हज़ार चौरासी की माँ - भाग 4 Mallika Mukherjee द्वारा नाटक में हिंदी पीडीएफ

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हज़ार चौरासी की माँ - भाग 4

नाटक ‘हज़ार चौरासी की माँ’

मूल बांग्ला उपन्यास - महाश्वेता देवी

बांग्ला नाट्य रूपांतर - शांति चट्टोपाध्याय

हिन्दी नाट्य अनुवाद - मल्लिका मुखर्जी

 

दृश्य 4

सोमू की माँ:  (दरवाज़ा खोलते हुए) ओह! आप! मेरा सोमू....(कहकर रोने लगती है।) सोमू कहाँ खो गया दीदी?    

 (सुजाता को सोफ़े पर बिठाती है। दूसरे सोफ़े पर सोमू की माँ बैठती है।)

सुजाता:  रोकर क्या करोगी बहन?

सोमू की माँ: मेरी बेटी भी यही कहती है, माँ रोना नहीं। सोचती हूँ तो दिमाग काम नही करता।  

सुजाता:  ज्यादा मत सोचिए, सिर्फ़ दु:ख बढ़ता जाएगा।

सोमू की माँ: आप के बेटे ने तो जानबुझ कर अपनी जान दे दी...

सुजाता: कैसे?     

सोमू की माँ:  वो तो सोमू को सावधान करने आया था। दीदी, व्रती को पता चल गया था कि सोमू को पुलिस ढूँढ लेगी। उसी रात व्रती ने आकर मुझे पूछा, ‘मौसी, सोमू कहाँ है? मैं उसे एक बात बताकर चला जाऊँगा।’ 

सुजाता: अच्छा?

सोमू की माँ: मैंने उसे कहा, ‘रात में तुम इस कॉलोनी को पार नही कर पाओगे। आज की रात रुक जाओ।’ सोमू, पियुष, व्रती सभी यहाँ रुके थे उस रात।

सुजाता:  क्या व्रती आप के घर आता-जाता रहता था? 

सोमू की माँ: क्या आप नहीं जानती? कितनी बार आया है वह हमारे घर। आते ही कहता, ‘थोड़ा पानी दे दो मौसी....थोड़ी चाय पिला दो मौसी।’ मैं उसे कहती, ‘क्यों अपना जीवन बरबाद कर रहे हो बेटे? क्या नहीं है तुम्हारे पास? कितने धनी है तुम्हारे पापा, कितनी विद्वान है तुम्हारी माँ!’ वह कुछ नही कहता था, सिर्फ़ हँस देता था। उसकी प्यारी सी मुस्कान आज भी मेरी आँखों के सामने है। 

सुजाता:       फिर क्या हुआ? कुछ बता सकती हो?

सोमू की माँ: (उठते हुए) और क्या कहूँ। उसके बाद वे सब हमारे जीवन को शून्य में बदलकर चले गए। उन्हे जेल में बंद रखते, मार-पीट कर छोड देते। उन्हें जान से क्यों मार दिया दीदी? आपने, मैंने, ऐसा क्या गुनाह किया था कि हम ज़िंदा रहे और बच्चे चले गए! 

सुजाता: हमारा गुनाह सिर्फ़ इतना है कि हम उनकी माँ हैं। तभी हमें उन्हें खोना पड़ा, पर अब रोने से काम नहीं चलेगा। क्या तुम बता सकती हो, उस रात हक़ीकत में क्या हुआ था? 

सोमू की माँ: उस रात की बात सोचकर भी डर लगता है दीदी। ऐसा आतंक मैंने कभी नही देखा! उस वक़्त रात के बारह बजे होंगे, बच्चे सो रहे थे। अचानक चीख-पुकार, गाली-गलौज की आवाजें आने लगी। कुछ ही देर में बाहर दरवाज़ा तोड़ने की आवाज़ आने लगी। हमारे मकान को चारों ओर से घेर लिया गया था। वे कहने लगे, ‘दरवाज़ा खोलो, वर्ना पूरे मकान को आग लगा देंगे।’ बच्चे बाहर जाना चाहते थे, मैंने उन्हे रोका। कहा, ‘अगर अभी बाहर जाओगे तो तुम्हें शिकार की तरह चीर-फाड़ देंगे। मैं तुम्हें नही जाने दूँगी।’ कुछ ही देर में गुंडो ने दरवाज़ा तोड़ दिया। मुझे धक्का मारकर गिरा दिया। पहले उन पर छुरी से वार किया, फिर गोली चलाई। उसके बाद उनके पैरों में रस्सी बांधकर घसीटते हुए ले गए। मै बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी। 

सुजाता: रोना नहीं बहन...रोने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। हिम्मत रखो बहन, हिम्मत रखो... 

(सुजाता सोमू की माँ को सोफ़े पर बिठाती है। थोडा पानी देती है)

सोमू की माँ:   दीदी, आप बुरा न माने तो एक बात कहूँ? 

सुजाता:  हाँ.. हाँ... बिलकुल कहो।

सोमू की माँ: दीदी, आप यहाँ आती है न, बस्ती के लोग बातें करते हैं।

सुजाता: क्या बातें करतें हैं?

सोमू की माँ: व्रती की माँ क्यों आती है यहाँ? कौनसी खिचडी पकाती हैं? मेरी बेटी बहुत डर गई है।

सुजाता:  कौन है ये लोग?

सोमू की माँ: वे ही, जिन्होंने सोमू और व्रती को मारा है। उन पर कोई केस नही हुआ। बस्ती में सीना तान के घूमते रहते हैं। हर वक्त चाय की दुकान पर खड़े रहते हैं। आती-जाती मेरी बेटी को ताने मारते रहते हैं। दीदी, मैंने अपना बेटा खोया है, अब मैं बेटी को खोना नहीं चाहती।

सुजाता:   ठीक है, मैं अब नही आऊँगी, कभी नही आऊँगी। तुम निश्चिंत रहो, चलती हूँ। (सुजाता बाहर की ओर जाने लगती है। 

             (स्टेज पर अंधेरा। नन्दिनी के घर का सेट बनायें....रोशनी सुत्रधार के चेहरे पर)

सुत्रधार: समय कुछ भी कर सकता है। आज से दो साल पहले सुजाता देवी और सोमू की माँ के बीच का आर्थिक भेद मिट गया था। दोनों का दर्द उस काँटापुकुर के मुर्दाघर में एक जैसा था, पर समय बड़ा निष्ठुर है। वह अपने अंदाज़ में बहता रहता है, तभी आज सुजातादेवी, सोमू की माँ से अब कभी न मिलने का वादा करके आ गई। आर्थिक भेद बीच में आ गया। एक ही सवाल सुजातादेवी के मन को  विचलित करता है, क्यों हजारों तरुण युवाओं का जीवन प्रताड़ित है। क्या उनकी नीतियाँ समाप्त हो रही है? अब सुजातादेवी जा रही है, नन्दिनी के घर। नन्दिनी, जिससे व्रती प्रेम करता था। आर्थिक संकट के रहते भी पिताने उसे एक प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ाया है। व्रती उसके कॉलेज का सहपाठी था। दोनों में सहज दोस्ती थी। दोनों ने साथ-साथ ही सुनी हजारों लोगों के रुदन की आवाज, हाहाकार, ‘बचाओ.. कोई है? हमें बचा लो।’ यही चित्कार क्रमशः असंख्य प्रतिध्वनि में परिवर्तित होकर उनके निस्तब्ध मन पर आघात करने लगे। उनके बीच संवाद थम गए। उनके मन में जन्म लिया एक विद्रोह ने। उन्होंने गरीब के लिए हथियार उठाए। भूमिहीन के लिए जमीन माँगी और शुरू हुआ दमनचक्र......लाठीचार्ज...टियर गेस....गोलियों की आवाज़!  खून....ह्त्या....खो गया व्रती! फिर खुद को नन्दिनी ने पाया एक अँधेरी कोठरी में....दो साल बीत गए हैं, अब पैरोल पर छूटी है; इलाज के लिए।

 (सूत्रधार के चेहरे से रोशनी हट जाती है। स्टेज पर रोशनी। नन्दिनी का घर।  कमरे में टेबल क्लोथ बिछाया हुआ एक टेबल, दो कुर्सियाँ। टेबल पर एक जग में पानी, दो ग्लास रखे हैं। नन्दिनी कुछ काम कर रही है। आँखों में दवाई डालती है। दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़) 

(क्रमशः)