नाटक ‘हज़ार चौरासी की माँ’
मूल बांग्ला उपन्यास - महाश्वेता देवी
बांग्ला नाट्य रूपांतर - शांति चट्टोपाध्याय
हिन्दी नाट्य अनुवाद - मल्लिका मुखर्जी
दृश्य 5
नन्दिनी: (दरवाज़ा खोलते हुए) आप?
सुजाता: मैं व्रती की माँ हूँ।
नन्दिनी: आइए... आइए...बैठिए।
सुजाता: थोड़ा पानी मिलेगा? सिर में असहय दर्द हो रहा है.... एक टेब्लेट लेनी पड़ेगी।
नन्दिनी: (ग्लास में पानी भरकर उन्हें देती है।) लीजिए।
(सुजाता पर्स में से दवाई निकालकर पानी के साथ लेती है।)
सुजाता : बताओ नन्दिनी, तुमने मुझे कैसे याद किया?
नन्दिनी: क्योंकि आप व्रती माँ हैं। मेरे लिए आपसे परिचित होना ज़रूरी है। क्या आपको यह जानने की इच्छा नही होती कि सबकुछ ऐसे उलट-पुलट क्यों हो गया?
सुजाता: जो चले गए, वे क्यों चले गए जानकर क्या होगा बताओ?
नन्दिनी: आप हमेशा की तरह अनजान क्यों रहना चाहती हैं? जो जा चुके हैं, वे वापस नहीं आएंगे; लेकिन जो बच गए हैं, वे हमारी तरह गलतियाँ न करें, इसलिए भी तो जानना ज़रूरी है?
सुजाता: क्या जानना ज़रूरी है?
नन्दिनी: यही, अगर हमारे साथ धोखा न हुआ होता तो इस तरह इतने सारे युवाओं को मरना न पड़ता।
सुजाता: धोखा न हुआ होता तब भी तुम लोगों को इसी तरह मरना पड़ता नन्दिनी, इस पथ पर मृत्यु निश्चित है।
नन्दिनी: मृत्यु निश्चित है, जानकर भी तो हमने यही पथ चुना था! धोखा होता है, इसमें हैरानी की बात नहीं है, लेकिन यह जानकर बहुत दु:ख होता है कि कुछ लोग दोस्त बनकर सिर्फ़ धोखा देने के लिए आए थे।
सुजाता: धोखा किसने दिया नन्दिनी?
नन्दिनी: अनिंद्य ने.....
सुजाता: अनिंद्य? ये अनिंद्य कौन है?
नन्दिनी: अनिंद्य पहली बार नीतू नाग के साथ आया था और नीतू पहले से ही हमारे ग्रुप का मेम्बर था। व्रती बहुत ही सीधा था उसने अनिंद्य पर भरोसा किया।
सुजाता: क्या अनिंद्य पर भरोसा करना उचित नहीं था नन्दिनी?
नन्दिनी: नहीं। कुछ लोग समाज में प्रतिष्ठित होने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
सुजाता: सही कहा तुमने...
नन्दिनी: पैसा, रुतबा, ताकत यही उनके जीवन का अंतिम ध्येय है। ऐसे लोग ही दोस्त बनकर आते हैं और समय आने पर धोखा दे जाते हैं।
सुजाता: इसमें तुम्हारा कोई कसूर नही नन्दिनी।
नन्दिनी: कुछ हद तक, यह हमारा ही कसूर है।
सुजाता: कैसे?
नन्दिनी: कीमत मिलने पर लोग कुछ भी कर सकते हैं, ये हमने जाना ही नहीं। हम सन्न रह जाते हैं यह जानकर कि हमारे साथियों की मौत में कोई न कोई उनके क़रीब का व्यक्ति ही शामिल था! बाप, भाई, दोस्त या रिश्तेदार....
सुजाता: क्या बात करती हो?
नन्दिनी: यही सच है। लोग समझते हैं हमें हर मौजुदा चीज से नफ़रत है, पर ऐसा नहीं है। बाहर से दिखने वाली नफ़रत के पीछे प्यार और विश्वास की कितनी प्यास है, कोई नहीं जानता!
सुजाता: तुम्हारी बातें सुनकर ऐसा लगता है नन्दिनी कि मैं तुम लोगों को समझ ही नहीं पाई।
नन्दिनी: सही कहा आपने, धोखा इतना और हमें सावधान रहना सिखाया ही नहीं गया! अपने अनुभवों से जब सीखा तब जाकर कहीं ख़ुद को संभाल पाए। एक अरसा बीत चुका है, अब मैं वह नन्दिनी नहीं रही।
सुजाता: ऐसा मत कहो नन्दिनी। ऐसा मत कहो...
नन्दिनी: आप और मेरी माँ एक जैसी हैं.....आप नहीं समझेंगी क्योंकि आप लोगों ने एक ही मकसद के लिए कभी अपना सब कुछ दाँव पर नही लगाया।
सुजाता: हमने कभी ऐसे जिया ही नही!
नन्दिनी: चलिए, आपने यह बात तो मानी। व्रती कहता था कि आप बहुत इमानदार हैं। आपने कभी हमारी तरह सोचा ही नहीं। आज भी चल रही है धोखाधड़ी, एक साजिश की तरह। एक चुप्पी की आड़ में सब घट रहा है। सोलह से चालीस की एक पीढ़ी ख़त्म कर दी गई, जिसमें इस पूरे तंत्र को बदलने की हिम्मत थी! वो पीढ़ी जिसने अपनी ज़िंदगी दाँव पर लगाई थी।
सुजाता: सोचती हूँ तो कितना खाली-खाली लगता है। मैं व्रती की माँ हूँ, पर उसे कितना कम जानती थी!
नन्दिनी: आपने कभी जानने की कोशिश की?
सुजाता: माँ-बेटे के रिश्ते में भी जानने की कोशिश...नन्दिनी?
नन्दिनी: खून और खानदान एक होने से हम एक दूसरे के नहीं हो जाते। मन एक न हो तो रिश्ता ही क्या? व्रती को ही लीजिए, उसके और उसके पिता के बीच कोई ऐसा तंतु नहीं था जो उन्हें आपस में जोड़ सके। अपने पिता के वर्ताव से वह बहुत डिस्टर्ब रहता था।
सुजाता: अच्छा नन्दिनी, यह बताओ क्या व्रती मुझसे प्यार करता था?
नन्दिनी: वह सिर्फ़ आपसे प्यार करता था। आपका बहुत ख्याल रखता था। आपको बुरा न लगे इसीलिए तो वह सत्रह तारीख तक अपने घर रुकना चाहता था। उसका जन्मदिन था न? वह जानता था कि उसका जन्मदिन आपके लिए एक विशेष दिन है, उसे तो पंद्रह तारीख को ही निकल जाना था, अगर निकल जाता तो अनिंद्य उसे धोखा नहीं दे सकता था।
सुजाता: उसके प्यार की भूख में मैंने उसे जकड़ रखा था। मैं ही जिम्मेवार हूँ उसकी मौत के लिए। (सोफ़े पर बैठती हैं।)
नन्दिनी: नहीं, ऐसा मत कहिए। यह लोग उसे कैसे भी, कहीं भी मार देते...
सुजाता: अब तुम क्या करोगी नन्दिनी?
नन्दिनी: मुझे पैरोल पर छोड़ा गया है, इलाज के लिए।
सुजाता: इलाज के लिए? क्या हुआ है तुम्हें?
नन्दिनी: हज़ार वोल्ट की तेज रोशनी घंटो तक मेरी आँखों पर डाली गई। आँखों को बहुत नुकसान पहूँचा है। दाई आँख से बिलकुल नहीं दिखता।
सुजाता: क्या बात करती हो? (नन्दिनी को गले लगाते हुए) तुम्हें देखकर तो मुझे पता ही नहीं चला।
नन्दिनी: आँखों का इलाज कराऊँगी। पता नहीं ठीक होगी या नहीं। आम ज़िंदगी जीने की इच्छा नही है मुझे, पर मैं अपनी लड़ाई जारी रखूंगी। लड़ाई से फ़र्क पड़ता है, हालात बदलते हैं। फिर कभी आप सुनेंगी..... मुझे पकड़कर ले गए। क्या हुआ? आज तो आपकी बेटी की सगाई है। आप को घर नही जाना?
सुजाता: हाँ, चलती हूँ। फिर कभी आऊँगी।
नन्दिनी: क्या करेंगी आकर? क्या मिलेगा आपको? जो बीत गया है, उसमें कब तक जिएँगी आप?
सुजाता: तुम कहती हो तो नहीं आऊँगी। तुमसे मिलने कभी नहीं आऊँगी। सोमू की माँ से मिलने भी नहीं जाऊँगी। जहाँ-जहाँ मेरा व्रती है, मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। शायद यही मेरी सज़ा है। व्रती को न जानने की सज़ा, नन्दिनी, व्रती को न पहचानने की सज़ा। जाने से पहले मैं तुम्हें एक चीज देना चाहती हूँ, क्या लोगी?
नन्दिनी: क्या?
सुजाता: व्रती की तसवीर...
नन्दिनी: दीजिए। (तस्वीर लेती है।)
सुजाता: चलती हूँ, अपना ख्याल रखना।
नन्दिनी: जी.....
(नन्दिनी स्टेज के एक कॉर्नर पर स्थिर हो जाती है। सुजाता बाहर जाते हुए स्टेज के दूसरे छोर पर रुक जाती है...स्टेज पर अँधेरा। सुजाता पर स्पॉट लाइट। कहती है...)
सुजाता: व्रती बेटे, तुम ठीक ही कहते थे। इस घर में मुझे पायदान की तरह इस्तेमाल किया गया। इस टूटे हुए घर को संभालते-संभालते कब मेरी ज़िंदगी बिखर गई पता ही न चला! शायद इसी कारण मैंने तुम्हें खो दिया, पर आज? आज मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम्हारे सपनों की साझीदार हूँ। अब मैं तुम्हें अपना बेटा नहीं मानती। एक साथी, कोमेरेड, दोस्त, मानती हूँ, कोमरेड...
(प्रतिध्वनि गूंजती है- कोमरेड जिंदाबाद...कोमरेड जिंदाबाद...स्पॉट लाइट सूत्रधार के चेहरे पर)
सूत्रधार: आप लोग क्या मूक दर्शक बन बैठे रहेंगे? कुछ तो बोलिए! चुप मत रहिए। सिर्फ़ एक बार सब मिलकर कहिए—‘तुम और मत भागो, उस ऊँची दीवार को लाँघकर चले आओ। अपने प्रतिवाद से तोड़ दो इस समाज की सारी विषमताएँ। तोड़ दो....तोड़ दो। हम तुम्हारे साथ हैं। हम तुम्हारे साथ हैं।
(परदा गिरता है।)
------------समाप्त------------