नक्षत्र कैलाश के - 22 Madhavi Marathe द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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नक्षत्र कैलाश के - 22

                                                                                             22

यह नेपाल और तिबेतियन लोगों की परिक्रमा करने की पध्दति हैं | अर्थात, पहिले पैदल परिक्रमा करने के बाद ही कैलाश पर्बत के नजदीक मार्ग से यह प्रदक्षिणा प्रक्रिया को अनुमति दी ज़ाती हैं| इस परिक्रमा के लिए पंधरा दिन लगते हैं | पैदल या याक पर बैठकर की हुई परिक्रमा, तीन दिन में करते हैं | कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जो एक दिन में परिक्रमा पूरी करते हैं, उन्हें छोकर कहते हैं| हमें सीधा चलना भी मुश्किल हो रहा था और यहाँ ये लोग इतने दिन, ऐसे पध्दती से परिक्रमा कैसे करते हैं ? और एक अचरज की बात दिखाई दी | कुछ औरते अपने पीठ पीछे बच्चो को बाँधते हुए यह पुर्ण प्रणाम प्रक्रिया से परिक्रमा कर रही थी |

कितनी कमी हैं अपने अन्दर इस बात का तीव्र एहसास होता हैं| सुंदर छोटे बच्चे कैसे इतनी ठण्ड और धुप सहेन कर पाते होंगे ? कुछ आमिर लोग पैसा देकर गरीब लोगो से परिक्रमा करवाते हैं | भारतीय लोग दाएँ ओर से परिक्रमा चालू करते हैं तो तिबेतियन लोग बाएँ से ,ऐसे परिक्रमा करते हैं | ज़ाप करते समय भी वह दाएँ हाँथ का प्रयोग करते हैं | यहाँ की जो नदियाँ हैं उनकी भाषा में अलग अलग नाम से जाने ज़ाती हैं , जैसे सिंधु –सेंगेखंबाब, सतलज-लांजेन खंबाब, कर्नाली-  मलचू खंबाब, ब्रम्हापुत्रा-  तामचीक खंबाब| प्रकृति एक ही लेकिन शब्दों के खेल ने प्रान्त , देश , खंडो को ही विभाजीत कर दिया | खयालोंकी दुनिया में तैरते तैरते एक तरफ की ढ़लान तो पार कर दी | दूर कही हिमखंड़ नजर आने लगा | अब क्या करें ? आगे पीछे तो कोई नहीं था | हिमखंड़ पर से गुजरना आसान बात नहीं, क्योंकि कहाँ पैर रखें, कहाँ बर्फ की पतली परत हैं ये तो सिर्फ ज़ानकार आदमी ही बता सकता हैं | इतने में दौड़ते हूए पोर्टर आ गया | उसकी मदद से वह हिमखंड़ पार करने लगी | कुछ देर, आगे जाने के बाद अत्यंत छोटा पतला रेत मिश्रित पथरीला मार्ग सामने आया, पहलेही ढ़लान का रास्ता और उसके ऊपर रेत मिश्रित मार्ग | पैर कहाँ से फिसल ज़ायेगा इसकी तो शाश्वतीही नहीं थी | धीरे धीरे रास्ता काटने लगी | अब चढ़ान ढ़लान कम होते ज़ा रहे थे | हमारा जीवन भी ऐसा ही हैं बाल्यावस्था,युवावस्था से चढते जाते है, प्रौढ़ावस्था से उतरने लगते हैं और जब बुढ़ापा आता हैं तो समतल हो जाता हैं | इस कारण उनके विचारों में भी प्रगल्भता आ ज़ाती हैं।

लामच्यु नदी किनारे ,पीली चुपड़ी मिट्टी के कारण हल्दी के रंग जैसे दिख रहे थे| शामवर्णी झोंगच्यु के नदी किनारे से हमारा सफ़र चालू हो गया | सफ़ेद कलकल बहती नदी की धारा मन को लुभा रही थी | इस नदी को बहुत सारी छोटी नदियाँ भी आकर मिलती हैं| छोटी नदी की पतली धार लाँघने में मज़ा आ रहा था| ठंडा पानी, गीले पैर , चुभती ठंडी हवाँ , मन जब हर बात का आनंद लेने लगता हैं तो जिंदगी नए रूप से, अंदाज़ से अपने सामने आने लगती हैं | 
अब सफ़र कभी नदी पात्र से , तो कभी पात्र से दूर ऊंचाई से, तो कभी मुलायम रेत पर से ,तो कभी कीचड़ में पैर फिसलते ऐसा अनोखा पदन्यास करते हुए आगे बढ़ रहा था | बीच में एक होटल दिखाई दिया | वहाँ थोड़ी देर आराम करते हुए फिर से चलना प्रारंभ हुआ| अब हमें एक बड़ी नदी लाँघनी थी , वहा पानी का आवेग भी जोर से था | एक दुसरे का हाथ थामते हुए मानवी जंजीर बना दी | उछलता हुआ पानी हमे जैसे गुदगुदा रहा था | पैर के नीचे से गुनगुना रहा था | हवा में उसका नाद फैला हुआ था | हलकीसी धुप उसमें रंग बिखेर रही थी | सब कुछ कितना हसींन था | एक एक करके सबने वह धाराप्रवाह लाँघ दिया | आगे का सफ़र मैंने याक पर बैठते हुए चालू किया | कुछही घंटे के बाद सामने हिम वर्षाव होता हुआ दिखाई देने लगा | कितना अनुपम नज़ारा था वह | अनावृत्त पर्वत के ऊपर जैसे कोई ममता की चमचमाती कालीन बिछा रहा हो | वह नज़ारा मतलब हमारी भाग्य की परिसीमा जैसे लग रहा था | लेकिन ऐसेही बर्फीली तूफान के कारण पहलेवाली बैच के लोग मुश्किल में पड़ गए थे |

एक बूढ़े चाचा पर तो ज़ान गवाँ बैठने की नौबत आ गई | डोलमा से उतरते वक्त उनका बुरा हाल हुआ | उनको उतरने में बहुत तकलीफ हो रही थी | बर्फ की हवाँ से सब के पैर फिसलने लगे | इस कारण उनको उठा कर लाना भी मुमकीन नहीं था | थोडीही देर में वह बेहोश हो गए | छोटे रस्ते से चार लोग उनको उठा नहीं सकते थे | आखिर, दो पोर्टर ने उनको उठाया और एक गुंफा में वही रख दिया | बाद में दौड़ते दौड़ते वह दोनों पोर्टेर्स नीचे आ गए , बहुत बर्फ जमा हो गया था | रात के कारण अब कुछ नहीं किया ज़ा सकता था | कँम्प में सबका, चिंता से बेहाल हो गया | रात को कभी तो हिमवर्षा रुक गई | भोर होते ही चार पोर्टर गर्म पानी से भरे बड़े बड़े थर्मास लेकर भागते ही ऊपर पहुँच गए | उन्होंने चाचा के कपडे निकाल कर पुरे शरीर पर गर्म पानी डालना चालू किया | हाथ, पैर, माथा ऐसे मर्दन करते हुए उनके शरीर में उर्जा लाने का प्रयास करने लगे | घंटो तक इस प्रक्रिया के बाद चाचा होश में आ गये | गर्म पानी और चाय पिलाने के बाद कुछ ही देर में चलने की अवस्था तक पहुँच गए | पोर्टरने जो मेहनत की थी उसका अच्छा परिणाम आया | पूरी बैच का आनन्द तो अवर्णनीय था | चाचा भाग्यशाली ठहरे | उनका काल तो आया था पर वक्त नहीं आया था | अगर चाचा को रातही होश आ जाता और अँधेरे के कारण वह थोड़ी भी चलने की कोशिश करते तो नीचे गिर सकते थे। या इतना सन्नाटा, अंधेरा, अकेलेपन से उनको हार्टअटैक भी आ सकता था | ऐसी अलग अलग घटनाएँ यात्रा में होती रहती हैं | हमने तो सिर्फ यह बात सुनी थी जिन्होंने यह सब अनुभव किया उनपर क्या बीती  होगी ? हिमवर्षाकी हलकी बूंदों के साथ कब उतरने का ठिकाना आ गया पता ही नहीं चला | झोंगझेरबू नामक यह जगह समुद्रतल से १६५०० फीट की ऊंचाई पर हैं | कैलाश परिक्रमा का महत्वपूर्ण स्थान |  छोटे छोटे कमरों में सब लोगो ने अपना ठिकाना जमाया | बहुत थकान महसूस हो रही थी | लेकिन मन तो जैसे आँसमान में आनन्द से विहार कर रहा था | शांति की अनोखी अदा से परिचित होने से ,एक सुकून जैसे आत्मा पर छाया था | क्यों की आज यात्रा का सबसे कठिन पड़ाव हमने पार किया | गर्म चाय पीते पीते थकान दूर होने लगी|  बर्फ की चद्दर ओढ़े चमचमाते पर्बर्तों के साथ सबने खाना खा लिया और नींद की आगोश में चले गए | यहाँ सुबह, चार बजेही भोर हो ज़ाती हैं | नींद खुल गई फिर भी उठने का मन नहीं कर रहा था | ठण्ड के कारण मुँह बाहर निकलना भी ज़ान पर आ गया | आज देर से सफ़र चालू होने वाला था तो, फलस्वरूप  जल्दी किसी बात की नहीं थी | ऐसे ही चद्दर ओढ़े पड़ी रही | खुशनुमा मौसम हलकेसे दस्तक देने लगा | पवित्र स्पंदन की लहरे आत्मा को छुने लगी | हलके से चद्दर दूर करते हुए बाहर आ गई | रुपहली रंगोकी तेजस्विता दूर तक फैली हुई थी | वही पर अपने आप में सिमटकर बैठ गई | धीरे धीरे लोग उठने लगे | उद्दिष्ट पूर्ती से सबके चेहरे खिले हुए थे | जीवन प्राप्ति का उद्देश सफल हुआ| मानव जन्म सफल हुआ ऐसे मानसिक तरंगो से तन, मन, आत्मा पुलकित हो रही थी | चाय नाश्ते के बाद यात्रा फिर से चल पड़ी | आज कैलाश परिक्रमा का आँखरी दिन था | झोंगझेरबू १६५०० फीट की ऊंचाई पर हैं और तारचेन १५४०० फीट की ऊंचाई पर हैं| १००० फीट नीचे आ ज़ाते हैं | यह दुरी तय करने में लगभग ४ घंटे लगते हैं | हमारा चलना शुरू हो गया | यहाँ से कैलाश दर्शन नहीं हो पाते | पत्थर, मिट्टी, पानी, आकाश और हम ऐसे पंचमहाभूत में अदृश्य कैलाश का अनुभव करते हुए आगे बढ़ने लगे | अजस्त्र पर्बतों की शृंखला देखते देखते ऐसे लग रहा था कैसे तैयार हो गए यह पर्बत ? लांखों साल की प्रक्रिया के बाद का यह रूप होगा। अभ्रक, लोह, चुनखड़ी, और अनेक धातुसम्पन्न पर्बतों की रास, रत्नों की रास, कैलाशपती के सिवाय कहाँ मिलेंगे ? सब कुछ अद्भुत था| नैसर्गिक सुंदरता की लुभावनी सृष्टी देखते देखते आगे बढ़ने लगे | बीच कही झरने लगते तो पानी में पैर उछालते हुए चलने का आनन्द लेने लग ज़ाते, मानो बचपन लौटा हो, मनपर कोई बोझ नहीं, संसार की कोई इति कर्तव्यता नहीं बस अपने मस्ती में नैसर्गिक उत्फुल्लता में समां गए थे |  रास्ता अच्छा था | चलते चलते सामने कुछ दुरी पर चमकीली लहेर दिखने लगी | उसे देखतेही पोर्टर बोला यह गंगा च्यु हैं | जल्दीही रास्ते में एक गहरी खाई दिखाई दी | यह खाई मानससरोवरसे निकलते हुए राक्षस ताल पहूँचती हैं | मानस का ज्यादा पानी यहाँ से बहते हुए राक्षसताल में समाविष्ट हो जाता हैं | कुछ जगह पर यह ४० फीट की चौड़ाई हैं तो कही ८० फीट | खाई की गहराई दो से साढे चार फीट हैं , और लम्बाई ६ कि.मी. तक हैं | प्रकृति का काम कितना नियोजन बध्द होता हैं, अपना शरीर ही देखा ज़ाए तो वह एक अद्भुत करिश्मा हैं | सब एक दुसरे से जूडा हुआ, सुसंगत| कोई भी रचना अवास्तव नहीं या ऐसे ही दे दी ऐसे नहीं |

(क्रमशः)