कोट - ७ महेश रौतेला द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कोट - ७

कोट भाग -७

"मैंने कुछ नहीं कहा
तुमने कुछ नहीं कहा,
पर प्यार हो गया।"
मैं पत्र लिखता था और उसे कोट की जेब में रख देता था कि कल सुष्मिता को दे दूँगा। लेकिन जब उससे मिलता था तो सोचने लगता था अभी नहीं कल दूँगा। पत्र को क्वार्टर में आकर फिर संपादित करता और उसे आधा कर देता और कोट की जेब में रख देता। इस बीच गीता बीच में आ जाती। गीता को समझने का प्रयत्न करता उसकी बातों का अनुसरण करने लगता और पंद्रह-बीस दिन अच्छी पढ़ायी कर लेता। फिर कुछ दिन बाद गीता का ज्ञान भूल जाता और अयारपाटा से नीचे उतर नैना देवी के मन्दिर आ जाता। सभी देवी-देवताओं और भगवान को प्रणाम कर सुष्मिता से मिलने चल पड़ता था। उसके आवास से पहले एक मोड़ पड़ता था वहाँ पर आकर मैं रूक जाता। और सोचता," मुझे उससे कहना क्या है?" कोई उत्तर जब मन में नहीं आता तो वहाँ से नैनादेवी मन्दिर की ओर लौट जाता। नैनादेवी के मन्दिर में थोड़ी देर बैठ फिर उन्हें प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद की कामना करता। आशीर्वाद मिला या नहीं यह तो पता नहीं चलता था लेकिन कदम पुनः ठंडी सड़क पर तेज-तेज चलने लगते। मोड़ आते ही हृदय की धड़कन बढ़ने लगती और चाल में धीमापन आ जाता था। फिर एक झटके से मोड़ पार कर जाता था। बैठक का परिणाम वही होता जो सोचता था-
"मैंने कुछ नहीं कहा
तुमने कुछ नहीं कहा,
पर प्यार हो गया।"
भेंट से मन थोड़ा आश्वस्त हो जाता था और संतुष्टि का भाव आ जाता था। जब क्वार्टर में पहुँचता तो गीता दिख जाती।और मैं अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयत्न करने लगता। मैंने बचपन में एक कहानी सुनी थी कि राजा शान्तनु जब धीवर कन्या सत्यवती से मिले थे तो उसके सौन्दर्य में खो गये थे। सत्यवती ने जो शर्तें उनके सामने रखीं उन्हें वे मान नहीं पा रहे थे। तो बुझे-बुझे मन से राजमहल लौट आये। और बिमार पड़ गये तथा राजकाज में रुचि लेना छोड़ दिया। उनके पुत्र भीष्म के प्रणों से उनकी बिमारी का उपचार हो सका था।
बीच-बीच में मैं पत्र को संपादित करता रहता था और इस क्रम में वह छोटा होता चला गया था। जाड़ों में कोट की जेब में और गर्मी में पेंट की जेब में रख कर वह मुझे अव्यक्त उष्मा प्रदान करता रहता था। गीता मेरा मार्ग दर्शन करती रहती थी।
एक समय ऐसा भी आया कि पत्र संपादित करते-करते मात्र एक वाक्य में बदल गया। यह वाक्य वही था जो लगभग चौवालीस साल बाद मेरी चार साल की नातिन घर से बाहर जाते समय मुझे बोलती है," बाबू जी, मैं तुमसे प्यार करती हूँ।" फिर शीघ्रता से बोलती है," ये नहीं बोलना चाहिए, ना।" उसकी माँ बोलती है," बाबू जी को बोल सकते हैं।" तो वह कहती है," ओह, बाबू जी को बोल सकते हैं!" वह फिर बोलती है," बाबू जी, मैं तुमसे प्यार करती हूँ।" मैं कहता हूँ," हाँ, मैं भी तुमसे बहुत प्यार करता हूँ।" वह हाथ हिलाते हुए बाहर चली जाती है और मैं दूर अतीत में खो जाता हूँ।

--(क्रमशः)