नाटक ‘हज़ार चौरासी की माँ’
मूल बांग्ला उपन्यास - महाश्वेता देवी
बांग्ला नाट्य रूपांतर - शांति चट्टोपाध्याय
हिन्दी नाट्य अनुवाद - मल्लिका मुखर्जी
चरित्र : सूत्रधार, दिव्यनाथ, सुजाता, व्रती, सरोज, सोमू की माँ, नन्दिनी
दृश्य – 2
सुजाता: ओह! आप? इतनी रात को नशे में धूत होकर घर लौटते हुए शर्म नहीं आती आपको? बाकी की रात भी बाहर ही बिता देते।
दिव्यनाथ: (लड़खड़ाते क़दमों से...) थोड़ी-सी देर क्या हो गई, इतना गुस्सा? बात क्या है आखिर? इतनी रात को तुम जाग रही हो? नाथू कहाँ मर गया?
सुजाता: तुम रात को कितने बजे लौटोगे, कुछ पता नहीं। तुम्हारे भरोसे नाथू को क्या रात भर बिठाकर रखूँ? सारा दिन घर के कामों में लगा रहता है, अब सो गया है। डॉक्टर ने ना कहा है, फिर भी अपनी ये आदत छोड़ नहीं पाते? देखो ठीक से खड़े भी नहीं रह पा रहे हो।
दिव्यनाथ: ओह! एक ही बात बार-बार क्यों दोहराती हो? आज पता नहीं चला थोड़ी ज्यादा पी ली।
सुजाता: देर रात को नशे में धूत होकर कौन लोग घर लौटते हैं क्या नहीं जानते तुम?
दिव्यनाथ: जानता हूँ, तुम क्या बताओगी? जो अपने आप को कंट्रोल नहीं कर पाते वही देर से लौटते हैं, लेकिन वे घर आकर शोर मचाते हैं। बीवी को पिटते हैं। क्या मैंने कभी तुम पर हाथ उठाया?
सुजाता: वाह! अदभुत! गिरना हो जीवन में, तो इन्सान इस तरह भी गिरता है! वाह! बहुत हो चुका नाटक.....जाओ ...अंदर जाकर सो जाओ।
दिव्यनाथ: और तुम क्या अपने जीनियस बेटे व्रती बाबू के लिए जाग रही हो?
सुजाता: मेरी चिंता मत करो, हाथ जोडती हूँ। जाओ अब यहाँ से, जाओ....
दिव्यनाथ: सुजातादेवी, जिसके बारे में तुम इतना सोचती हो, वो भी क्या तुम्हारे बारे में सोचता है? सोचो, आज अगर वह घर नहीं लौटा तो?
सुजाता: वह तो मैं देखूंगी न, इससे आपको क्या मतलब?
दिव्यनाथ: कहाँ गया है वह?
सुजाता: अलीपुर गया है, राजू के घर।
दिव्यनाथ: अलीपुर? राजू के घर? इम्पोसिबल....
सुजाता: फिर तो, जो पोसिबल है वही करो न? इतनी रात हो गई बेटा घर नहीं लौटा, किसी को कोई फ़िकर ही नहीं!
दिव्यनाथ: क्या करूँ? फ़ोन करूँ, कहाँ? पुलिस स्टेशन? पागल नहीं हूँ मैं! तुम्हें क्या लगता है? व्रती क्या करता है, कहाँ जाता है, मैं नहीं जानता? उसने अपनी अलग राह चुनी है। ढूंढने से मिल जाए, इतना बेवकूफ़ नहीं है तुम्हारा बेटा, समझी? मैं सोने जा रहा हूँ।
सुजाता: जाओ, अगर नींद न भी आए तो ये नशा ही तुम्हें सुला देगा। मैं थोड़ी न नशे में हूँ? मुझे तो जागना ही होगा, व्रती के लिए...
दिव्यनाथ: ठीक है, जागती रहो। एक बात याद रखना, तुम भी अपने बेटे के नशे में अच्छे-बूरे की पहचान खो चुकी हो। अगर कुछ बुरा हुआ तो उसके लिए तुम ही ज़िम्मेदार रहोगी।
सुजाता: अगर मैं कहूँ कि उसके लिए तुम ज़िम्मेदार हो तो? तुम्हारी मनमानी ने ही उसे घर छोड़ने पर मज़बूर किया है.....
दिव्यनाथ: अच्छा? मेरी मनमानी? क्या तुम मनमानी नहीं करती?
सुजाता: मैं? क्या मैं मनमानी करती हूँ? यह कहते हुए तुम्हें जरा भी संकोच नहीं हुआ?
दिव्यनाथ: नहीं, क्योंकि तुम भी मनमानी ही करती हो। तुम व्रती के सिवा किसी को नहीं जानती। मेरा-तुम्हारा अब रिश्ता ही क्या है? जस्ट रुटिन। नौकरी छोड़ने को कहता हूँ तो भड़क उठती हो। व्हाय..सुजाता व्हाय? सिर्फ़ मुझे नीचा दिखाने के लिए?
सुजाता: शर्म नहीं आती यह कहते हुए? एक दिन तुम्हें एस्टाब्लिश करने के लिए मुझे नौकरी करने पर मज़बूर होना पड़ा था। आज वही मनमानी बन गया? छि....मुझे घिन आती है तुम से बात करते हुए।
दिव्यनाथ: सत्य हमेशा कड़वा होता है। बताओ, अब नौकरी करने की क्या ज़रूरत है?
सुजाता: तुम्हारी जरूरतें पूरी हो गई है, लेकिन मेरी अब भी बाकी है।
दिव्यनाथ: क्या बाकी है? बताओ क्या बाकी है?
सुजाता: क्यों? स्वावलंबी बनकर जीना अपराध है क्या?
दिव्यनाथ: जाने दो, तर्क करने से कोई फ़ायदा नहीं। मैं सोने जा रहा हूँ, गुड नाइट...
(दिव्यनाथ भीतर के कमरे में चला जाता है। सुजाता सोफ़े पर बैठ जाती है। धीरे-धीरे डिम लाइट होती है। रात वह सोफ़े पर ही गुजार देती है। व्रती नहीं लौटा है। भोर हो रही है। स्टेज पर पूर्ण प्रकाश फैलता है, तभी फ़ोन की घंटी बज उठती है। सुजाता उठकर फ़ोन हाथ में लेती है।)
सुजाता: हैलो ...
आवाज़: इज इट 460 001...?
सुजाता: येस ... मिसिस चेटर्जी स्पीकिंग....
आवाज़: मिसिस दिव्यनाथ चेटर्जी?
सुजाता: हाँ .... हाँ ....
आवाज़: घर पर कोई आदमी नहीं है क्या?
सुजाता: सब सो रहे हैं, मुझे बताइए।
आवाज़: व्रती चेटर्जी से आपका क्या रिश्ता है?
सुजाता: बेटा है मेरा, आप कौन बोल रहे हैं?
आवाज़: काँटापुकुर आ जाइए। पहचान करनी है आपके बेटे की।
सुजाता: व्रती को कुछ हुआ है क्या?
आवाज़: व्रती चेटर्जी की पहचान करनी है। आप काँटापुकुर आ जाइए, फ़ौरन..
सुजाता: काँटापुकुर में कहाँ?
आवाज़: काँटापुकुर के पुलिस मुर्दाघर में। लाशें रखते हैं यहाँ...
(सुजाता के हाथ से फ़ोन गिर जाता है। स्टेज पर अँधेरा....रोशनी सूत्रधार के चेहरे पर...सुजाता बाहर चली जाती है। स्टेज पर अब पुलिस स्टेशन का दृश्य.... दो कुर्सियाँ, एक टेबल, टेबल पर कुछ फाइलें रखी हैं। पुलिस इंस्पेक्टर सरोज पाल आकर खड़ा हो जाता है....)
सूत्रधार: काँटापुकुर मुर्दाघर में अब बहुत सारी लाशें पड़ी हैं, युवाओं की लाशें। ये लाशें बारी-बारी से अपने बयान लिखवा रही हैं। शहर के रास्तों पर हर जगह दिख रहे हैं, खून के धब्बे। हर गली में पुलिस तैनात है। वहाँ एक युवा दल दीवार पर कुछ लिख रहा है। वो देखिए, लिखना ख़त्म होने से पहले ही गोलियों की बौछार हो गई! देखिये, वही युवा पल में लाश बन गए! ये युवा दीवार पर क्या लिख रहे थे? क्यों लिख रहे थे? उन्हें काँटापुकुर मुर्दाघर में पहुँचने की इतनी तलब क्यों है? पचास, सौ, पाँच सौ, हज़ार! व्रती का नंबर है एक हज़ार चौरासी। दिव्यनाथ चेटर्जी काँटापुकुर के मुर्दाघर में नहीं जाते, न ही सुजाता देवी को उनकी गाड़ी देते हैं। किसी ने उस मुर्दाघर के सामने उनकी गाड़ी को पहचान लिया तो? उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा, व्यवसाय को बड़ी हानि हो सकती है। उन्हें अब भी बहुत रुपयों की ज़रूरत है। किसी भी तरह व्रती चेटर्जी की फ़ाइल बंद करवानी होगी, पर सुजाता देवी? वो अपना सब कुछ छोड़कर टेक्सी में जा रही है, काँटापुकुर मुर्दाघर की ओर....यहाँ पर एक और माँ आर्तनाद कर रही है, जिन्हें देखकर सुजाता देवी दिग्मूढ़ हो जाती है।
(सूत्रधार के चेहरे से रोशनी हट जाती है। स्टेज पर रोशनी हो रही है। टेबल के सामने कुर्सी पर पुलिस इंस्पेक्टर सरोज पाल बैठा है।)