कोट - ५ महेश रौतेला द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

कोट - ५

कोट-५

कोट लेकर में धीरे-धीरे झील के किनारे पहुँच गया। स्थान वही था जहाँ हम दो दोस्त विद्यार्थी जीवन में प्रायः खड़े होते थे। जहाँ हम मनुष्य की परिकल्पनाओं से लेकर ईश्वर की सृष्टि तक की बातें करते थे। समय को जाना था वह चला गया और आने वाले समय की आहट हमेशा बनी रहती है। मेरे दोस्त के बाल कुछ सफेदी लिये थे। वह अक्सर कहा करता था, इससे आकर्षण कम होता है। वहाँ तीन लड़कियां रैस्टोरेंट में प्रायः दिखती थीं। उसमें से एक हमारी कक्षा में पढ़ती थी। दो कला संकाय की थीं। दृष्टि प्रायः उस ओर जाती थी। वह मुझे अच्छी लगती थी। कम बोलती थी। प्रायः गम्भीरता लिये रहती थी। यह मेरा भ्रम भी हो सकता है क्योंकि कभी-कभी हम किसी का आभासी व्यक्तित्व भी बना लेते हैं। रेस्टोरेंट और हमारे बीच दूरी अधिक होने से एक दूसरे को देखने का आभास मात्र होता था। हमारे पास इतने पैसे नहीं होते थे कि रेस्टोरेंट में जाकर जलपान करें । अतः झील से बहती ठंडी हवा से ही संतुष्ट हो लेते थे। बगल में रिंक( स्केटिंग) हाँल था। कभी-कभी स्केटिंग देख लेते थे। एक बार वहाँ बैठ कर कवि सम्मेलन भी देखा था। एक दिन शाम को हम रेस्टोरेंट में गये और वे तीनों वहाँ बैठी थीं।हमारी जेबें लगभग खाली थीं। हम पास के गोल मेज पर बैठ गये। वह मुझे देख रही थी और मैं उसे। इतने में पानी का गिलास मेरे कोट में गिर गया और हम दोनों उठकर बाहर आ गये। थोड़ी देर बाद वे भी बाहर निकले।उसने झट से पीछे देखा और मुस्करा कर आगे बढ़ गयी। मुझे लगा कोई तारा गिरा और प्रकाश के साथ अस्त हो गया। उस समय प्यार व्यक्त करने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती थी। दिख जाना ही मन को संतुष्ट कर देता था। अनुपस्थिति विचलित करने वाली हुआ करती थी।
नैनीताल में हुये प्यार और नैनीताल से हुये प्यार को समेटने के लिये मन में विचार उमड़े- घुमड़ने लगे और लिखने बैठता हूँ-

"प्यार कब शान्ति बन गया
पता ही नहीं चला,
प्यार की सब संवेदनाएं
कब ढीली हो गयीं
पता ही नहीं चला!

शब्दों का भार
कब समाप्त हुआ
पता ही नहीं चला।

कब प्यार, बड़ा हो गया
कब फूलों सा झड़ गया,
कब बोलना भारमुक्त हो गया
पता ही नहीं चला!

राहों की बनावट कब सरल हुयी
आना-जाना कब आदत बन गयी,
प्यार कब शान्ति में बदल गया
पता ही नहीं चला!"

इस बीच मुझे रूसी लेखक चेखोव की कहानी याद आ गयी कि," कैसे एक प्रेम पत्र नायक के नीरस जीवन में उत्साह का अद्भुत संचार कर देता है। वैसे वह प्रेम पत्र उसकी पत्नी द्वारा ही लिखा होता है,पर अनजान नाम से।और डाक से आता है।नायक बर्फीली पहाड़ियों में उसे ढूंढने निकल पड़ता है।---। "
मेरी कल्पना में एक चित्र उभर आता है। और कक्षा में एक वाक्य में हुयी बातें अनमोल और स्नेहसिक्त लगती हैं। आखिर जीवन के लिये चाहिए लोग, गाँव,शहर,परिवार,नदी,पहाड़, जंगल,जानवर,आकाश, समुद्र, नक्षत्र,खेत,खलिहान, हवा,पानी,अन्न आदि और उसमें बहुमूल्य प्यार का तड़का। तभी झील से हवा का एक तेज झोंका आता है और मैं कोट को कस कर पकड़ लेता हूँ।

* महेश रौतेला

( क्रमशः)