समुन्दर
" मैं तो मान बैठा था कि अब कुछ नहीं बचा है । क्लाइमेक्स अपनी बात कहकर अदृश्य हो चुका है । जिस कथा के प्रवाह में, मैं पिछले तीन घंटे में खुद को खो चुका था, उसने अपनी तार्किक परिणति को प्राप्त कर लिया है ।अब यही मेरी नियति है और यही अब मेरी जिंदगी की आखिरी सच्चाई है । मुझे अपनी आँखों में उतरे हुए बेबस पानी को पोंछ लेना चाहिए। इसी भूलभुलैया में ही मुझे सुब्ना भी है ए उतराना भी है । मैं चाहूँ या न चाहूँ मुझे अब उसी तालाब में रहना है। यही मेरी हदें हैं जबकि इसकी सीमाओं या गहराई को तय करने में मेरी कोई भूमिका नहीं है। जो खुद को मेरा हमदर्द कहते हैं, उनका भी यही कहना है कि इस तालाब के बाहर मेरा कोई वजूद नहीं है । मेरी सारी सक्रियता तभी तक गतिशील है जब तक कि मैं इस तालाब में हूँ । तालाब से बाहर निकलते ही गर्म और सूखी हवाएँ मेरे नथुनो को इतना गर्म कर देंगीं कि उनकी तपिश से मैं और मेरे फेफड़ों जल उठेंगे । "
वो तालाब को आत्मसात करने के रास्ते खोजने लगा ।
निराश मन से उसने ऊपर की तरफ नजरें उठाई " यह क्या, वहां तो ऐसा आसमान था जिसका कोई ओर - छोर नहीं था । उसे लगा,कुदरत कुछ और कह रही है । आसमान तो बहुत दूर वहां तक फैला है,जहां तक इनके फ़रिश्ते भी नहीं पहुँच सकते ।
तभी अचानक एक परी किसी अनजाने लोक से वहां आई, उसने अपने धवल पंख फैलाये, अपनी स्नेहिल दृष्टि उस पर डाली और उसकी आँखों में अपने विशवास को उड़ेलते हुए बोली,“ ऊपर गगन की ओर देखो,यह अनंत है । जब कोई आसमान की ओर देखते हुए पुरजोर कोशिश करता है तो उसकी नजरे सितारों की दुनिया से आगे भी निकल सकती हैं । "
" वो कैसे ? " उसके शंकित मन ने प्रश्न किया।
" मेरी तरफ देखो । मैं बहुत दूर तक देखती हूँ,इसलिए उड़कर कहीं भी निर्द्व्न्द जा सकती हूँ । "
" तुम्हारी आँखें बड़ी - बड़ी हैं और तुम्हारे पंख सुंदर ही नहीं मजबूत भी हैं । तुम दूर तक देखने के साथ, उड़ कर दूर तक जा भी सकती हो । मेरे पास तो इनमें से कुछ भी नहीं है । ये तालाब ही मेरा घर है । " उसके चेहरे पर फिर वही मायूसी थी ।
" ये तुम्हारा वहम है कि मेरे पास आकाश छूने या नापने के लिए अलग से कोई साधन है । भले ही मेरे पास पंख हैं पर ये मेरी ताकत तभी बनते हैं जब मेरो आँखे दूर कोई मंजिल देखती हैं और जब वे अपनी मंजिल देख लेती हैं तब मेरे पंखों को भी पंख लग जाते हैं और तब मेरे इरादे मुझे उस मंजिल तक ले जाते हैं जिसे मेरे मन ने संजोया है । "
" ……………………. ! "
" अभी भी सोच रहे हो ? झांकों अपने अंदर । वहॉँ तुम्हें शक्ति का कभी न खत्म होने वाला समुन्दर मिलेगा । ये तालाब तो दूसरों ने बनाया है तुम्हें बांधने के लिए । जब अपने अंदर के समुन्दर में डुबकियां लगाओगे तो अपने चारों तरफ असंख्य सीपियाँ बिखरी हुई पाओगे, तुम्हारे हाथ अपने आप आगे बढ़ेगें और उन सारी सीपियों को समेटना तुम्हारी मंजिल होगी । "
वंदना अपने परिवेश से अलग लिखने में तल्लीन थी । उसे पता ही नहीं था कि उसके लिखे को कोई साथ - साथ पढ़ भी रहा है ।
" इतना सुंदर लिखा है वंदू तुमने आज । लगता है अपने गंतव्य को समझ गयी हो और उसे पाने से पहले अब रुकोगी नहीं। कितना सच लिखा है …………………….। निश्छल और निर्द्व्न्द कोशिश ही वे पंख होते हैं जो संवेदना को अनंत गगन की अकल्पनीय सीमा के पार ले जाते हैं । तुम्हारे पंख, तुम्हारा प्रेम करने वाला ह्रदय है,तुम्हारी कलम तुम्हारी संवेदनाएं हैं । प्रकट वह चाहे जिसके भी माध्यम से हों । रम जाओ ईश्वर की दी हुई इस क्षमता में । यह सामर्थ्य ईश्वर हर एक को नहीं देता ”
“ ………………………।”
“ सोच क्या रही हो ? थेंक्स कहा तो फिर कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाउँगा। इस बावले मन की सच्चाई ही ये है कि वो जब पागल हो जाता है तब वह दूसरों के बजाय स्वयं से ही अधिक बातें करने लगता है । स्वयं से बात तभी होती है जब संवेदनाये ध्वनि तरंगों से भी तीव्र गति से गतिशील होती हैं । होठ सिले रहते है परन्तु संवाद अनंत होता है । "
“प्लीज मुझे सपनो के संसार में मत ले जाओ । वे टूटते है तो आवाज नहीं होती पर विनाश भयंकर होता है । प्यार बार - बार नहीं होता । मैं भी ऐसा नहीं कर सकती । ” वंदना लगभग कराह रही थी ।
“ हाँ ! मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ और प्यार का पहला एहसास तुमसे ही मिला था । बड़ी तकलीफ भी होती है कि जिंदगी के जिस मुकाम पर तुम मेरी दिनचर्या में आयीं, तुम्हें अपनी जिंदगी का वह हिस्सा नहीं बना सकता जिसमें सभी सपने एक साथ बुने ही नहीं जाते, उन्हें जिया भी साथ ही जाता है । परन्तु, अब तो हम दोनों के भाग्य की रेखाओं में तुम्हारी भूमिका एक गेस्ट आर्टिस्ट से अधिक कुछ भी नहीं है ।"
" सब कुछ जानते हुए भी बार - बार क्यों चले आते हो मेरे सामने ? जब रुकना नहीं होता, तो आने की मज़बूरी क्या है ? एक बार चले जाने के बाद भी कोई आता है क्या ? क्यों नहीं समझते कि एक ही दर्द सहते - सहते किसी दिन जिंदगी रूठ भी तो सकती है ! "
" जिनके मन में समुन्दर की उठती हुई अथाह तरंगों की उमंग होती है, उनसे जिंदगी कभी नहीं रूठती ।"
“ तो फिर जाओ उन हाथों को साफ़ करके उनमें उकरी लकीरों को पढ़ो जिनमें बनी तस्वीरें धुंधली हो चुकी हैं । "
" धुंधली ही तो हुईं हैं, मिटी तो नहीं न ! "
" कौन कहता है कि उनको मिटा दो । पर उनकी रेखाओं को वो जाल भी मत बनने दो,जिसमें कोई उलझ कर रह जाए ।"
" जाल तो हम खुद बुन लेते हैं । जिसे जाल समझते हैं वो जिंदगी को मजबूती देने वाला फ्रेम भी तो बन सकता है ? ”
" क्या पता वो वही कोशिश हो, जो मैं लिख रही थी और तुम पढ़ रहे थे । समुन्दर अथाह होता है बिना किसी ओर - छोर का । कहीं भी खड़े होकर उससे उठने वाली ऊंचीं - ऊंचीं लहरों की बौछारों में भीगा जा सकता है। " वंदना ने आसमान की तरफ देखते हुए कहा ।
वो वहां से चल दिया, खुद से इस उम्मीद के साथ कि अब कभी वापस नहीं आएगा ।
सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
डी - 184, श्याम पार्क एक्सटेंशन, साहिबाबाद - ग़ज़िआबाद,
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