चला कि उसने जुगाड़ लगाकर सरकारी नौकरी पा ली है। किसी विद्यालय का टीचर बन गया है पर उसके पहले ही विवाह करके उसने मेंरे लौटने के सारे रास्ते बंद कर दिए थे। वैसे भी वह मेरी वापसी नहीं चाहता था। यदि चाहता तो बच्चों को लेकर नहीं भागता। वह सिर्फ मुझे मेरे भागने की सजा देना चाहता था। अपनी बात न मानने का परिणाम दिखाना चाहता था और उसने वही किया जो उसके जैसे कमजोर पुरुष करते हैं--दूसरा विवाह!एक स्त्री को इससे बड़ा दंड और क्या दिया जा सकता है!
मैंने अपने दिल को समझा लिया कि कभी तो बच्चे बड़े होंगे फिर अपनी माँ को ढूंढ ही लेंगे। तब कोई भी उन्हें कैद करके नहीं रख पाएगा। मैंने ईश्वर और भाग्य के भरोसे अपने हृदय पर पत्थर रख लिया। 
अब अगला कदम अपनी आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ना था। एक नए संघर्ष में उतरना था।