हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग सोलह) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग सोलह)

दूसरी आँख का आपरेशन हो गया |आसान नहीं था,पर हो गया |न बेटों ने मदद की न भाई -बहनों ने और न ही किसी रिश्तेदार ने |जिस स्कूल को अपना पूरा जीवन दे दिया |उसने भी समय से पूर्व रिटायर करके पीछा छुड़ा लिया |शायद सबको लगता है कि मैं पूरे जीवन अकेली रहकर नौकरी की है तो मेरे पास कुबेर का खजाना तो अवश्य ही होगा |ऐसा न भी लगता हो तो भी मेरी मदद के लिए कोई आगे क्यों आए ?मैं किसी से कोई अपेक्षा करने वाली होती भी कौन हूँ ?आखिर मैंने भी तो किसी के लिए कुछ नहीं किया है |अपने अस्तित्व को बचाने और स्वाभिमान के साथ जीने में ही मेरा जीवन निकल गया है| नौकरी की व्यस्तता ने सामाजिक जीवन के लिए अवकाश ही नहीं दिया |परिवार था ही नहीं कि एक सुखद पारिवारिक जीवन ही जीती | मेरे साथ रिटायर हुए अध्यापक अब खुशहाल पारिवारिक और सामाजिक जीवन जी रहे हैं और मैं हसरत भरी नजरों से किसी ऐसे के आने की प्रतीक्षा कर रही हूँ |जो मेरे मन और जीवन के अकेलेपन को दूर कर दे |नौकरी में रहते यह अकेलापन उतना नहीं सालता था | स्कूल के बच्चों ,साथी अध्यापकों के दुख-सुख और स्कूल –घर के कामों में ही सारा वक्त निकल जाता था|शेष वक्त में साहित्य-सृजन|
अब तो समय ही समय है |आज़ादी है |अपनी इच्छा से जागने-सोने ,कहीं आने-जाने ,घूमने-टहलने ,किसी से भी बोलने-बतियाने,मिलने-जुलने ,पढ़ने-लिखने सबकी | पर अब किसी चीज में पहले -सा न उल्लास है न खुशी |हर चीज ,हर रिश्ते ,हर काम की निरर्थकता का आभास शिद्दत से होने लगा है |
इस बार आँख के आपरेशन के लिए छोटी बहन के घर लखनऊ जाना पड़ गया था क्योंकि मित्र,भाई-बहन ,बेटे या अन्य कोई एक-दो दिन के लिए भी मेरे पास रहकर मेरी देखभाल के लिए तैयार नहीं था |सोचा कि बहन तो बहन होती है ,न चाहते हुए भी देखभाल तो कर ही देगी |अक्सर वह अपने घर आने का आमंत्रण देती भी रहती थी |मुझे आया देखकर बहन का चेहरा उतर गया|उसने अनमने भाव से कहा –अभी तो बहुत गर्मी है,जाड़े में आपरेशन के लिए आना चाहिए था |चलो आ गई हो तो अब मेरे पति को झेलना |कल डाक्टर के पास चलूँगी |
तभी बहन के पास बड़े भाई का फोन आया |आपरेशन हेतु मुझे आया जानकर उसने बहन से कहा कि अपने बेटे[सोलह वर्ष] के साथ भेज देना हास्पिटल |तुम क्यों हास्पिटल जाकर परेशान होगी ? भाई ने लखनऊ में ही नया फ्लैट लिया है पर इन दिनों अपने कस्बे वाले घर गया हुआ था|उसने इसी बहन के घर रहकर ही अपनी दोनों आँखों का आपरेशन कराया था |माँ का आपरेशन भी यहीं हुआ था |बड़ा शहर और राजधानी होने के कारण यहाँ बेहतरीन हास्पिटल थे |देखभाल के लिए बहन और उसका परिवार था |बहन ने सबकी अच्छी तरह देखभाल भी की थी,पर मेरी बात और थी |मैं जबरन गले आ पड़ी थी |भाई को इसी बीच लखनऊ आना था ,पर जब उसने सुन लिया कि मैं आपरेशन के लिए आई हूँ तो नहीं आया | कहीं उसे या उसकी पत्नी को मेरी सेवा न करनी पड़ जाए |कहीं मैं उसके फ्लैट में न आ बसूँ|वह मेरे लिए खुद तो कुछ करना नहीं चाहता था,पर बहन को भी मना कर रहा था |इस बात पर मुझे बहुत क्रोध आया | भाई लेन-देन की भाषा ही समझता है |वह छोटी दो बहनों को ,जो इसी शहर में ब्याही हैं –को भड़काता रहता है |वह चाहता है कि वह खुद तो इनसे घनिष्ठता रखे पर अन्य भाई-बहन
काम से काम रखें |वह सीधे कहता है कि सेवा के बदले कौन क्या देगा ?जब कोई कुछ देगा नहीं तो उससे मतलब क्यों रखा जाए ?बड़ी दीदी जब कैंसर से लड़ रही थीं तो छोटी बहनों ने उनकी थोड़ी देखभाल कर दी थी क्योंकि दीदी भी उसी शहर में थीं |अचानक दीदी की मौत हो गई |दीदी के मृतक भोज से जब हम सभी छोटी बहन के घर लौट रहे थे | रास्ते में भाई ने कहा कि चालाक थी दीदी ,छोटी बहनों को भी कुछ नहीं दे गई |दीदी अमीर थीं और थोड़ी कंजूस भी | अपने पीछे वे अपार संपत्ति छोड़ गईं थीं |उनकी आलमारियाँ रेशमी साड़ियों और जेवरों से भरी थीं |छोटी बहनों ने भी भाई की बात का समर्थन किया |मैं दुख में डूब गई कि इन्हें दीदी के असमय मरने का दुख नहीं |दुख बस इस बात का है कि उनकी सेवा के बाद भी दीदी कुछ सोना –चांदी नहीं दे गईं |दीदी को कहाँ पता था कि वह मर ही जाएंगी फिर आखिरी कुछ महीनों में वे अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठी थीं |किसी को पहचानती नहीं थीं |मुँह में जबरन रखा गया खाना तक नहीं खा पाती थीं |
उस दिन जब छोटी बहन ने भाई को खुश करने के लिए मछली बनाई तो मुझसे न खाया गया |दिन में मृतक भोज और रात में मछली –भोज | रक्त सम्बन्धों के बीच की आत्मीयता,संवेदना ,प्रेम कहाँ गुम होती जा रही है ?
भाई जब भी बहनों के घर आता है ,वे उसे खुश करने के लिए उसका मनचाहा भोजन बनाती हैं |उसे खुश करने के लिए उसकी हाँ में हाँ मिलाती हैं |एक दिन मैंने एक बहन से इसका कारण पूछ लिया तो उसने जवाब दिया कि भाई के आने-जाने से ससुराल में उसकी धाक बनी रहती है |भाई मेरे घर नहीं आता और मुझे इसकी परवाह भी नहीं रहती |भाई किसी का सगा नहीं है |वह तो माँ के साथ भी दुर्व्यवहार करता रहा था |मुझे याद है कि एक बार माँ गिरकर घायल हो गई थीं |उनका चलना –फिरना रूक गया था |उस समय उन्हें शौच कराना बड़ा मुश्किल था |भाभी वाकर लगाकर किसी तरह उन्हें नित्यक्रिया कराती थीं |जब मुझे खबर मिली तो छुट्टियाँ लेकर माँ के पास गई |मुझे देखते ही भाभी ने कहा—अब आप ये सब कराइए|मैंने कहा –जरूर कराउंगी ,वह भी खुशी से |माँ ने नौ बच्चों की गंदगी साफ की तो क्या हम उसका नहीं कर सकते ?
उन दिनों भाई माँ पर बहुत झल्लाता था |उनके सामने तो नहीं पर अपने परिवार के सामने कहता था कि हम तो जीने के लिए खाते हैं पर माँ खाने के लिए जी रही है |माँ पूर्ण स्वस्थ थी |उम्र सत्तर की जरूर हो गई थी पर चमकती रहती थी |पिताजी की मृत्यु तो बच्चों के परिपक्व होने से पहले ही हो गई थी |माँ ने ही अपने नौ बच्चों को संभाला|सबको पढ़ाया-लिखाया ,सबकी शादियाँ कीं |यह सब वह छुई-मुई बनकर तो कर नहीं सकती थी |माँ घर से बाहर निकली ,जोड़-तोड़,काट-कपट सब किया और इतने बड़े परिवार की नैया को मजबूत बनाया ताकि वह संसार –सागर की थपेड़ों को सहकर पार उतर सकें |पर माँ के सभी बच्चों को उनसे शिकायत है |भाइयों को जमीन-जायजाद नाम-भर का होने की और बहनों को मनचाहा पति न मिलने की |माँ की स्थिति परिस्थिति समझने के लिए कोई तैयार नहीं |जेबी तक माँ जीवित रही ,सब पर बोझ बनी रही |तीनों बेटों ने अपनी कमाई से तीन हवेलियाँ बनाईं,पर माँ के लिए किसी के पास जगह नहीं था |घर में जगह मिल भी जाती थी पर बेटों के दिलों में उसके लिए कोई सम्मान-जनक स्थान नहीं था |उसकी रोटी,दवाई का खर्चा तीनों बेटे बारी-बारी से उठाते जरूर थे ,पर तमाम तानों-उलाहनों के साथ |
माँ को पुत्र-मोह जरूरत से ज्यादा था |बेटियों के घर उसका मन नहीं लगता था |मेरे पास तो वह और भी नहीं टिकती थी |हमेशा बेटों-पोतों की चिंता में रहती|फिर भी अपने बुढ़ापे में वह बहुत ही अकेली पड़ गई थी |माँ जीना चाहती थी |रेशमी साड़ी ,कश्मीरी शाल और बढ़िया मोबाइल का उसका सपना था ,जो पूरा नहीं हो पाया,जबकि उसके तीनों बेटे उसके जीवन काल में ही लखपति बन चुके थे |उन्होंने माँ की आँख का आपरेशन नहीं कराया तो माँ छोटी बहन के घर अकेली ही पहुंची और अपने खर्चे पर आपरेशन कराया |माँ के बच्चों को भी लगता था कि माँ के पास बहुत पैसा है और वह इस या बेटा या बेटी को दे देगी |माँ अपने खर्चे के लिए सूद पर पैसा चलाती थी ,वह भी बस काम-भर का ताकि हर बात के लिए बेटों की मुहताजी न रहे|पर उसके पास थोड़ा-बहुत पैसा होना भी उसकी संतानों को खल जाता था |माँ के नाम वही छोटा –सा पुराना घर था,जहां हम-सबका बचपन गुजरा था |उस घर के भी तीनों कमरों पर तीनों बेटों का ताला लटका रहता था |माँ बारामदे को घेरकर बनाई गई छोटी –सी कोठारी में अपना जीवन बीताती थी |बेटों से कभी कोई खर्च मांग लिया तो वे पहले तो एक-दूसरे पर टालते थे फिर माँ को लालच न करने की सलाह के साथ कुछ पैसे दे देते थे | छोटी बहनें भी चालाकी से माँ की सेविंग ले लेती थीं |
माँ तो भागी हुई स्त्री नहीं थी| ,फिर उसके साथ वह सब क्यों हुआ ,जो अब मेरे साथ हो रहा है !