घर की मुर्गी दाल बराबर Saroj Prajapati द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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घर की मुर्गी दाल बराबर

बादल घिर आए थे और किसी भी समय तेज बारिश हो सकती थी।।
आस्था ने जल्दी से अपना पर्स उठाया और बाहर निकलने लगी। तभी उसकी साथी टीचर्स बोलीं

आस्था थोड़ी देर रुक जाओ। देखो तो बारिश होने वाली है भीग जाओगी।। वैसे भी आज तुम कह रही थी कि सुबह से ही तुम्हें फीवर जैसा लग रहा है!!

नहीं मंजुला! नहीं रुक सकती। सुबह बालकनी में कपड़े सूखने के लिए डाले थे। समय से नहीं पहुंची तो भीग जाएंगे और वैसे भी बच्चे भी स्कूल से आ गए होंगे।। रोज-रोज पड़ोसियों को कह भी नहीं सकती। अभी इतनी जान पहचान भी तो नहीं!!

कहते हुए मंजुला ने जल्दी से बाहर निकल अपनी स्कूटी स्टार्ट की। अभी वह कुछ ही दूर चली थी कि तेज बारिश शुरू हो गई। सभी टू व्हीलर वाले कहीं ना कहीं बारिश से बचने के लिए जगह की तलाश में लगे थे लेकिन आस्था चाहकर भी नहीं रूक सकती थी।


बारिश की वजह से स्कूटी की स्पीड भी कुछ कम हो गई थी। घर पहुंची तो दोनों बच्चे घर के बाहर बैठे हुए मिले।।

उसे देखते ही तीन साल की पीहू चहकते हुए बोली मम्मी आप तो बारिश में नहाकर आए हो। हमें भी बारिश में भीगना है। चलो ना मम्मी!!

नहीं बेटा!! मैं बारिश में नहाकर नहीं आई। यह तो स्कूटी पर थी इसलिए भीग गई और वैसे भी मौसम बदल रहा है। बीमार पड़ जाओगे। चलो जल्दी अंदर!!

ठीक है मम्मी!! तो आप हमारे लिए कुछ अच्छा सा बना दो!!
हां जैसे दादी बनाती थीं। बारिश होते ही दादी भजिए और हलवा बनाती थीं।
7 साल का रियान खुश होते हुए बोला।।

ठीक है ठीक है। अपनी फरमाइशें बाद में सुनाना। पहले कपड़े चेंज करो!!
आस्था ने जल्दी से अपने गीले कपड़े बदले और बालकनी में गई । कपड़े तो पूरी तरह भीग चुके थे। सुबह समय निकालकर कपड़े धोकर गई थी कि आकर थोड़ा आराम कर लेगी लेकिन क्या पता था कि अचानक मौसम बदल जाएगा और उसकी सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा!!
मम्मी हमने कपड़े बदल लिए जल्दी से कुछ बना दो ना!!
भीगने के कारण आस्था का शरीर कुछ ज्यादा ही टूट सा गया था। सुबह से ही उसे बुखार सा लग रहा था लेकिन बच्चों के लिए खाना तो बनाना ही था और खुद भी तो खाना है उसे!!
मन ना करते हुए भी उसने बच्चों के लिए भजिया बनाए। खुद के लिए रोटी।
इतने में ही उसे बहुत थकावट हो गई । मन नहीं कर रहा था उसका खाना खाने का लेकिन कुछ खाए बगैर दवाई भी तो नहीं ले सकती थी।।

बच्चों के साथ किसी तरह उसने एक रोटी खाई और फिर बच्चों को सुला दवाई लेकर खुद भी लेट गई।।

लेकिन नींद उसकी आंखों से कोसों दूर थी। बालकनी में भीगते कपड़े और घर में फैला काम उसे चैन से सोने भी नहीं दे रहा था।
लेकिन क्या करती यह जिंदगी उसने खुद ही तो चुनी थी।
आस्था ने लगभग साल भर पहले ही यह फ्लैट लिया था। इससे पहले वह अपनी ससुराल में संयुक्त परिवार में रहती थी। जहां सास ससुर के अलावा वह दोनों पति पत्नी व एक देवर था। जिसकी शादी अभी कुछ साल पहले ही हुई थी । जेठ जेठानी अलग रहते थे और एक शादीशुदा ननद थी। जो अपनी ससुराल में रहती थी।
रियान का 1 साल का होते ही उसकी नौकरी लग गई थी।।
सुबह का खाना पीना और चाय नाश्ता बना कर वह स्कूल चली जाती । रियान को नहलाने धुलाने से लेकर उसके खाने-पीने और देखभाल की जिम्मेदारी सास के ऊपर ही थी।
उसके साथ पीछे से भी घर के छोटे-मोटे काम उसकी सास निपटा देती जैसे कपड़े सुखाना, सब्जी लाना, सब्जी काटना, कपड़ों की तह बनाना और उसके बीमार होने पर खाने पीने की जिम्मेदारी भी सास निभाती।।

रियान का तो उसे पता ही ना चला कि वह कब 3 साल का हो गया क्योंकि सास के साथ साथ ससुर व देवर भी उसके खूब लाड चाव करते थे।
आस्था का पति शेखर तो अपनी नौकरी के कारण महीने में दस पंद्रह दिन तो बाहर ही रहता था।
लेकिन सास ससुर व देवर के सहयोग से आस्था निश्चित होकर नौकरी कर रही थी। स्कूल से आने के बाद भी उसे घर सिमटा मिलता इसलिए खाना खा वह आराम से सो जाती और शाम की चाय के समय उठती।

जो उसे उसकी सास ही अक्सर बना कर पिलाती। सास उसकी भागदौड़ समझती थी।
लेकिन सास के इतने सहयोग के बाद भी आस्था की नजरों में अपनी सास के लिए वह सम्मान नहीं था जो होना चाहिए। कभी उसकी सास उसके देर से आने या कहीं जाने के बारे में पूछ लेती तो उसे बुरा लगता कि सास टोका टाकी करती है।
जब उसके साथी टीचर्स उसकी सास की बड़ाई करते हुए कहते कि क्या हुआ अगर उन्होंने कुछ कह भी दिया तो बड़ी है और सबसे बड़ी बात सास होकर तेरे साथ काम करवा रही है।
यह सुन आस्था तुनकते हुए कहती
वो दो काम करती है तो मैं भी तो चार काम करती हूं और साथ में नौकरी भी!!

आस्था तुझे घर की मुर्गी दाल बराबर लग रही है। तुझे इतनी अच्छी सास मिली लेकिन तुझे उनकी अहमियत समझ नहीं आ रही।
अगर हमारी तरह अकेले नौकरी के साथ साथ बच्चे पालने पड़ते और घर संभालना पड़ता तब तुम्हें समझ आती अपनी सास की कीमत।
मुग्धा अक्सर उसे समझाते हुए कहती।

और मेरी जैसी सास मिल जाती तब क्या करती। जो साथ तो रहती है लेकिन एक गिलास इधर से उधर उठाकर नहीं रखती।
रेखा हंसते हुए कहती।

लेकिन वो कहते है ना जब तक खुद पर बितती नहीं तब तक समझ नहीं आती।

देवर की शादी के बाद तो आस्था को अपनी सास का देवरानी के सामने उसे कुछ कहना और अखरने लगा।
उसे लगता सासू मां जानबूझकर देवरानी के सामने उसे सुना रही है जबकि ऐसा कुछ नहीं था। उसकी देवरानी तो उसे अपनी बड़ी बहन मानती थी।

पीहू की डिलीवरी में ननंद नहीं आ सकी तो देवरानी ने ही घर के साथ-साथ जच्चा बच्चा की जिम्मेदारी हंसते-हंसते संभाली थी।
लेकिन जब देवरानी के यहां खुशखबरी आई तो आस्था को वह खुशी ना हुई।
देवरानी को बच्चा होने के बाद उसके ऊपर काम की जिम्मेदारियां आ गई थीं और आस्था को इतना काम करने की आदत पहले से ही ना थी और देवरानी के आने के बाद तो बिल्कुल ही छूट गई।
हां घर के खर्चे भी थोड़े बढ़ने लगे थे। उसे लगता कि देवर देवरानी की गृहस्थी के कारण उस पर खर्चों का दोहरा बोझ पड़ रहा है जबकि ऐसा नहीं था। देवर अच्छा खासा कमाता था लेकिन आस्था को लगता है कि इनकी एक की कमाई और हमारी दो कमाई तो खर्चा हम ज्यादा करते हैं!!

अपनी इसी मानसिकता के कारण उसने अपने पति को अलग से घर लेने के लिए जोर डालना शुरू कर दिया और तर्क दिया कि यहां आस-पास अच्छा स्कूल नहीं। बच्चों की एजुकेशन अच्छी होनी चाहिए। दूसरा संयुक्त परिवार में बच्चे बिगड़ जाएंगे!!

उसकी बात सुनकर उसके पति ने उसे समझाया भी कि संयुक्त परिवार में बच्चे बिगड़ते नहीं अपितु दूसरों से सामांजस्य बिठा कर जीना सीखते हैं। संस्कार सीखते हैं ।
और अच्छे स्कूल क्यों नहीं यहां। मैं भी तो इन्हीं स्कूलों में पढ़कर इतनी अच्छी नौकरी लगा हूं!!
और फिर दोनों बच्चे छोटे हैं। तुम अकेले कैसे संभालोगी। मैं तो तुम्हें पता ही है ना कि ऑफिस के काम से अधिकतर बाहर रहता हूं!!

आप समझते ही नहीं। अभी तो आपकी आंखों पर अपने परिवार के प्रेम की पट्टी पड़ी है लेकिन सोच कर देखिए। अभी बच्चे छोटे हैं। अगर अभी घर ले लिया तो लिया जाएगा वरना बाद में खर्चे बढ़ने पर मुश्किल हो जाएगी ।फिर आज नहीं तो कल अलग तो होना ही है। इस घर में दो भाइयों का गुजारा तो संभव नहीं!!

और आप बेफिक्र रहिए। मैं दोनों बच्चों को अकेले संभाल सकती हूं!!
आस्था की रोज-रोज की जिद के कारण आखिर उसके पति को हामी भरनी पड़ी।।
सास ससुर से लेकर देवर देवरानी तक उसके उस घर से विदा होने पर कितना फूट-फूटकर रोए थे और वह कितनी खुश थी
कि चलो अब आजादी से जिएगी। अपनी सेविंग कर सकेगी और सबसे बड़ी बात कोई रोक-टोक करने वाला नहीं होगा।
लेकिन उसकी यह खुशियां ज्यादा दिन नहीं टिक सकी जैसे ही सच्चाई से उसका सामना हुआ। वह धड़ाम से धरती पर आ गिरी।।
बच्चों को तो उसने कभी संभाला ही ना था और घर का काम पहले सास के साथ मिलजुल कर करती और फिर देवरानी ने सारी जिम्मेदारी संभाल ही ली थी।
लेकिन उसने कभी ना सास का एहसान माना और देवरानी पर तो वह एहसान ही जताती आई थी।
दोनों ही उसके लिए घर की मुर्गी दाल बराबर थी लेकिन अलग होने के बाद उसे दोनों की अहमियत पता चल गई।।
स्कूल से निकलते हुए उसे अक्सर देर हो ही जाती। छुट्टी के समय प्रिंसिपल कभी मीटिंग तो कभी कुछ जरूरी काम से रोक ही लेती।
और अगर स्कूल से सही समय पर भी निकली तो आते हुए घर के 2-4 काम निपटाते हुए आती। जिससे देरी होनी संभव थी
इसलिए बच्चे अक्सर घर के बाहर बैठे हुए मिलते थे उसे।
रोज-रोज पड़ोसियों के यहां फोन करना भी अच्छा नहीं लगता वैसे भी अभी एक ही साल तो हुआ था उसे!!

वैसे भी सोसाइटी व फ्लैट्स में कहां कौन किसी से इतना मतलब व अपनत्व रखता है।।

अपने तो अपने ही होते हैं लेकिन उन अपनों को वह अपने स्वार्थ की बलि चढ़ा आई थी।

पहले जब वह स्कूल से आती थी तो रियान को उसकी सास कपड़े बदल कर खिला पिला कर सुला चुकी होती थीं और वह भी तो आकर आराम से कपड़े बदल खा पीकर सो जाती है और उठते ही सास के हाथ की चाय और बाद में देवरानी के हाथों की।।
अब तो कितनी बार स्कूल से आकर वह घर को समेटने और बच्चों को संभालने में ही थक जाती थी। इसलिए कभी-कभी अपना खाना भी छोड़ देती।
और चाय पीने में तो उसे अब मजा है ना आता!
पति से किसी बात की अपेक्षा कर ही नहीं सकती थी क्योंकि उन्होंने तो पहले ही उसे समझाया था। हां जब वह यहां होते तो उसकी पूरी मदद करवाने की कोशिश करते हैं!!
आस्था को कई बार अपने ऊपर गुस्सा भी आता और सास देवरानी के साथ किए अपने व्यवहार पर पश्चाताप भी।

लेकिन अब क्या हो सकता था। यह फैसला उसका लिया हुआ था। इससे पीछे भी तो नहीं हट सकती थी।
सोचते सोचते आस्था की आंखों से आंसू निकल आए।

दोस्तों कैसी लगी आपको मेरी यह रचना। पढ़कर इस विषय में अपने अमूल्य विचार कमेंट कर जरूर दें।
आपकी सखी सरोज ✍️