हाँ,मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग पांच) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हाँ,मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग पांच)

मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि दो बच्चों के साथ कहाँ जाऊँ ?क्या करूं!तभी ईश्वर की कृपा हुई कानपुर का एक लड़का मेरे कस्बे के स्टेट बैंक में नियुक्त हुआ।जाति से हरिजन होने के कारण उसे कहीं मकान नहीं मिल रहा था।उस समय जाति -पाति के बंधन और भी ज्यादा सख्त थे।मैंने माँ से कहा कि नीचे का कमरा दे देते हैं।पैसे की किल्लत भी है और कमरा खाली ही रहता है।जाति कोई उड़कर थोड़े सट जाएगा।
कमरे के एक कोने ही बनाने- खाने को भी वह तैयार था।दिक्कत टॉयलेट की थी।मेरे घर में सदस्य संख्या अधिक थी।उसने कहा -मैं मैनेज कर लूंगा।कमरा उसे दे दिया गया।
मेरे भाई -बहन उससे दुर्व्यवहार करते ।हर बात में उसे चमरिया कहते पर वह हँसता रहता।लगभग मेरी ही उम्र का था,पर उसके लंबे- चौड़े व्यक्तित्व के कारण मैं उसे भैया कहने लगी और बाकायदा राखी भी बांधने लगी थी।मेरा व्यवहार उनके प्रति भेद-भाव वाला नहीं था ।वैसे भी मैं छूआछूत नहीं मानती थी।उनका भी मुझ पर स्नेह था । वे मुझसे सच्ची सहानुभूति रखते थे।एक दिन उन्होंने कहा-तुम अपनी पढ़ाई फिर से शुरू क्यों नहीं करती ?अब तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं।
'पर भैया पांच साल से मैंने कलम छुई भी नहीं है।अब कैसे पढ़ पाऊंगी?मेरे हाथ चलेंगे?'
-कोशिश करो,सब हो जाएगा।
'माँ अब पढ़ाएगी मुझे... खर्च कहां से आएगा?'
-मैं आंटी को समझाऊंगा...।कुछ मदद मैं भी कर दूँगा।
और सच ही माँ को उन्होंने मना लिया।माँ यह तो मान गयी कि कॉलेज के समय तक वह बच्चों को सम्भाल लेगी,पर यह भी कह दिया कि पढ़ाई के लिए पैसे उसके पास नहीं है।एडमिशन के लिए एक हजार रूपए की जरूरत थी।पर पैसा कहां से आये?भैया को भी वेतन का बड़ा हिस्सा अपने घर भेजना पड़ता था।छोटी बहन की शादी तय हो गयी थी, तो माँ उसके लिए दहेज जुटा रही थी।जेवर के नाम पर मेरे गले में डेढ़ तोले की सोने की जंजीर और कान में थोड़ी भारी बाली ही थी।मैंने माँ से कहा--जंजीर को बंधक रख देती हूँ।
माँ बोली --छुड़ा पाओगी?पता लगा ब्याज में ही निकल गया।
ऐसा करो कि उसे बेच दो।
मैंने मायूसी से कहा-चलो सुनार के पास चलते हैं ।
तो माँ बोली--मुझसे बेच दो।दहेज में जंजीर देनी है ।इसे ही दे दूँगी।
मरता क्या न करता। माँ ने मेरे डेढ़ तोले की जंजीर मात्र एक हजार में ले ली।मैंने एम. ए. में दाखिला ले लिया।जब मैं कॉलेज पहुँची तो मेरे प्राध्यापक चकित रह गए।बी. ए. करने के पांच साल बाद मैं कॉलेज आई थी।
हिंदी के प्राध्यापक केशव बिहारी सर ने कहा--यहां तो यह खबर उड़ी थी कि तुमने आत्महत्या कर ली है।बहुत खुशी हो रही है तुम्हें फिर से कॉलेज में देखकर ।मैंने मन में कहा-- 'और कोई लड़की मेरी जगह होती तो आत्महत्या कर ही लेती पर मैं तो बेहया हूँ ।'
सर ने मुझे अपने घर आने को कहा।वे मेरे बारे में सब कुछ जानना चाहते थे।मैं शुरू से ही मेधावी छात्रा रही थी।साहित्यिक /सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी मेरी भागीदारिता खूब रहती थी,इसलिए कॉलेज में मेरी एक अलग पहचान थी।
मैं अपने दोनों बच्चों के साथ सर के घर गयी।पूरी कहानी सुनाई तो उनकी पत्नी रोने लगीं।उन लोगों ने हर तरह से मेरी मदद का वादा किया।मेरी फीस माफ हो गयी।किताब- कापियाँ सब फ्री ही मिली।अब मुझे सिर्फ पढ़ना था,पर वह इतना आसान भी नहीं था।पाँच साल तक कलम न छूने का परिणाम था कि मेरे हाथ ही नहीं चलते थे।उधर कक्षा के सारे विद्यार्थियों को भी मुझसे एडजस्ट करने में प्रॉब्लम होती थी।उनसे पाँच साल बड़ी थी और सर लोग कुछ ज्यादा ही मेरा गुणगान करते थे इसलिए भी।खैर धीरे -धीरे सब नार्मल होता गया।पर घर पर सब -कुछ गड़बड़ था।पिताजी,भाई- बहन सब मेरी पढ़ाई के खिलाफ़ थे।माँ के साथ देने से वे कुछ कर नहीं पाते थे।पर माँ भी कभी -कभी अपने पर आ जाती।ज्यों ही मैं कालेज से लौटती ।खाना -पानी की जगह गालियां मिलती--इन नमकहरामों को मेरे भरोसे बियायी हो।बच्चे सहमे से आकर मुझसे चिपक जाते।मैं उन्हें झूठ -मूठ का डाँटती--नानी को बहुत परेशान किया न,जाओ किस्सी देकर माफी माँगो।बच्चे माँ का पल्लू पकड़कर नानी- नानी करते तो माँ पिघल जाती।वह भी क्या करती !पहले अपने नौ बच्चों को पाला ।अब तीन और बच्चों को पाल रही थी दो मेरे बेटे एक भाई की लड़की ।
घर में मेरे लिए कोई कमरा नहीं था ।बरामदे में एक खाट पर मैं दोनों बच्चों के साथ सोती थी।दोनों बच्चे मेरी दोनों बाहों पर ही सो पाते थे।उनको सुलाने के बाद लालटेन जलाकर मैं देर रात तक पढ़ती।बच्चों के जागते भर पढ़ना मुश्किल था।
इधर जब मेरे पति को पता चला कि मैंने कॉलेज में एडमिशन ले लिया है तो बौखलाकर आए ।
मुझसे बोले--किससे पूछकर पढ़ रही हो?मैं बीए हूँ ..तुम एम. ए. करोगी ?मुझे नीचा दिखाना चाहती हो?एक बार भागकर नीचा दिखाया अब पढ़कर।मैं बी एड कर रहा हूँ! सोर्स लगाया हूँ ।नौकरी मिल जाएगी।फिर घर ले चलूँगा।कल से कॉलेज नहीं जाना है।
मैंने कहा--ये संभव नहीं ।बहुत मेहनत की है।परीक्षा दे लेने दीजिए।
'नहीं मानोगी तो पछताओगी जिंदगी भर ,कहे देता हूँ।'
इतना कहकर वे गुस्से से चले गए।माँ से कहने की हिम्मत नहीं हुई तो पास -पड़ोस और नात-रिश्तेदारों से दबाव दिलवाने लगे कि मैं पढ़ाई छोड़ दूं,पर मैं फैसला कर चुकी थी।