चिकनी - चुपड़ी दुनिया Prabodh Kumar Govil द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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चिकनी - चुपड़ी दुनिया

बहुत पुरानी बात है, एक दिन मांजी ने घर में काम करने वाली महरी को दो रोटियां पकड़ाते हुए कहा - सुन, ये घी लगी हुई रोटी तो तू खा ले, और ये दूसरी रूखी रोटी को जाते समय किसी गाय को खिलाती जाना। महरी ने रोटियां ले लीं और दोनों को ध्यान से देखने लगी। दोनों उसी की बनाई हुई तो थीं। लेकिन एक रोटी पर घी लगा हुआ था।
महरी चुपचाप बैठ कर रोटी खाने लगी। वह मन ही मन सोचती जाती थी कि लोग गाय को रोटी क्यों खिलाते हैं? फिर ख़ुद ही फ़ैसला भी कर लेती, कि खिलाएंगे क्यों नहीं, आख़िर गाय को लोग माता जो मानते हैं। उसे गौमाता कहते हैं, अपने रोज के खाने में से एक रोटी उस माता के लिए भी निकाल देंगे तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा? इतने भर से उनकी रसोई तो रीत नहीं जाएगी। लेकिन तभी उसके मन में फिर एक सवाल कुलबुलाया - यदि लोग गाय को माता मान कर ही उसे रोटी देते हैं तो फिर ये भेदभाव कैसा? गाय की रोटी पर घी क्यों नहीं?
एक बार उसने सोचा - चलो, उसे क्या करना है, खुद उसकी रोटी पर तो घी है न। लेकिन उसकी अपनी रोटी पर घी लगे होने के बावजूद वो उसे सूखी - सूखी लगने लगी। गले में जब ग्रास अटकने सा लगा तो उसने उठ कर पानी का एक गिलास भर लिया और पानी के सहारे रोटी निगलने लगी।
उसके मन में मांजी के लिए आदर उमड़ने लगा, जिन्होंने उसे गौमाता से भी बड़ा दर्जा दिया था। गाय को सूखी रोटी और उसे घी की चुपड़ी रोटी दी थी।
काम ख़त्म करके जब वो जाने लगी तो एक अखबार के काग़ज़ में उसने दूसरी सूखी रोटी लपेट ली।
घर से निकल कर वह सड़क पर आई तो इधर- उधर देखने लगी। उसे गाय को रोटी जो खिलानी थी। पर उसे दूर - दूर तक कोई गाय नज़र न आई।
यह कोई गांव तो था नहीं कि उसे हर दरवाज़े पर गाय बंधी मिल जाए, यहां शहर में तो इक्का - दुक्का गाएं होती थीं, वो भी चौड़ी सड़कों पर मुंह मारती घूमती रहती थीं। चाहे जहां बीच सड़क पर बैठ भी जाती थीं। फिर महरी के पास भी कौन सी ज़्यादा फुरसत थी। उसे भी तो लाइन से एक के बाद एक कई घरों का काम संभालना था। वह कितनी देर ठहर कर आख़िर गाय का इंतज़ार कर सकती थी। उसने झटपट अखबार के काग़ज़ में बंधी रोटी निकाली और उसे चुपचाप फुटपाथ पर एक ओर रख कर चल दी।
उसने सोचा - पीछे कोई न कोई गाय तो घूमती हुई आयेगी ही और तब रोटी खा लेगी। यहां कौन सी मांजी आकर देखने वाली थीं कि उसने रोटी गाय को खिला दी या नहीं।
सभी घरों से काम खत्म करके महरी जब अपने घर पहुंची तब तक रात हो चुकी थी। उसे कई घरों से खाने का कुछ न कुछ सामान मिला था। उसने सब समेट कर बच्चों को भोजन कराया, पति को भोजन दिया और घर के छोटे - मोटे काम निबटा कर घर के भीतरी कच्चे बरामदे में सोने चली आई।
गहरी नींद में डूबी महरी को रात में एक सपना आया - उसने देखा कि वो पंचायत दफ्तर के बाहर खड़ी है और वहां लोगों की भारी भीड़ लगी है। एक पेड़ के नीचे कुर्सी डाल कर सरपंच बैठा था और बारी- बारी से सब लोगों की शिकायतें सुन रहा था। लोग एक - एक करके आते जाते थे और अपनी बात कहते जाते थे।
थोड़ी देर में वहां एकाएक भगदड़ सी मच गई। लोगों ने देखा कि एक बड़े - बड़े सींगों वाली गाय भीड़ को एक ओर धकेलती चली आ रही थी। लोग इधर- उधर हट कर उसे रास्ता देते थे। वे सोचते थे कि गाय चुपचाप निकल कर अपने रास्ते चली जायेगी।
लेकिन ये क्या? गाय तो वहीं सबके बीच में आकर खड़ी हो गई। एकाध युवक हाथ में लकड़ी लेकर उसे वहां से हकालने की कोशिश भी करने लगे। लेकिन लोगों के आश्चर्य का पारावार न रहा जब उन्होंने देखा कि गाय ने इंसानों की तरह ज़ोर - ज़ोर से बोलना शुरू कर दिया। वह कह रही थी - मेरा भी न्याय करो महाराज, आज पीछे वाले मोहल्ले में एक दयालु मांजी ने मेरे लिए रोटी भिजवाई थी, मगर एक लापरवाह औरत ने उसे सड़क पर फेंक दिया, जहां मेरे पहुंचने से पहले ही एक कुत्ते ने उसे खा लिया।
यह सुनते ही भीड़ में खलबली मच गई। लोग खुसर- फुसर करने लगे। ऐसी औरत को तो ज़रूर कड़ी से कड़ी सज़ा होनी चाहिए जो गौमाता की रोटी को सड़क पर फेंक गई।
भीड़ में खड़ी महरी के होश उड़ गए। वह भीड़ में ही इधर - उधर छिपने की कोशिश करने लगी।
लेकिन तभी सरपंच की कड़कदार आवाज़ आई - इसमें गलती तो उस कुत्ते की है जो गाय की रोटी खा गया। कोई उस कुत्ते को पकड़ कर लाओ, उसकी ख़बर लेनी पड़ेगी।
सरपंच की बात सुनते ही एक ठेले वाला दौड़ कर उस कुत्ते को पकड़ लाया जिसने रोटी खाई थी। उस ठेले वाले के पांव में कुछ दिन पहले उसी कुत्ते ने दांत गढ़ा दिया था, तभी से वह उस कुत्ते से चिढ़ा हुआ था। वह एक रस्सी से बांध कर कुत्ते को ठेले पर बैठा लाया था, जहां कुत्ता चुपचाप दुम दबाकर सहमा हुआ सा बैठा था।
कुत्ता अपने जन्म से ही गली के लोगों के बीच उठता- बैठता रहा था, अतः वह इंसानों की भाषा भली भांति समझता था। सरपंच की कड़कदार आवाज़ से वह फ़ौरन समझ गया कि यह सारा बवाल उस रोटी को खाने से ही हुआ है जो उसने फुटपाथ पर से कल खा ली थी।
कुत्ते ने दुम हिलाई और आवाज़ को भरपूर मीठी बना कर बोला - मैंने रोटी खाई ज़रूर है पर मैं बिल्कुल निर्दोष हूं। रोटी पर घी नहीं लगा था। मैं सोच भी नहीं सकता था कि ऐसी रूखी रोटी गाय के लिए डाली गई होगी। ऐसे लोग जो खुद घी- मक्खन खूब खाते हैं वो गौमाता को बिना घी की रोटी भला क्यों देंगे, जबकि सारा घी- मक्खन उन्हें गाय से ही मिलता है।
कुत्ते की बात में वजन था। अब उस औरत को ही बुलाना ज़रूरी हो गया जिसने रोटी फेंकी थी। महरी थर- थर कांपने लगी।
पर सरपंच भी सयाना था। फ़ौरन बोल पड़ा - इसमें रोटी फेंकने वाली औरत की गलती नहीं है, यह अपराध तो उसका है जिसने रोटी दी होगी। फेंकने वाला तो बेचारा वही चीज़ फेंकेगा जो उसे फेंकने के लिए दी जाएगी। उस घर की मालकिन से ही बात करनी पड़ेगी जिसके घर के बाहर ये हादसा हुआ।
महरी ने फिर चैन की सांस ली और भीड़ में आगे की ओर चली आई।
सरपंच कुछ बोलता इसके पहले ही बस्ती का एक बुजुर्ग बोल पड़ा - साहब, कोई कड़ा कदम उठाने से पहले हमें यह भी सोचना होगा कि हम कानून को हाथ में न लें।
- क्या मतलब? सरपंच ने आश्चर्य से कहा।
- मतलब ये, कि हो सकता है गाय किसी अवैध गौशाला से आई हो। हमें उसकी मदद करने से पहले तहकीकात तो करनी चाहिए वरना हम पर अपराधियों का साथ देने का आरोप लग सकता है।
- अवैध गौशाला? ये कैसी होती है? सरपंच ने भोलेपन से पूछा।
तभी एकाएक ज़ोर- ज़ोर से शोर होने लगा। फिर भगदड़ की आवाज़ आने लगी।
सरपंच ने चौंक कर उधर देखा तो हैरान रह गया। अलग- अलग दिशाओं से कुछ लोगों के जत्थे हाथों में झंडे, तख्तियां, बैनर आदि लिए हुए नारे लगाते हुए आ रहे थे। मेले जैसा माहौल था।
एक मोर्चे में महिलाएं थीं। उनके साथ कुछ महिला नेता भी थीं। वे सभी उन दोनों महिलाओं के समर्थन में वहां आई थीं, जिन पर आरोप लगाए जा रहे थे। कुछ महिलाएं रोटी देने वाली मांजी के पक्ष में नारे लगा रही थीं, और कुछ महरी पर होने वाले संभावित अन्याय का विरोध कर रही थीं। वैसे अन्याय अभी हुआ नहीं था किंतु महरी के मनोबल में इतना समर्थन पाने से जबरदस्त इज़ाफा हो गया था। वह अब छिपने की कोशिश नहीं कर रही थी और खुल कर सामने आ गई थी।
दूसरा जत्था पशु क्रूरता निवारण के लोगों का था। वे कुत्ते को बांध कर आरोप लगाए जाने का सख़्त विरोध कर रहे थे। साथ ही वे गाय के पक्ष में भी नारे लगा रहे थे जिसके हिस्से की रोटी उसे नहीं दी गई थी। इस पक्ष के कुछ लड़कों की बीच - बीच में पंचायत के उन कर्मचारियों से बहस भी हो जाती थी जो बस्ती में कुत्ते पकड़ने वाली गाड़ी लेकर घूमा करते थे।
एक छोटा सा गुट किसी एनजीओ का भी था जो भेदभाव के लिए उस महिला को कोस रहे थे जिसने एक रोटी पर घी लगाया तथा दूसरी को बिना घी के ही रखा था।
इस तरह माहौल के एकाएक बदल जाने पर सरपंच को भी झल्लाहट हो रही थी और वह इन सब पर सरकारी कामकाज में बाधा पहुंचाने के लिए किसी कार्यवाही पर विचार कर रहा था।
दो संन्यासी- नुमा आदमी गौशाला को अवैध कह देने पर भी क्रुद्ध थे और उस बुजुर्ग को कोस रहे थे जिसने ऐसा कहा था।
इतने में फिर से जोरदार भगदड़ मच गई। सब इधर- उधर भागने लगे।
दरअसल भीड़ से घबरा कर गाय भी उत्तेजित हो गई थी और उसने भागते - भागते अपने सींगों से आगे ही आगे शान से खड़ी महरी को गिरा दिया था।
एक झटके से महरी की नींद खुल गई।
उसने देखा, आंगन में बरसात आ जाने से उसका पति उसके पलंग को घसीट कर भीतर की ओर कर रहा था। वह झेंप कर उठी और पलंग खिसकाने में पति की मदद करने लगी।
* * *