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कोट - ४

कोट-४
कोट लिये मुझे अपने बचपन के कोट की याद आ गयी। हमारे गाँव में जाड़ों में बहुत ठंड होती थी। कभी-कभी बर्फ भी गिरती थी। प्राथमिक विद्यालय में ठंड के दिनों में कोट पहन कर जाते थे। मेरे बड़े भाई मुझसे लगभग चार साल बड़े थे। हम आपस में लड़ाई झगड़ा करते रहते थे। पिटाई मेरी ही होती थी लेकिन मैदान छोड़ने की आदत मुझे नहीं थी। एकबार ईजा ( माँ) ने हमारे कोट साथ-साथ धोकर सुखाने डाल दिये। दोनों कोट एक ही कपड़े के बने थे। शाम को मुझे कपड़े उठा कर लाने को कहा गया। मैं कपड़े उठा कर लाया और भाई साहब का कोट नीचे खेत में फेंक आया। सुबह स्कूल जाना था। मैंने कोट पहना। वह मेरे शरीर पर बहुत ढीला हो रहा था,बांहें लम्बी। और घुटनों तक आ रहा था। मैं असमंजस में पड़ गया कि रातोंरात यह चमत्कार कैसे हो गया। पिताजी ने कहा," यह कोट तेरा नहीं है,तेरे बड़े भाई का है।अन्दर से अपना कोट ला। इसे खोल।" मैंने कोट खोला और कोट लेने खेत में गया। कोट रात में ओस से पूरा भीग चुका था। उसका स्थिति मेरे जैसी हो गयी थी,मुरझाया हुआ, शीतल,शान्त, प्राश्चित करता हुआ। कोट मानो कह रहा हो ,"मालिक, तुमने मेरी क्या गत कर दी ठंडी रात में! मैं तुम्हारे शरीर को गुनगुनी उष्मा देता था। तुम्हारे व्यक्तित्व में मिलजुल जाता था। तुम कभी-कभी शिगांड़ भी मेरी बांहों में पोछ देते थे, लेकिन मैंने कभी कोई शिकायत नहीं की। मेरी जेबें तुम्हारी हथेलियों को जब-तब गर्मी देती थीं। इतना निर्दयी तुम क्यों हो गये! तुम तो भोलेभाले थे। ये ईर्ष्या का बीज तुममें कैसे पनप गया!" फिर सबको बताया कि भाई साहब का कोट समझ कर मैंने दूसरा कोट खेत में फेंका था। लेकिन वास्तव में मैं अपना ही कोट फेंक आया था। सब बात समझ कर, सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गये।
फेसबुक देखता हूँ वह याद दिला रहा है जो २०१६ में मैंने लिखा था-
"आज कादम्बिनी खरीद कर लाया। यह नाम पत्रिका को महादेवी वर्मा ने दिया था।महादेवी वर्मा को कुमायूँ विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षान्त समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था।मैं तब धनबाद में था।उनकी कविता की एक पंक्ति याद आ रही है-
"मैं नीर भरी दुख की बदली..."
हिन्दी फिल्म जगत हमारे जीवन का एक हिस्सा बन चुका है।तभी तो कादम्बिनी के कवर पेज पर लिखा है " मुसाफिर हूँ यारो...।" पर्यटन पर अधिक लिखा गया है।
संपादक लिखते हैं," पता नहीं, महर्षि वेद व्यास का मनाली से रिश्ता कितना वास्तविक है... पर महाकाव्य का कुछ रिश्ता तो इस सदानीरा से जरूर है। आगे, कहते हैं कि गुरु देव रवींद्रनाथ टैगोर ने रामगढ़, नैनीताल के शान्त वातावरण में 'गीतांजलि' लिखी थी।"
कुशीनगर को भी अंक में स्थान दिया गया है जहाँ भगवान बुद्ध ने अन्तिम बार अपने मंतव्य पूरे किये थे।
बुद्ध कहते हैं," जहाँ आग है उसी के पास पानी का झरना है।.. अशांति के काँटों भरे जंगल में ही शांति की चिड़िया का घोंसला है। दूसरा रास्ता भर बता सकता है।उद्यम स्वयं ही करना है। "
मैं कोट को देखता हूँ उससे मुझे शान्ति और प्यार का अद्भुत वातायन मिल रहा है।

* महेश रौतेला

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