कोट - २९ महेश रौतेला द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

कोट - २९

कोट-२९
सुबह हवाई अड्डे को निकला तो हल्की ठंड थी। कोट पहना था, उसकी जेबों में आवश्यक वस्तुएं रखी। हवाई जहाज ने ठीक समय पर उड़ान भरी। जब बहुत ऊँचाई पकड़ चुका था, बादलों का दूर-दूर तक पता नहीं था। निरभ्र आकाश। सूर्य की किरणें हवाई जहाज के अन्दर तक आ रही थीं। लग रहा था जैसे फोटोन विस्फोट हो रहा था आसपास। जहाज की नन्ही खिड़की से बाहर देखा,कुछ नहीं था दूर-दूर तक,आकाश के सिवाय। साथ बैठी महिला मित्र ने पूछा," ये जहाज रूक क्यों गया?।" मैंने थोड़ी देर सोचा और फिर कहा," ये विमान बालायें चाय नाश्ता दे रही हैं इसलिये रूका है।" उन्होंने सच मान लिया और आराम से बाहर देखने लगी। मैंने फिर कहा," नाश्ते के बाद चलेगा।"मन ही मन मुस्कराया। सापेक्षता का महत्व समझ में आ रहा था। बंगलौर पहुँचने तक उन्होंने फिर प्रश्न दोहराया नहीं। बादलों के पहाड़ दिखने लगे थे। बादलों का हिलना डुलना मन को मोह रहा था।
बंगलौर में उतरा और कार में बैठा । तभी एक लड़की मेरे मन में बैठ गयी।मैंने मना किया लेकिन वह बोली ," मुझे उतरना नहीं है, आपके साथ चलना है।" मैंने कहा," ठीक है। बताओ पिछले चालीस बसंत कैसे बीते?तुम अभी भी युवा लग रही हो।" उसने कहा," आपने समय को स्थिर कर दिया है। वैसे ही जैसे हमारे देवी-देवता कभी प्रौढ़ नहीं होते हैं। अप्सराएं भी प्रौढ़ नहीं होती हैं।आप उस समय में हैं, जहाँ हम बर्षों पहले थे।" सामने एक बगीचा आता है, मन करता है थोड़ी देर वहाँ टहल लूँ। कार से उतरता हूँ और बगीचे में पहुँच जाता हूँ।बगीचा बहुत लम्बाई में है।उसमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बेंच लगी हैं। लड़का-लड़की लगभग हर बेंच में बैठे हैं।लेकिन सभी अनाकर्षक लग रहे हैं,थके-हारे, उत्साहहीन, उबाऊ किस्म के। लग रहा है जैसे समय बीता रहे हैं। मैं सोच रहा हूँ प्यार इतना उबाऊ भी हो सकता है क्या? जबकि जो लोग अकेले घूम रहे हैं उनके चेहरे खिले लग रहे हैं। एक घंटा बिताने के बाद कार में बैठता हूँ। कार चलती है। वह लड़की फिर मन में बैठ जाती है और पूछती है कैसा लगा बगीचे में? मैं थोड़ी देर चुप रहता हूँ फिर कहता हूँ," अच्छा, लेकिन प्यार का अलग रूप देखने को मिला। नैनीताल की अनुभूतियों से परे। वह जीवन्तता नहीं थी। " वैसा ही जैसा भगवान बुद्ध को सब देख कर अनुभूति हुई। साधु के चेहरे पर उन्होंने तेज देखा था। उसने बोला," सब लोग बुद्ध तो नहीं हो सकते हैं?" मेरे पास इस बात का सटीक उत्तर नहीं था। मैंने पूछा तुम मेरे साथ कहाँ तक चलोगी? उसने उत्तर नहीं दिया। वह बोली कुछ लिखो। मैं लिखने लगा -
" मैंने प्यार किया या नहीं
पता नहीं,
जब चिड़िया उड़ रही थी
झील डगमगा रही थी
जंगल में शान्ति थी
अंधेरा घिरा था
बादल गरज रहे थे
तब मैंने प्यार किया था या नहीं
पता नहीं।
जब किसी से बात की थी
किसी से बहस की थी
किसी को देखा था
किसी को अनदेखा किया था
किसी को चाहा था
तब मैंने प्यार किया था या नहीं
पता नहीं।
बर्षों बाद जब मुड़ा था पीछे
देखा था इतिहास
पलटे थे पन्ने
पाया था अपने को मूक दर्शक
तो फिर एक बार सोचा, मैंने प्यार किया था या नहीं।"
उसने लिखा पढ़ा और कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैंने आँखें मूँद लीं और वह मुझे कहानी सुनाने लगी। एक राजा था। मैंने उसे टोका और कहा तुम राजा भर्तृहरि की कहानी तो नहीं कह रही हो जिसमें एक अमरफल बहुतों के हाथ में जाता है।वह बोली नहीं। सुनो, एक राजा था। एक बार वह जंगल में गया और कुछ दिनों बाद जंगल गायब हो गया। फिर वह नदी पर गया, कुछ दिनों बाद नदी खो गयी। उसके बाद नगर में गया तो नगर गायब हो गया। झील पर गया तो झील खो गयी। मंदिर में गया तो मंदिर लुप्त हो गया।जिस सड़क पर चलता है, वह सड़क उसे दोबारा नहीं मिलती है। वह आश्चर्य में डूब गया कि ऐसा क्यों हो रहा है।वह ज्योतिषी के पास जाता है और ज्योतिषी उसे कहता है कि," राजन्, इन सब बातों का उत्तर मेरे पास नहीं है,आपके पास ही इनका उत्तर है। "

**महेश रौतेला