गालियों का प्रयोग क्या सही हैं? Rudra S. Sharma द्वारा पत्र में हिंदी पीडीएफ

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गालियों का प्रयोग क्या सही हैं?

अपमान कर्ता शब्दों के प्रयोग, कलंक या निंदा की बात अर्थात् अपशब्दों यानी गालियों का प्रयोग क्या सही हैं?

जो जैसा हैं उसे वैसा ही कहना अर्थात् ही सत्य कहना होता हैं और जिसकी जो जैसा उसे ठीक वैसा कहनें में निष्ठा होती हैं वही सत्यवादी कथनकार सत्यनिष्ठ अर्थात् ईमानदार हैं; यही कारण हैं कि हर धर्म यथा अर्थों के कथन को बड़ा और पर्याप्त महत्व देता हैं।

यदि कोई ऐसा कृत्य करता हैं जो कि स्पष्ट अनुचित या अशिष्ट हैं तो उस जैसों के लियें शब्द भी अनुचित या अशिष्ट ही होने के परिणाम से उसे अशिष्ट कहनें में परहेज़ अनुचित हैं क्योंकि ऐसा करना यथार्थ कथन से समझौतें वश सत्य निष्ठा से परहेज़ हैं, बेइमानी हैं; यह हराम अर्थात् पाप कर्म हैं अतः यथार्थ अर्थात् सत्य के प्रति निष्ठा वश यथार्थ कहनें से संकोच नहीं करना चाहियें पर किसी नें अशिष्ट या हर प्रकार से अनुचित कृत्य नहीं किया हों जिससें कि वह अशिष्ट शब्दों के योग्य नहीं हैं फिर भी उसे गालियाँ देना बेइमानी, पाप अर्थात् हराम का काम हैं अतः इससें परहेज़ में संकोच न करना अशिष्टता हैं; अनुचित्ता हैं।

उदाहरण के लियें..

ईश्वर हमारें कुकर्मों के भोगन में स्वयं पूर्ण संवेदनशील होकर अर्थात् उसे जितनी पीड़ा हैं उतनी ही पीड़ा में होकर सहभागिता दें सकतें हैं पर जिसके कर्म हैं उसी को उनके फल का भाजन करना पड़ता हैं यहाँ तक कि ईश्वर स्वयं भी अपनें कर्मों की फल प्राप्ति के लियें बाध्य अतः कर्म बंधनों से मुक्त नहीं यदि वह कर्म चक्र में जाने या अनजानें कर्म करके सहभागिता देते हैं तों..! अतः ऐसे में उस ईश्वर के असहाय होनें पर भी उसे गालियाँ देना, अति तब तब वह भी माँ-बहन जैसी.. ऐसी स्तिथि में जब वह भी तुम्हारें ही समान करुणा वश पीड़ा का भाजन कर रहा हैं; ऐसे वक्त पर अंजाने हो या जान-समझ कर गाली देना अर्थात् अनुचितता, महापाप, हरामी को अंजाम देना हैं।

इसके विपरीत ऐसा कोई जिसनें सभी से यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कह दिया कि अब में ईश्वर के ध्यान में जा रहा हूँ; मेरी पूर्ण चेतना जब तक मैं बाहर न आऊ तब तक वह ईश्वरीय इच्छा के अधिकार क्षेत्र में आनें से मेरा ध्यान से बाहर आना मेरी नहीं अपितु उसकी इच्छा पर पूर्ण निर्भर होने से उसी की इच्छा हैं अतः सब कुछ ही अस्त व्यस्त ही क्यों न हो जायें साधना में विघ्न मत करना; क्या पता उसकी इच्छा से तुम्हारें अधिक्रमण की चाह उसे अबर्दास्त हो जायें और वह अवचेतनत: या बेहोशी में क्योंकि मेरा होश तो उसके नियंत्रण में हैं; तुम्हारें जाने से अज्ञान में कियें कृत्य के परिणामस्वरूप दुःख दात्री पीड़ा का कारण नहीं बना दें।

ऐसे किसी के ईश्वर सुमिरन में यदि कोई इस कदर विघ्न दें कि ईश्वर के पास उसे अपने ध्यान से मुक्ति देने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं बचें और वह न चाहतें हुयें भी उसके स्मरण से अपने विरह को स्वीकार करें और उसके स्मरण से बाहर का रास्ता दें-दें तो यदि उसके न चाहते हुयें भी ईश्वर अशिष्ट कर्म करनें वालें यानी पाप कर्म कर्ता उन लोगो को उस साधक द्वारा कहनें को विवश कर दें तो ईश्वर नें यथार्थ का ही तो कथन करवाया; काम हराम अर्थात् पाप का किया जिसनें उसे हरामी या पापी ही तो कहलवाया जो कि ठीक था अतः ऐसे वक्त पर जिन सभी नें अशिष्ट कर्म कियें उन्हें अशिष्ट कहना या गाली देना बिल्कुल अनुचित्ता नहीं।

अपशब्द कहलवाना तो बहुत छोटी बात हैं; जो ईश्वरीय साधना को अपनी चेतना समर्पित कियें उनके द्वारा ईश्वर नें अवचेतनत: भलें ही वह कितने ही निकट शारीरिक संबंधी हों सभी साधना समर्पितो का उनके विघ्न कर्ता संबंधितो से ईश्वर नें त्याग ही करवा दिया अंततः जो सभी से सबसे ज्यादा संबंधित हैं; सभी का पिता, माता, सखा..! उससें जो उसकी संतान या सखा का जाने या अनजानें विरह करवाना चाहें वह ऐसा चाहनें वालों के कितने ही शरीर के निकट संबंधी हों विरह कर्म फल देने के बहानें पूर्ण अधिकार से करवायेगा। उसनें प्रह्लाद से पिता का त्याग करवा दिया, विभीषण से भाई, भरत से माता कैकयी का, बलि से अपने गुरु का त्याग और ब्रज की स्त्रियों से अपने पतियों का तक परित्याग करवानें में संकोच नहीं किया अतः सभी शरीर से संबंधित सावधान..! आपकी ईश्वर के अपनों से उनके अपनों की विरह करवानें की यानी उसके मित्रों या उसकी अपनी संतानों से ध्यान हटवानें की कुचेष्ठा बहुत महंगी पड़ सकती हैं; यह और तो कुछ नहीं अपितु आपके अपनो के आप पर रह रहें ध्यान को हटवा सकती हैं और इसके विपरीत यदि ईश्वरीय ध्यान साधना में सहयोग किया तो आपको अपने प्रियजनों से कोई पृथक नहीं कर सकता क्योंकि.. ईश्वर सदैव आपके और उनके मध्य अटूट कड़ी की तरह होतें हैं जो कि हर उस सर्वव्यापी उससें संबंधित से जुड़ी हुयी हैं और वही कड़ी हर उससें संबंधित को भी एक दूसरें से जोड़े हुयें हैं पर अज्ञानता वश भ्रमित जीव-निर्जीव जानें या अंजाने उनके और उनके संबंधियों के मध्य की उस ईश्वर रूपी कड़ी तो तोड़ने में इस भय से कुचेष्ठारत रहतें हैं जिससें न चाहतें हुयें भी बहुत से यथा आधारों पर ईश्वर को उन कुचेष्ठा कर्ताओं को उनके संबंधियों से पृथक करना पड़ता हैं अतः यदि कुचेष्ठा नहीं होंगी तो ईश्वर उन्हें प्रथक करना तो दूर वह तो उन्हें जोड़ने वाली कड़ी बन बैठते हैं।

ईश्वर पर सदैव अटूट विश्वास रखियें उससें संबंधित सभी वह ही हैं अर्थात् हर आकार यानी सभी जो हैं वह ही हैं; यहाँ तक कि जो नहीं यानी शून्य वह तो मूलतः वह ही हैं तो वह सभी में से किसी से भी और किसी को भी क्यों प्रथक होना या करना चाहेंगा; उसके लियें सभी की खुदसे और सभी की एक दूजें से पृथकता अबर्दास्त हैं। वह सभी से समान प्रेम करता हैं; सभी के लियें सर्वाधिक फिक्रमंद हैं; उसे जानो तो सही; स्वतः ही सब कुछ उस पर छोड़ दोंगे क्योंकि वह सामान्य सी बात हैं कि यथा आधारों पर पूर्णतः इस योग्य हैं पर सामान्य सी बात को ज़ोर देकर यदि किसी के भी द्वारा कहना पड़ जायें तो इससें अर्थ हैं कि उस बात को जानतें सभी हैं पर समझतें नहीं; जितना होना चाहियें उतना उस पर विश्वास नहीं रखतें अतः विश्वास रखें..!

समय - प्रातः १० : ५२
दिनांक - २६ : १० : २२

- © रुद्र एस. शर्मा ( Asli RSS )