हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग आठ) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग आठ)

(भाग आठ)

संघर्ष ही जीवन है-यह मानते हुए मैं आगे बढ़ती गई। छोटे-बड़े स्कूलों में नौकरी की, ट्यूशनें की। घर छोड़कर शहर गयी। किराए के मकानों में रही। बहुत कुछ झेला, गिरी- उठी हारी- जीती पर आखिरकार पी एच डी कर ही लिया। यह अलग बात है कि शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते लेक्चरर न बन सकी। एक मिशनरी कॉलेज में नौकरी  मिली और उसी में नौकरी करते ही रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंच गई । इस बीच जो -जो सहा, वह अलग से लिखूंगी। अभी सिर्फ अपने बच्चों की बात करूंगी। 
बीस वर्ष गुजर गए थे । बच्चों की शक्ल भी न देख पाई थी। कभी- कभार उड़ती हुई उनकी कोई खबर मुझ तक आ जाती। पता चला छोटे ने इंटर करते ही वायु सेना में नौकरी कर ली है और बड़ा दिल्ली में आई ए एस की तैयारी कर रहा है। संतोष हुआ कि बच्चे सही निकले। 
एक दिन अचानक दिल्ली से एक फोन आया। उधर से पंजाबी टोन में किसी लड़के की आवाज़ थी। मैंने तुरत पहचान लिया कि वह मेरा बेटा ही है। उसने बताया कि वह मुझसे मिलने आएगा। उसकी टीचर मेरी ही हमनाम थीं। उन्होंने ही उसे परामर्श दिया कि उसे खुद जाकर अपनी माँ से मिलकर सारी हकीकत जाननी चाहिए । मेरा पता उसे मेरी एक बहन से मिल गया था। 
मेरे शांत जीवन में एकाएक जैसे किसी ने कंकड़ फेंक दिया हो। लोगों के प्रश्नों से बचने के लिए मैंने किसी को अपना अतीत नहीं बताया था। लोग अटकलें लगाते थे पर मुझसे सीधे पूछने से डरते थे। अब मैं व्यवस्थित हो चली थी। एक छोटा- सा अपना घर था। प्राइवेट ही सही अच्छी नौकरी थी। मान- सम्मान था एक प्रतिष्ठा थी! मैं सोचने लगी कॉलोनी वालों से बेटे का परिचय अचानक बेटे के रूप में दूँगी तो भूचाल आ जाएगा। सोचा कि जब बेटा आने -जाने लगेगा तब बता दूँगी। कोई क्या कर लेगा?जायज़ बच्चे हैं। मुझे कोफ़्त हो रही थी अपने उन मित्रों पर, जिन्होंने मुझे अतीत छिपाकर शहर में रहने की सलाह दी थी । उनकी भी मंशा गलत नहीं थी। किसी परित्यक्ता या भागी हुई स्त्री की छवि के साथ जीना आसान नहीं था। 
बेटे को लेने स्टेशन पर पहुँची तो समझ नहीं आ रहा था कि उसे पहचानूंगी कैसे ?छह साल की उम्र का खूब तंदरूस्त बेटा अब जाने कैसा दिखता होगा?ट्रेन प्लेटफार्म पर आ चुकी थी। मैं इधर -उधर देख रही थी कि अचानक एक दुबले -पतले, लंबे लड़के ने आकर मुझे गले लगा लिया। मैं भीतर तक भींग गयी। बेटा इतना बड़ा हो गया!उसका चेहरा पिता पर ही पड़ा था पर बाल और ठुड्डी मेरे जैसे थे । वह दिल्ली में रहने से काफी बिंदास था जबकि मैं छोटे शहर में रहने के कारण अभी तक संकोची थी। उसका हाथ पकड़कर चलना, बात- बात पर गले लगाना मुझे थोड़ा अटपटा लग रहा था। वह बातूनी भी था। 
घर आकर भी वह लगातार बोलता रहा। अपने बारे में, अपनी पढ़ाई, गर्लफ्रेंड, दिल्ली शहर के बारे में बताता रहा। रात को मेरे गले में बाहें डालकर सो गया पर मैं जागती रही। मेरा दिमाग जैसे शून्य हो गया था। आगे की दिशा मैं तय नहीं कर पा रही थी । 
पर दूसरे दिन से उसका रंग बदलने लगा । वह मेरी हर चीज में कमी निकालने लगा। मेरे सोने -जागने, पढ़ने- लिखने, सारी दिनचर्या की तुलना अपनी सौतेली माँ से करने लगा। प्रकारांतर से उसे श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करने लगा। 
मैं चुप सब सुनती रही । मेरा बेटा बीस साल के बनवास के बाद लौटा है । मैं उसे खोना नहीं चाहती थी। लेकिन जब उसने मुझसे कहा--आप हमें जन्म देने के कुछ दिन बाद ही अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए पति के घर से भाग गईं। मिला क्या आपको, यही प्राइवेट नौकरी, साधारण जीवन और अकेलापन!
तब मुझे लगा कि कि ये डायलाग तो इसके पिता के हैं !तो क्या उसने ही प्लान करके बेटे को मेरे पास  भेजा है?मेरी माँ ने तो बेटे के आने की खबर सुनते ही कहा था कि  -वही भेज रहा होगा ताकि तुम्हारा चैन -सूकून, इज्जत -प्रतिष्ठा को खाक में मिला सके। साथ ही कमाए हुए धन -संपत्ति पर भी कब्ज़ा जमा सके। पहले बेटा आएगा फिर पिता और पूरे शहर में घूम- घूमकर बुराई करेगा। भागी हुई स्त्री के रूप में बदनाम करेगा। सावधान हो जाओ !उसे घर पर मत बुलाओ। बाहर जाकर मिलो और वहीं से विदा कर दो। जब उनको तुम्हारी जरूरत थी, तब पिता से क्यों नहीं जिद किए कि माँ के पास जाएंगे। वे अड़ जाते तो उसे पहुंचाना ही पड़ता। अब बीस साल बाद उन्हें क्यों माँ की याद आ गयी? साजिश है साजिश!
पर मैं बेटे से मिलने के लिए कोई भी रिस्क उठाने को तैयार थी। 
मैंने बेटे को शुरू से अंत तक सारी बातें बताई । वह ध्यान से सुनता रहा फिर अपने पिता की ही तरह व्यंग्य से मुस्कुराता हुआ बोला--पापा ठीक कहते हैं आप अच्छी कहानी गढ़ लेती हैं। 
मैं बेटे का मुंह देखती रह गयी। मेरी सारी व्यथा को उसने मात्र कहानी समझ लिया। वह चार दिन मेरे पास रहा और फिर वापस जाने को तैयार हो गया कि अभी पिता के घर जाएगा फिर दिल्ली। चार दिनों में ही ज़ब्त करते -करते मेरा चेहरा सूख गया । मैं बरसों की बीमार लगने लगी। 
एक दिन बाहर निकली थी तो पड़ोसन ने पूछ लिया था--कौन लड़का आपके यहाँ आया है। आपसे चेहरा मिलता है, तो मैंने कह दिया -बहन का बेटा है मैंने गोद लिया है दिल्ली में पढ़ता है। 
ये बात बेटे ने सुन ली। मैंने उसे समझाया कि एकाएक सच लोग हजम नहीं कर पाएंगे। वह कुछ नहीं बोला। उसने मुझे बताया था कि वह पिता को बिना बताए मुझसे मिलने आया है। वे उसे  कभी नहीं आने देते। मम्मी(सौतेली माँ) भी बुरा मान जातीं। आखिर उन्हीं ने तो पाला है। गीले में रहकर सूखे में सुलाया। टट्टी- पेशाब साफ किया। 
अब मैं कैसे बताती कि यह सब तो मैंने किया। उस उम्र को पार करने के बाद ही उन्हें उसका पिता ले गया था। मुझसे बच्चे पैदा करवा लिया, समझदार होने तक पलवा लिया फिर मालिक बन बैठा। 
मैं देख रही थी कि बेटे को मुझसे कोई सहानुभूति नहीं है। वह बार- बार अहसान जता रहा था कि इतना सब कुछ होने के बाद भी वह मुझसे मिलने आया है । वह प्रकारांतर से मुझे गैर सामाजिक और महत्वाकांक्षी भी कह रहा था और मैं कोशिश कर रही थी कि इस रिश्ते को बचा लूँ। मैंने उससे छोटे बेटे के बारे में पूछा और गिड़गिड़ाई कि उसकी कोई तस्वीर जरूर भेज देना ताकि मैं उसे देख सकूं कि कैसा दिखता है?
इस पर वह मुंह टेढा करके बोला--वह मेरी तरह नहीं है कि आपको माफ़ कर दे । वह आपसे बहुत नफरत करता है और आपको कभी क्षमा नहीं करेगा। 
बेटा मेरे दिल पर धमाधम घूसे बरसाता जा रहा था और मेरी ममता पछाड़े खा रही थी। उसने मुझसे लखनऊ वाली मेरी छोटी बहन का पता लिया और उससे मिलने की इच्छा जाहिर की । मैंने सोचा बहनों से मिलेगा तो सच से अवगत हो जाएगा। मैंने कहा--नानी से भी मिल लो उसी ने तो पाला था। मेरे साथ रात -रात भर जागी थी । मेरी बात सुनकर वह उपेक्षा से बोला--देखेंगे । अपने पिता की तरह वह भी मेरी माँ से चिढ़ रहा था। 
वह चला गया। उसके जाने के दूसरे दिन ही उसके पिता का फोन आया और वह मुझ पर लानतें भेजने लगा--कैसी माँ हो ?अपने बेटे को बहन का बेटा बताया । अपने को सिंगल बताकर रहती हो। तुम्हारा रहन-सहन देखकर बेटा दुबारा कभी न जाने का फैसला कर चुका है। कितनी मुश्किल से मनाकर उसे भेजा था। तुम्हारे जैसी औरत अपने बेटों की भी नहीं हो सकती। अपने दरबे जैसे घर पर तुम्हें गर्व है। तुम्हें लगता है उसी पर कब्जा लेने बेटा गया है। 
वह और भी जहर उगलता पर मैंने फोन काट दिया। बेटे ने न केवल उसे मेरा फोन नम्बर दे दिया था बल्कि मेरे घर और जीवन के बारे में एक -एक सूचना उसे पहुंचा दी थी। 
माँ ने सुना तो कहा --मैं बचपन से ही जानती हूँ तुम्हारे इस बेटे को। वह साँप का संपोला है। 
मैं दिन-भर स्कूल में रहती हूँ शेष समय लिखना -पढ़ना! घर का सारा काम खुद करती हूँ। क्या बुराई है मेरे रहन- सहन में?
किस तरह का जीवन जीते देखना चाहते हैं पिता पुत्र!
मैं हल्दी -तेल से सनी मां नहीं थी। पति -बच्चों से अलग होकर भी दुःख से जर्जर, बूढ़ी, दीन-हीन, बदहाल औरत- सी नहीं दिखती थी। मैं एक स्वस्थ, सुन्दर, आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी औरत थी। यही मेरी कमी थी.... यही मेरा दोष था । मेरा सबसे बड़ा अपराध तो यह था कि मैं अब तक जीवित थी?