कहानी बीस वर्ष पीछे :-
क्या ये उम्र मौत के लिए थी..? मतलब वो महज़ सात या आठ वर्ष की ही तो थी। नाज़ुक सी उम्र, अभी तो ढंग से जीना भी शुरू नहीं किया था उसने। लेकिन वो मर गयी...ईश्वर की असीम भक्ति में डूबा उसका परिवार उसे बचाने तक नहीं आया। क्या वो पूजा उसकी जिंदगी से भी ज़्यादा अनमोल था..?
एक मासूम सी रूह मौत के बाद भी ईश्वर से बेइंतहा नफ़रत करने लगी थी। लाश तो जला दी गयी थी उसकी, लेकिन उसकी रूह जुड़ी थी उसके ही बालों से जो कुएं की सीढ़ियों में कहीं फंसी रह गयी थी। उसकी आत्मा उसकी ही गुड़िया के भीतर कब्ज़ा जमा चुकी थी।
अभी उसकी मौत को साल भर भी तो नहीं बीता था। जब एक दोपहर उसके पिता उसकी माँ पर बरस पड़े थे। "...तोमाये की होएछे नीलिमा..? (तुम्हें क्या हो गया है, नीलिमा...?) जो हुआ अब भूल जाओ उसे। देखो तुम धीरे धीरे पागल होती जा रही हो। इधर आओ देखो ये क्या किया है तुमने...दाल बनाई हो या पता नहीं क्या..? एक कटोरी दाल के अंदर से कितने बाल निकल कर आ रहे है, पूरी दाल ना जाने कैसी होगी..? छि मुझे नहीं खानी।"
इतना बोलकर सुब्रोतो दास यानी प्रज्ञा के पिता ( प्रज्ञा जो एक दिन गुड़िया से खेलते वक़्त कुएं में डूबकर मर गई थी। ) वे अधूरा ही खाना छोड़कर उठ गए। दनदनाते हुए वो सीढ़ियों से नीचे उतरे और मेन गेट से बाहर निकल गए। नीलिमा अभी भी ख़ामोश थी। उसकी आँखों में गहरी शून्यता थी, आँखें बोझिल ऐसी जैसे कई रातों से वो सोई भी नहीं थी।
ख़ामोशी से धीरे धीरे वो अपने कमरे की तरफ़ जाने लगी। कमरे में रखें लकड़ी के शोकेस के लंबे आईने के आगे खड़ी हो गयी। उसके आँखों से बग़ैर कोई आवाज़ किये,बग़ैर चेहरे में कोई भाव लिए टप टप आँसू टपक रहे थे। बिल्कुल आहिस्ते से उसने अपने सर पर बंधा दुपट्टा हटाया जिसे बड़ी सावधानी से उसने साड़ी के आँचल से घूंघट डालकर संभाल रखा था।
दुपट्टा के हटाते ही नीलिमा चिल्ला चिल्ला कर रोने लगी। आईने में नीलिमा का प्रतिबिंब साफ़ दिखाई पड़ रहा था। उसके सर के अधिकतर बाल बिल्कुल ख़त्म थे, कहीं थोड़े बहुत लेकिन बिल्कुल छोटे बचे थे, तो ज़्यादातर गंजापन ही नज़र आ रहा था। अब वो किस मुँह से अपने पति को कहती "हां अपना ये रुप उसने ख़ुद ही बनाया है"। जिसे वो महीनों से अपने ही पति से छुपाती आ रही है। लेकिन फ़िर सुब्रोतो दास की दाल की कटोरी में बेहिसाब लंबे बाल कहाँ से आये...? पूरे बंगले में इन दोनों के अलावे तो कोई नहीं रहता।
कहानी वर्तमान में :-
कुणाल अब तीन महीने का हो चला था। उसकी निश्छल मुस्कान और थोड़ी थोड़ी शैतानियों से बर्मन विल्ला गुलज़ार रहता था। सकुंतला देवी की तो पूरी दिनचर्या ही कुणाल के इर्द गिर्द मंडराने लगी थी। इतने सालों बाद अपनी कोख से इस नाज़ुक सी चीज़ को पाकर वो तो जैसे ख़ुद को ही भूल गयी थी। वो जैसे भूल ही गयी थी, सामान्य और असमान्यता के बीच का फ़र्क। उसका बच्चा कभी रोता नहीं, ना भूख से ना नींद से ना "चोट" से। लेकिन इसका भयानक अहसास सकुंतला जी को जल्द ही महसूस हुआ और ये पहला झटका उनके दिमाग़ पर एक ज़ोरदार असर कर गया। हुआ यूं कि कुणाल के मालिश के लिए रखी दाई आज आ नहीं सकीं थी, मज़बूरन उसकी जगह आज बर्तन मांजने वाली काकी को ये काम सौंपा गया। वे भी उम्र से काफ़ी परिपक्व लगती थी।
बच्चे की मालिश कर उसे पालने में सुला बर्तन धोने वाली काकी आज समय से पहले ही छुट्टी कर चली गयी। सकुंतला जी ने देखा कुणाल पालने में सो गया था, तो वे बेफ़िक्र होकर अपने दूसरे कामों में लग गयी। घँटे भर बाद जब सकुंतला जी ने कुणाल को गोद में लिया तो उनके होश ही उड़ गए। कुणाल के दाएं हाथ में सूजन हो गया था। हाथ आकार से चार गुना अधिक फूल गया था। लेकिन उबकाई लेता कुणाल माँ को देख मुस्कुरा रहा था। ज़ाहिर सी बात नज़र आ रही थी, कुणाल की नाज़ुक हड्डियों में बहुत गहरी चोट आई थी, लेकिन इसके वाबजूद उसका जरां भी न रोना इस बार सकुंतला देवी के मष्तिष्क में हथौड़े सा चोट कर रहा था। आनन फानन में फ़िर कुणाल को हड्डी के विशेषज्ञों के पास ले जाया गया। जहां एक्सरे रिपोर्ट में कुणाल की कोहनी की हड्डी खिसकी हुई साफ़ नजऱ आ रही थी। छोटे से कुणाल के नाज़ुक हाथों में बड़ी सी सफ़ेद पट्टी लग गयी थी।
सकुंतला देवी अब हर वक़्त कुणाल को अपने गोद में लिए रहती। नहाने जाती तो भी उसे बाथरूम में ले जाती, किचन में रहती तब भी उसे अपने साथ ही रखती। उस दिन के बाद से बर्तन वाली काकी की तो छुट्टी हो ही गयी थी, लेकिन हद तो तब हो जाती जब कुणाल को अखिलेश बर्मन के हाथों सौंपने में भी सकुंतला जी घबरा जाती। वे उनपर भी भरोषा नहीं कर पा रही थी कि वे उनके लाड़ले पर ध्यान दे सकेंगे।
इस बात पर अखिलेश जी ही नहीं उनका पूरा परिवार यानी कुणाल के दादा,दादी,बुआ और मौसी दादी सभी नाराज़ हो जाते। घर के खूबसूरत माहौल पर अब इसका बुरा असर साफ़ दिखाई देता था। अजीब सी मनहूसियत इस विल्ले मे मंडराने लगी थी। सकुंतला देवी का कुणाल के प्रति हद से अधिक सजग हो जाना कहीं न कहीं उनके मानसिक संतुलन के गड़बड़ाने की निशानी थी। जिस तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा था। अक्सर अखिलेश बर्मन सकुंतला देवी से अकेले में बात करना चाहते, लेकिन सकुंतला जी के पास इसके लिए वक़्त ही कहा था। ख़ौफ़ इस तरह सकुंतला जी के अंदर अपने पैर पसार रहा था कि वे रात रात भर अब सोती भी नहीं थी। जरां देर को आँखे बंद हो भी जाएं तो वे चीखकर उठ जाती थी। उनकी स्तिथि अब दयनीय होती जा रही थी। इसी अजीब से माहौल में धीरे धीरे कुणाल बर्मन बड़े हो रहे थे।
लेकिन एक सुबह बर्मन विल्ले में अफ़रा तफ़री मची थी। उनकी बहू सकुंतला और डेढ़ साल का बेटा कुणाल घर से गायब थे। सभी जानते थे बच्चे की माँ यानी सकुंतला जी अपने बेटे को लेकर घर से भाग गई थी...!!!!
लेकिन क्यों और कहाँ....?
क्रमशः_Deva sonkar