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चीर हरण

वो प्रसन्न थे। शिक्षक की नौकरी से हाल ही में सेवा निवृत्त हुए थे। जीवन की सभी जिम्मेदारियां पूरी कर चुके थे। बच्चों को पढ़ा - लिखा कर योग्य बना दिया था और उनके विवाह भी कर दिए थे। बच्चे अपनी- अपनी नौकरी करते हुए अलग - अलग शहरों में खुश थे। तीज - त्यौहार पर आना- जाना भी था।
उन्हें पेंशन मिलती ही थी। गुजारा आराम से होता। दो प्राणियों का खर्च ही कितना होता था। पत्नी भी योग्य और सेवा- भावी थी। आदर- सम्मान भी खूब था क्योंकि अपने समय के आदर्श शिक्षक रहे। हर बच्चे को अपना समझ कर पढ़ाया। कभी किसी पर हाथ उठाना तो दूर, ज़ोर से डांट कर किसी से बोले तक नहीं थे।
उन्हें ये विचार हर समय रहता कि आजकल लोग लिखते- पढ़ते नहीं हैं। इससे लोगों का आर्थिक विकास तो हो रहा है लेकिन सामाजिक और भावनात्मक विकास नहीं हो पा रहा है। वो अपनी क्षमता भर अच्छी पत्र - पत्रिकाएं और कम मूल्य वाली पुस्तकें खरीद कर लाते। स्वयं भी पढ़ते और चाहते कि और लोग भी पढ़ें। नतीजा ये हुआ कि उनके तीन कमरों के घर में एक कमरा छोटा- मोटा वाचनालय ही बन गया। चारों ओर से पत्र- पत्रिकाओं और किताबों से भरे कमरे में उन्होंने चार पुरानी कुर्सियां भी रखवा दीं।
अपने उस पुस्तकालय को देख कर वो मन ही मन संतुष्ट होते और सोचते कि सेवा- निवृत्ति के बाद भी उनका समाज के प्रति जो धर्म बनता है, उसका निर्वाह वो कर ही रहे हैं।
वर्षों बीत गए। आयु सत्तर पार जा पहुंची। शरीर पर वृद्धावस्था के लक्षण साफ़ दिखाई देने लगे। पत्नी भी घर के काम पहले वाली सहजता से नहीं कर पाती थी। दवा - पथ्य का व्यय बढ़ गया था। महंगाई बढ़ने के साथ- साथ पेंशन भी सिकुड़ती हुई प्रतीत होने लगी थी। घर में अतिथियों का आना- जाना भी अब उन्हें उल्लास से नहीं भरता था।
एक दिन पत्नी से राय कर डाली, घर में दो कमरे पर्याप्त हैं, बच्चे आते ही कितने हैं, क्यों न एक कमरा किराए पर उठा दिया जाए। घर में सुख- दुख की घड़ी के लिए एक प्राणी भी रहेगा और चार पैसे भी आयेंगे।
दोपहर को एक कबाड़ी को पकड़ लाए। वर्षों से पड़ी धूल खा रही किताबों और पत्र- पत्रिकाओं को चुन- चुन कर, उठा - उठा कर ढेर लगाने लगे। बूढ़ा कबाड़ी अपने साथ आए बच्चे की मदद से रद्दी समेट रहा था।
कबाड़ी ने तराजू उठाया तो उसका पासंग देख कर वो तिलमिला उठे। मोल - तौल में इतनी बेईमानी? उन्होंने सतर्क होकर स्वयं रद्दी तराजू में रखना शुरू किया। एक- एक किताब को रखने से पहले कबाड़ी से बहस करते। कभी बाट उठा कर उन्हें देखते, ठीक हैं या नहीं। बच्चा उनकी मुस्तैदी के कारण अपनी स्वाभाविक चपलता छोड़ कर उदासीन हो गया था। उसने एक किताब उठा ली और एक कोने में बैठ कर उसे पलट कर देखने लगा।
भाव- ताव करके पूरे चौकन्ने होकर उन्होंने रद्दी तुलवाई। पैसे - पैसे का हिसाब जोड़ा और कबाड़ी की जेब की ओर देखने लगे जहां से वो पैसे निकाल रहा था।
बच्चे ने पुस्तक बंद कर के तुली हुई रद्दी में रख दी। जैसे ही उनका ध्यान गया वो आपा खो बैठे। "रद्दी में बेईमानी?" उन्होंने बच्चे को लताड़ पिलाई और किताब उठाते - उठाते एक चपत बच्चे के सिर पर भी जमा दी। बूढ़ा कबाड़ी पैसे देते हुए उन्हें हिकारत से देखने लगा। फिर बोला - बाबूजी, एक पन्ना पढ़ने लगा तो क्या जुर्म हो गया? मैं तो इसे कभी स्कूल भेज नहीं पाया।
पैसे देकर बाप- बेटे चले गए। कमरा झाड़ - पौंछ कर किराए पर देने के लिए तैयार कर दिया गया।
रात को सोने के लिए जब वो बिस्तर पर लेटे तो कुछ बेचैन से थे। लगता था जैसे तबीयत ठीक न हो। उन्हें करवटें बदलते देख कर पत्नी ने भी भांप लिया। बोली - क्या बात है, नींद नहीं आ रही क्या?
वो उनींदे से बोले - एक चादर और डाल दो मेरे ऊपर। पत्नी घबरा गई। बोली - अरे, सर्दी लग रही है क्या? मौसम तो इतना गर्म है। कहो तो पंखा बंद कर दूं?
- नहीं, सर्दी नहीं लग रही, पंखा तो रहने दो।
- तो फिर चादर क्यों? मच्छर हैं क्या? पत्नी झुंझलाई।
- नहीं, गर्मी में मच्छर कहां से आयेंगे? वो बोले। पत्नी अब चकित हुई। बोली - क्या हुआ, बोलो न, चादर क्यों मांग रहे हो? बुखार तो नहीं।
वो कुछ पल रुके, फ़िर बोले - बचपन में हम सब पशुओं की तरह निरीह होते हैं, धीरे - धीरे शिक्षा से हम पर मनुष्यता का आवरण चढ़ता है। इस आवरण से मैं शिक्षक बना और जीविका कमाई। मगर अब उम्र के साथ- साथ शिक्षा का आवरण उतरता जा रहा है। आज मैंने एक बच्चे को पढ़ने के लिए मारा। लगता है जैसे कोई मुझे निर्वस्त्र कर रहा है। मैं मनुष्य से वापस पशु बन रहा हूं, संस्कार- विहीन, नंगा!
पत्नी की समझ में कुछ न आया। रद्दी लेने आया कबाड़ी और उसका बेटा भी अपने घर में आराम से सो रहे थे। किसी की समझ में कुछ न आया होगा। केवल वो जाग रहे थे, क्योंकि वो शिक्षित थे... चीरहरण केवल उनका हो रहा था।
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