श्राप एक रहस्य - 18 Deva Sonkar द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

श्राप एक रहस्य - 18

"मेरी डिलीवरी के दिन नज़दीक आ रहे थे, और इसलिए मुझे मेरी मां के घर जाना पड़ा। मेरे पति यानी सुब्रोती भी मेरे साथ ही थे। मेरी मां का घर यहां, मतलब असम में ही था । मैं मेरी मां की इकलौती संतान थी। गर्भावस्था के आख़िरी दिनों में मेरी मां ने ही मेरा ख़्याल रखा। और एक रात मुझे प्रसव पीड़ा शुरू हुई। संयोग से उस दिन मां घर के लिए राशन लाने शहर गई थी, और तेज़ बारिश की वजह से उन्हें शहर में ही उनकी बहन के घर पर रुकना पड़ा।

देर रात मुझे दर्द का आभास हुआ तो मैंने सुब्रतो को पास के ही एक दाई मां को बुला लाने के लिए भेजा। इधर उनके जाते ही मेरी प्राची इस दुनियां में आ गई। तमाम पूजा पाठ, तमाम ढोंगी बाबाओं की भविष्यवाणियों को झुठलाकर वो एक लड़की के रूप में आयी थी। उसके पिता के अहंकार को, अंधविश्वास में डूबी आंखों को खोलने मेरी प्राची आयी थी।

मैं दर्द से तड़प रही थी, अभी तो प्राची भी मुझसे गर्भनाल के जरिए जुड़ी हुई थी। तभी उसके पिता आए। वो दाई मां को लाने गए आज, और उन्होंने कहा था वे बस कुछ देर में आ रही। उन्होंने सुब्रतो को गर्म पानी कर के रखने को कहकर वापस घर भेज दिया था।

लेकिन घर आकर उन्होंने जो देखा वो उनकी सोच से परे था। उन्हें पूरा यकीन था कि इस बार उनको बेटा ही होगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं था। मैंने देखा था एक अजीब सा पागलपन उनमें उतर आया था। जैसे उनके दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया हो। मैं तो डर से थर थर कांप रही थी। प्राची को सीने से दबाकर मैं बस ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि किसी तरह सुब्रतो दास को बुद्धि दे और वे अपनी बेटी को स्वीकार ले।

लेकिन उन्होंने उस दिन जो किया उसकी मैंने कभी कल्पना नहीं की थी, पहले तो वे ना जाने क्या बड़बड़ाते हुए घर में रखे छोटे से मंदिर के समस्त देवी देवताओं की तस्वीरों को उठाकर पटकने लगे। वे इतने गुस्से में थे की उनके आवाज़ में एक गुर्राहट महसूस कर पा रही थी मैं।

लेकिन फिर ना जाने उन्हे क्या सूझी, वे रसोई से एक हसुआ उठा लाये। हसुआ जिससे घास काटी जाती है। और उस हसुए से उन्होंने मुझपर कई वार किये। वे बड़बड़ा रहे थे आज ही वे मुझे और अभी अभी जन्मी बच्ची को जान से मार देंगे। मैं वैसे भी दर्द में थी, ऊपर से चोटों की वजह से मैं अपने बचाव में सिवाएँ चिल्लाने के और कुछ नहीं कर पा रही थी। मैं बस अपने भगवान को याद कर रही थी। लेकिन तभी कुछ बिल्कुल अलग हुआ। मैंने ईश्वर को याद किया लेकिन इसके विपरीत एक दूसरी ही शक्ति ने मेरी मदद की उस रात। मैंने देखा मेरे बक्से में से एक गुड़िया निकली, वहीं गुड़िया जिसे मैंने भावनाओ से जुड़कर उसे संभाल कर रखा था। ये वहीं गुड़िया थी जिसे मैंने बालो को इकठ्ठा कर बनाया था, नहीं दरसल वो अपने आप ही बन गयी थी। वहीं गुड़िया बक्से में से बाहर निकल आयी थी। गहरी रात, झमाझम बारिश, और गर्भनाल से जुड़ी हुई बच्ची जो लगातार रो रही थी, साथ ही शरीर के असहनीय दर्द। मैं ज़्यादा देर तक होश में नहीं रह सकी और मारे आतंक और दर्द के मैं बेहोश हो गयी।

मेरी नींद फिर सुबह ही खुली थी। सामने मां मेरी छोटी सी प्राची को लिए बैठी थी, और दाई मां भी मेरे जागने का इंतजार कर रही थी। सब लोग खुसर फूसर कर रहे थे की सुब्रोतो दास मेरी दुबारा से बेटी होने की वजह मुझे चोटिल कर यहाँ से भाग गये है। दाई जब मेरे पास आयी थी तब तक मैं बेहोश हो गयी थी और सुब्रोतो दास अगल बगल कहीं नहीं थे। इसी से सब अंदाजा लगा रहे थे की वो भाग गये है।

लेकिन वो तो हमे ही मारने को आतुर हो गये थे। मैंने झट से अपने उस बक्से को खोलकर देखा जिसमे वो बालों वाली गुड़िया थी, तो देखा वो वहीं पड़ी थी। फिर क्या कल रात जो मैंने देखा वो मेरा भ्रम था। लेकिन जब मैंने गौर से गुड़िया को देखा तो उसमें खुन लगा था। इसका मतलब गुड़िया के रूप में मेरी प्रज्ञा यहाँ आयी थी और उसने ही मेरी और अपनी बहन की जान बचाई थी।


मुझे उम्मीद थी की जल्द ही सुब्रोतो की लाश कहीं से पुलिस को मिलेगी और सबका भ्रम टूटेगा की वे जिंदा है। लेकिन ना कभी उनकी लाश मिली ना वे कभी लौटकर आये। मैंने भी उस रात की गुड़िया वाली बात किसी को नहीं बताई। लेकिन उस गुड़िया को मैं हमेशा अपने पास संभाल कर रखती हुँ, और मेरे हर बुरे वक़्त में गुड़िया हमेशा मेरी मदद करती रही है। धीरे धीरे फ़िर प्राची बड़ी हुई और अब तो वो आगे की पढ़ाई के लिए बाहर रहकर ही पढ़ाई कर रही है। बीते जीवन से बाहर निकल गयी हुँ अब, लेकिन प्रज्ञा की यादों से बाहर आना आज भी नामुमकिन है। सबकुछ बेहद खुसबूरत होता अगर मेरे पति के सर पर बेटा पाने का भुत न सवार होता। लेकिन उनकी ये मानसिकता उन्हें उनके परिवार से ही मिली थी। सुना था मेरे ससुराल वाले भी बेटियों को पसंद नहीं करते थे।

खैर मैं ख़ुश हुँ अपनी प्राची के साथ। लेकिन प्रज्ञा का यूं चले जाना मुझे भीतर से खोखलेपन का अहसास करवाता है, काश मैं अपनी बेटियों को के लिए खड़ी हो पाती। लेकिन देखो ना जाने कैसी ही विवश्ता थी मेरी उस वक़्त, मैं अपने ही हाथों से अपनी प्रज्ञा को जहर देती थी। कोई मां ऐसी होती होगी..? अरे माएं तो दुनियां की सबसे बड़ी योद्धा होती है। और मैं अपने बच्चे की सबसे बड़ी दुश्मन बन गयी। इसके वाबजूद उसने मुझे बचाया उस राक्षस से जो उसका पिता था।

प्राची के जन्म के बाद उस घर में दुबारा जाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मैं मां के साथ ही रहने लगी। अब तो मां भी जा चुकी है। बस मैं और प्राची ही रह गयी हु। लेकिन मैं जाउंगी जरूर वहाँ। एक बार प्राची की शादी हो जाएँ फ़िर मैं वहीं जाकर रहूंगी, अपनी प्रज्ञा के आस पास होने के अहसासों के साथ।

लिली :- " मैं आपको लेने ही आयी हुँ, चलिए आपकी प्रज्ञा आपका इंतजार कर रही है वहाँ। वो वहीं कैद है, आपका इंतज़ार कर रही है। और हां उसकी गुड़िया भी जरूर लेते चलिएगा।"

इतना सुनना था की नीलिमा जी जैसे सुखकर काठ बन गयी। उनको यकीन नहीं हुआ की एक लेखिका बनकर उनके पास आयी वो लड़की जो उनसे बस उनकी जीवनी पूछ रही थी, एक कहानी लिखने के लिए वो तो असल में उनकी मरी हुई बेटी का पैगाम लेकर आयी थी।

लेकिन वो गुड़िया वो....वो तो कहीं खो गयी है...अब..?



क्रमश :_Deva sonkar