तुम्हारे नाम एक पत्र और SURENDRA ARORA द्वारा पत्र में हिंदी पीडीएफ

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तुम्हारे नाम एक पत्र और

आज चालीस साल बाद एक बार फिर तुम्हें चिट्ठी लिखने की इच्छा हुई है। इच्छा, आज ही नहीं सच कहूं तो पिछले कई दिनों से दिल के, दिमाग के न जाने कितने कोनो में सागर में किसी उफान की तरह हिलोरे ले रही थी। कारण क्या है, ये तो विश्वास पूर्वक मैं भी नहीं कह सकता। कहते हैं दिल के जो अरमान या इच्छाएं दिल में दबी रह जाती हैं या फिर पूरी नहीं हो पाती, वो शायद जिंदगी भर या यूँ कहूं कि जिंदगी के बाद भी इंसान का पीछा नहीं छोड़तीं। तुम अक्सर गीता के उद्धरण दिया करती थीं। जिस में कहा गया है कि जीवन में कुछ भी अकारण नहीं होता और जो कुछ भी होता है, उसका कुछ न कुछ प्रारब्ध भी होता है। तुम मेरी जिदंगी का हिस्सा बनी या मैं तुम्हारी जिंदगी में आया, उसकी कोई वजह तो जरूर रही होगी। जीवन की किशोरावस्था से यौवन काल में प्रवेश करने का समय, जीवन में सबसे अधिक ऊर्जावान और भविष्य निर्धारित करने का समय होता है, पर इसी समय में वे अत्यंत निजी निर्णय भी लिए जाते हैं जो जिंदगी को जिंदगी कहलाने लायक बनाते हैं। तुम भी तो मेरे उन्हीं फैसलों में से एक थीं। उम्र के उस पड़ाव पर तुम कितनी अल्हड किसम की बातें किया करती थीं। किताबें और कापियों का बैग तुम्हारे सीने से चिपका रहता था। कालेज में प्रवेश के बाद भी तुम चोटियां दो ही बनाती थीं। यहाँ तक कि शुरू के दिनों में तो तुम स्कर्ट भी पहन कर आती थीं। फिर न जाने क्या हुआ कि एक दिन अचानक तुम सफ़ेद रंग का चूड़ीदार पायजामा और उसपर शायद हरे रंग का कुर्ती और उसपर सफ़ेद चुन्नी ओढ़कर आयीं थीं। उस दिन तुमने अपनी चोटियों की संख्या भी एक कर ली थी । एकदम बदला हुआ था तुम्हारा रूप। केमिस्ट्री की मेडम से मिलता - जुलता। मुझे तुममे भविष्य की टीचर दिखाई दी थी। उस दिन तुम्हारी सहेलियों ने तुम्हें क्या कम्लीमेन्ट दिया था, मैं नहीं जान पाया परन्तु क्लास के बाद मुझसे रुका नहीं गया था और बहुत देर तक की निजी कश्मकश के बाद जब  मैं खुद को रोक नहीं पाया था तो मौका पाकर मैंने तुम्हारे पास आकर बिना किसी भूमिका के कहा था, " इस लिबास में आप केमिस्ट्री की मेडम की कॉपी लगती हैं। ऐसे ही आया कीजिये। " तब मैं नहीं जानता था कि केमिस्ट्री तुम्हारा प्रिय सब्जेक्ट भी था।

मेरी इस धृष्टता पर तुम्हारी बड़ी - बड़ी आंखे, जो मुझे बहुत अच्छी लगती थीं, थोड़ी सिकुड़ गयीं थीं। मुझे लगा तुम मुझे डांट दोगी। मैं डर भी गया था क्योंकि वो आज का यह जमाना नहीं था जब लड़कियां और लड़के, एक दूसरे के साथ बेबाकी से हाथ ही नहीं मिलाते, कभी - कभी तो गले भी मिल लेते हैं। परन्तु नियति ने कुछ और ही लिख छोड़ा था कि रोष प्रकट करने कि जगह तुम्हारे गाल, कश्मीरी सेव की तरह लाल हो गए थे। तुम शर्मा गयीं थीं और तुमने अपने महीन होठों को एक - दूसरे पर रखकर दबी हुई आवाज में कहा था, " आपको लड़कियों की पोशाक पर इस तरह टिपण्णी नहीं करनी चाहिए। वैसे मुझे केमिस्ट्री की क्लास अच्छी लगती है। ये आप जान लीजिये। "

" सॉरी। आगे से ध्यान रखूँगा। मैं खुद को रोक न पाने के लिए शर्मिंदा हूं। पर मैं जूलॉजी में अधिक कम्फर्टेबले महसूस करता हूं। " इसके बाद बिना कुछ कहे या सुने अपनी आदत के अनुसार तुम वहां से अपने तेज क़दमों से लायबरेरी की ओर चली गयीं थीं क्योंकि अगला पीरियड खाली था।

 

मैं लायबरेरी के बाहर खड़ा तुंहारा इंतजार करता रहा था। मैं भले ही डरा हुआ था कि मेरी हठधर्मी तुम्हें कहीं इतनी बुरी लग गयी कि क्या पता तुम मेरी शिकायत प्रिंसिपल से न कर दो, फिर भी तुम्हें लेकर मैं इतना मजबूर हो गया था कि मैं तुमसे और कुछ भी कहना चाहता था। मैं बहुत देर तक वहीँ खड़ा होकर तुम्हारे बाहर आने कि प्रतीक्षा करता रहा। न जाने क्यों तुम बाहर नहीं आयीं जबकि अगला पीरियड भी समाप्त होने को था । मेरी हिम्मत जवाब दे गयी तो मैं भी लायबीरेरी के अंदर ही चला गया। चारों ओर अधीर नजरें दौडा कर तुम्हें ढूढ़ने की कोशिश की। बड़ी देर बाद एक कोने में तुम अपनी प्रिय सहेली त्रप्ता के साथ बैठकर किसी किताब के किसी चेप्टर पर डिस्कस करती हुई दिखाई दीं। इसी बीच तुमने मुझे भी देख लिया था और शर्मीली सी मुस्कुराहट तुम्हारे गालों पर पसरी भी थी। तुम्हारे पास बैठने का मेरे पास कोई बहाना नहीं था। मुझे याद है मैंने तब हिंदी का एक उपन्यास " बड़ी - बड़ी आँखे " जो शायद मेरे प्रिय लेखक उपेंद्र नाथ अश्क का था इशू करवाया और उस मेज के दूसरी और के बेंच पर बैठ गया जिसके इस और तुम तृप्ता के साथ बैठीं थी। ये कितना अजीब और दिल में तूफान ला देने वाला सच है कि हम तीनो की नजर अपनी - अपनी किताबों पर थी पर हममें से कोई भी उन किताबों में नहीं था। यह तुमने मुझे बाद में ही बताया था। शायद किसी भी कालेज में वहां की लायबरेरी प्रेम की कोपलें खिलने और परवान चढ़ने की सबसे सुरक्षित और उपजाऊ जगह होती है, इस बात का एहसास हम दोनों को ही बाद के वर्षों में हुआ था। इसलिए मैं आज भी किसी भी लायबरेरी को देखते ही तुम्हारे साथ बिताये गए सभी मीठे लम्हों में खो जाता हूँ।

उस दिन भी जब बहुत देर तक हम तीनो ही किताबों में खोये रहने का नाटक करते रहे और बोला कोई कुछ नहीं तो तुम्हारी चुलबुली सहेली त्रप्ता ने ही शांत हवा में सनसनी पैदा की थी, " अश्क जी के तो मैंने सैकड़ों उपन्यास अब तक पढ़ लिए हैं। " इतना सुनते ही मेरी हंसीं छूट गयी। तुम दोनों ने जब विस्मय भरी नजरों से मेरी और देखा तो मैंने अपनी हंसीं को रोककर कर सादगी से कहा था, " इतने उपन्यास तो उन्होंने लिखे ही नहीं,फिर आपने पढ़ कैसे लिए ? " मेरे तर्क पर त्रप्ता के चेहरे पर ग्लानि के भाव दिखे तो मैंने बात को संभालते हुए कहा था, " ये उनका बहुत ही प्यारा उपन्यास है, " बड़ी - बड़ी आँखे ", इसे भी पढियेगा। किसी - किसी के चेहरे पर बड़ी सी आँखे कमल की पंखुड़ियों सी खिलती हैं। त्रप्ता ने तब तुम्हारी तरफ शरारती नजरों से देखा था। तुम्हारी आँखें शर्मा रहीं थीं। मैं खुद पर हैरान था की मैं यह सब कैसे कह पाया।

उसके बाद न तो तुम दोनों और न ही मैं वहां रुक सके था। शायद मेरी जिंदगी ने उस दिन एक नया मोड़ ले लिया था। आज उस मोड़ को याद करता हूँ तो  उस मोड़ से आगे का रास्ता भले ही बहुत पीछे छूट गया हो परन्तु वो मोड़ तो अब भी वहीँ का वहीँ खड़ा है और उसपर मेरे ही नहीं तुम्हारे नाम का पत्थर भी जड़ा है। जिसे कोई झुठला नहीं सकता।

तुम्हें याद होगा कि तुम अक्सर कहा करती थीं " जिस रास्ते पर चलना है, चलने से पहले उसकी पड़ताल तो कर लिया कीजिये . किसी भी राह पर भटकते हुए चल पड़ना अच्छी बात नहीं है और यह कहने के बाद तुम जोर से हँस भी पड़तीं थी। तब मेरा एक ही उत्तर होता था, " प्रेम जीवन का सर्वोच्च अवलंब है। प्रेमविहीन जीवन तो जानवर जीते हैं। वे केवल सेक्स के लिए आवेशित प्रेम करते हैं, जबकि मानव किसी भी दवंद से मुक्त होकर केवल प्रेम के लिए प्रेम करता है। तुम मेरे प्रेम का अंतिम पड़ाव हो। " मुझे लगता है, मेरा सच आज भी यही है, तब तुम सम्मोहित दृष्टि से मुझे देखने लगती थीं। मेरे ख्यालों में, मुझे तुम्हारी वो नजर आज भी सम्मोहित करती है। भले ही अब यह भी मानता हूँ कि जीवन में अंतिम कुछ नहीं होता। गीता में तो स्पष्ट ही लिखा है, " मृत्यु भी अंत नहीं है। "

तुम यह सब पढ़कर कहोगी, " ये सब तो हम दोनों के ही बीच हुआ ही था, इसे तो मैं जानती ही हूँ। मुझे ये सब कुछ याद भी है । कोई अपने अस्तित्व की वजह भी भूल सकता है क्या। माँ - बाप तो जन्म देते हैं, पालते - पोसते  भी हैं, प्यार भी करते हैं पर जीवन को ताउम्र गति तो जीवन - साथी से ही मिलती है,, हम एक - दूसरे के साथ दुनिया की नजरों में ही तो नहीं हैं तो उससे क्या होता है। फिर मुझे ही क्यों बता रहे हो, वे बीती बातें। "

“ हाँ ! कह सकती हो तुम क्योंकि यही हमारा सच है और मैं इस सच को एक बार फिर तुम्हारे साथ बाँटना चाहता हूँ, उस लायबरेरी में बैठकर जहाँ तुम या मैं नियति का हिस्सा बने थे। इसलिए मैं यह सब तुम्हें इस चिट्ठी में लिख रहा हूँ, दोहरा रहा हूँ। “

बाद में जो - जो कुछ हुआ, वो ढेर सारी मीठी और खट्टी घटनाओं की एक लम्बी यात्रा है । मैं नहीं जानता कि अब तुम कैसी दिखती या लगती हो और कहाँ हो पर तब तुम अपने पूरे व्यक्तित्व में धरती की सबसे मोहक रचना थीं। इतना विश्वास है कि तुम अपनी पूरी सौम्यता के साथ कहीं न कहीं केमिस्ट्री के सूत्र जरूर पढ़ा रही होओगी। हाँ एक और सच ये है कि यह चिट्ठी तुम्हें कभी नहीं मिलेगी, भले ही मैं इसे तुम्हारे घर की बाहरी दीवार के पास पड़ी ईंट के उसी टुकड़े के नीचे छुपाकर रख दूँ, जो हम दोनों के लिए ही तब किसी लेटर बॉक्स का काम किया करती थी। फिर भी मैं इसे लिख रहा हूं क्योंकि यह मेरे स्मृतिपटल का एक स्थाई आलेख है।

एक बार फिर वही प्यार तुम्हें। तुम्हारा,

तुम जानती हो।

 

( सुरेंद्र कुमार अरोड़ा, डी – 184,  श्याम पार्क एक्सटेंशन, साहिबाबाद - 201005 ( ऊ. प्र. ) मो : 9911127277 )