हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग पन्द्रह) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग पन्द्रह)

(भाग पन्द्रह)

आँख के ऑपरेशन के लिए चेन्नई जाना चाहती थी। दो साल पहले एक आँख का ऑपरेशन कराया था, उस पर भी झिल्ली आ गयी है । दूसरी आंख का भी ऑपरेशन जरूरी है। मोतियाबिंद ने आँखों की रोशनी को धुंधला कर दिया है। पहले ऑपरेशन के समय बड़े बेटे ने देखभाल का आश्वासन दिया था, पर ऑपरेशन के ठीक पहले कन्नी काट गया। साफ कह दिया कि मुझे आपकी चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं । उसने सोचा कि कुछ खर्च न करना पड़ जाए, जबकि मैंने पैसों की व्यवस्था कर ली थी, बस कुछ दिन देखभाल की जरूरत थी, जो उसने नहीं की। उसकी बात दिल को इतनी चुभी कि ऑपरेशन के वक्त मेरा ब्लडप्रेशर हाई हो गया और डॉक्टर को इंजेक्शन लगाना पड़ा। 
फिर मैंने दो वर्षों तक उससे कोई बात नहीं की। उसने भी न बात की, न देखने आया। फिर पिता के आगाह करने पर (कि इस तरह संपत्ति हाथ से निकल जाएगी)पोते के बर्थडे के बहाने आया और आने -जाने लगा है। मैंने कोई शिकायत नहीं की। कोई फायदा नहीं था और फिर मेरा रिटायरमेंट भी होने वाला था। सोचा, देखूँ उसके बाद कौन- सा रंग दिखाता है?
अब रिटायर हो गई हूं । प्राइवेट नौकरी में कोई पेंशन नहीं। सिर्फ एक घर और कुछ सेविंग बस यही पूंजी है और भाई -बहनों से लेकर बेटे की भी उसी पर नजर हैं। सभी चाहते हैं कि सब कुछ उनके नाम कर उनके आश्रय में आ जाऊँ और उनके हिसाब से रहूँ । पर मैं जानती हूँ कि उनके घर कुछ दिन बाद ही मेरी क्या स्थिति होगी?भाई -बहन तो खुलकर अपनी मंशा व्यक्त नहीं करते, पर बेटा खुलकर सामने आ गया है। कभी वह घर बेचने की बात करता है, कभी पूरा घर किराए पर देकर अपने साथ किराए के घर में रहने की ताकि उस पैसे से मेरा खर्चा चल सके। जब मुझे ये दोनों ही बातें ठीक नहीं लगीं तो बेटे ने कहा है कि मैं उसके वारिस होने को सुनिश्चित कर दूं तो वह मुझे पांच हजार घर -खर्च के लिए दे सकता है। बाकी बड़े खर्चे मैं अपनी सेविंग से करूं। आंख का ऑपरेशन वह नहीं कराएगा। उसके अपने खर्चे हैं । (सरकारी नौकरी की अच्छी सेलरी और अतिरिक्त इनकम श्रोतों के बावजूद)
मैं चुप हूँ। कोई जवाब देने से पहले आँख का ऑपरेशन करा लेना चाहती हूं। इस बार भी उम्मीद लगा बैठी हूँ कि वह कुछ दिन देखभाल कर ही देगा। पर सेवा का भाव न उसमें है न उसकी पत्नी में। फिर इस समय तो उसकी पत्नी गर्भ से है। भाई -बहन कहते हैं -बेटे को ही सब कुछ दोगी तो वो देखभाल करे । बेटा कहता है -भाई- बहन जिम्मेदारी उठाएं । सभी एक- दूसरे पर टाल रहे हैं, जबकि अभी तक मैं खुद ही अपनी  जिम्मेदारी उठाती रही हूँ । ईश्वर स्वस्थ रखें तो आगे भी उठा लूंगी। बस आंखों का ऑपरेशन सफल हो जाए। 
छोटे बेटे से कुछ ज्यादा ही उम्मीद रखती हूं इसलिए सोचा कि चेन्नई जाकर आँख का ऑपरेशन करा लूँगी। बेटा वहीं एयरफोर्स में है। उसे फोन किया.... व्हाट्सऐप किया पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने बड़े बेटे से उससे बात कर लेने को कहा, क्योंकि वह उससे बात करता रहता है। मैंने उसे बताया कि जाने क्यों वह मेरा फोन ही नहीं उठाता है?तो वह मजे लेकर बोला कि वह मेरे जैसा नहीं कि आपसे बात करे। वह आपसे नाराज रहता है। 
फिर भी मुझे बड़े बेटे से ज्यादा भरोसा उसी पर था। वह मेरा प्रतिरूप जो है। मैंने दुबारा उससे बात करने को कहा तो फिर बड़े बेटे ने कहा-वह आपसे बात नहीं करेगा। पता नहीं आप लोगों के बीच क्या बात है?
मुझे उसकी बात से दुःख हुआ पर विश्वास न टूटा। आज मैंने फिर  बेटे से कहा कि उससे कहो कि मुझे चेन्नई बुला ले तो वह मुझसे नाराज़गी से बोला --आप ही बात कर लीजिए। उसने फोन मिलाकर मुझे थमा दिया। भाई का फोन जानकर छोटे ने फोन उठाया पर मेरे 'हलो' कहते ही फोन काट दिया। उसने मेरी आवाज पहचान ली थी। बात साफ थी कि वह मुझसे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता और न ही कोई जिम्मेदारी लेना चाहता है। बड़ा बेटा मन ही मन बहुत खुश था कि छोटे ने मुझे मेरी औकात दिखा दी। पर जाने क्यों छोटे के इस व्यवहार के पीछे मुझे उसके पिता और बड़े बेटे की कोई जालसाज़ी लग रही है। छोटा मेरी तरह है बड़ा अपने पिता की तरह शायद इसीलिए उसके मन में कुछ ऐसी बातें भर दी गयी हैं कि वह मुझसे इतना ख़फ़ा है। दोनों नहीं चाहते कि वह मुझसे जुड़े क्योंकि वह भी मेंरी तरह न तो किसी से आसानी से जुड़ पाता है न रिश्ता तोड़ पाता है। 

****

अंततः मोह के उलझे धागे टूट ही गए। मैं हर बार ठोकर खाती थी और गलती अपनी ही मानती थी। मैं इस मानवीय स्वभाव को नहीं समझ पाती थी कि ठोकर के उपकरण जान बूझकर मेरे सामने किए जा रहे हैं। मैं सीधी -सरल स्वभाव की स्त्री दुनिया के दांव -पेंच नहीं समझ पाती हूँ। समझती भी हूँ तो देर से, कभी -कभी तो बहुत ही देर से। अपनी उम्र का लंबा हिस्सा इन्हीं सब में गंवा दिया। अपनी तरफ से ही सब कुछ ठीक करने की कोशिशों में लगी रहती हूँ। पर इकतरफा कुछ भी नहीं होता। न पति को मुझसे प्रेम था, न बच्चों को हैं। दोनों ही सारी कमियों, , बुराइयों, गलतियों का ठीकरा मेरे सिर पर फोड़कर मेरे प्रति कोई जिम्मेदारी महसूस करना नहीं  चाहते। उनके मन में मेरे प्रति न सम्मान है न सहानुभूति, न लगाव तो मैं क्यों मरी जाती हूँ उनके लिए!फ़टे दूध को माखन बनाने का सतत उपक्रम! धिक्कार है मुझे!
आखिरकार बेटे का असली चेहरा खुलकर सामने आ गया। वह कुछ दिनों से एक अच्छे और केयरिंग बेटे का मुखौटा लगाए हुए मुझ पर लगातार मानसिक प्रेशर बना रहा था कि मैं अपने घर को उसे सौंप दूं ताकि वह उसे बेंच दें। वह मुझे अपने किराए के उस घर में रहने का ऑफर दे रहा था, जहां सतत उसके पिता, उसकी विमाता और सौतेले भाइयों की उपस्थिति बनी रहती है। वहां वह मुझे किस रूप और स्थिति ने रखेगा, इसकी कल्पना मैं सहज ही कर सकती हूँ। वह मुझे अपने पिता के बदले की आग में जलाकर खत्म करना चाहता है। मेरे आत्मसम्मान को कुचलकर मुझे भिखारिन की स्थिति में देखने की पिता की इच्छा को पूरा करके अपना पितृऋण चुकाना चाहता है। छोटा की मंशा भी उससे अलग नहीं है। वह अलग होता तो मुझसे बात तो करता। अपनी शिकायत ही शेयर करता। वह अपनी जननी से इतना घमंड दिखा रहा है तो वह जन्मभूमि की क्या सेवा करेगा?
नहीं, मुझे खुद को इन सबसे (भावनात्मक रूप से भी )खुद को पूरी तरह दूर कर लेना जरूरी है। मैं अब अपने भीतर की स्त्री को और दुःख नहीं दे सकती। अब न उनकी मुझसे कोई अपेक्षा रहे, न मैं ही उनसे कोई उम्मीद रखूं। सब कुछ खत्म करना ही होगा। यह सोचना ही होगा कि वे पूर्व जन्म की कहानी के पात्र हैं। इस जन्म में मैं अकेली स्त्री हूँ जिसके पास कोई रिश्ते- नाते नहीं हैं। वह सिर्फ ईश्वर की है और ईश्वर ही उसके हैं । 
हाल में हुए बेटे से विवाद को आखिरी विवाद बनना होगा। जब उनसे कोई रिश्ता नहीं, फिर विवाद कैसा?जानती हूँ वे लोग इतनी आसानी से मुझे नहीं छोड़ेंगे। वे मुझे आसान मौत भी नहीं देना चाहेंगे, जैसे आसान जिंदगी नहीं देना चाहते थे। 
आखिरकार मैं उनके लिए आज भी एक भागी हुई स्त्री जो हूँ।