आख़िर मैं चुप क्यों हूँ? Rama Sharma Manavi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आख़िर मैं चुप क्यों हूँ?

बेटे ने झुँझलाकर कहा,"ओफ्फोह, माँ, आपने औऱ पापा ने अपनी जिंदगी में कितने डिसीजन सही लिए हैं, यह आप अच्छी तरह जानती हैं, इसलिए अपनी जिंदगी का फैसला मुझे ख़ुद करने दीजिए।अपने फैसलों की जवाबदेही मेरी ख़ुद की होगी,फिर मैं किसी को ब्लेम तो नहीं करूँगा।आपने अपनी प्रोफेशनल शिक्षा को व्यर्थ कर दिया,घरेलू कार्यों के लिए इतनी शिक्षा की क्या आवश्यकता थी?क्या आपके साथ की लड़कियों की गृहस्थी या बच्चे सही नहीं हैं?डैड क्या अपने सपनों को घर-परिवार के कर्तव्यों के साथ पूर्ण नहीं कर सकते थे?सच बताइएगा,क्या ये सब बातें आपको परेशान नहीं करतीं।"

मैं हमेशा की तरह ख़ामोश रह गई क्योंकि न तो मेरे पास तर्क करने का विकल्प होता है,न साहस,भले ही तमाम बातें मन में उमड़ती-घुमड़ती रहें।वह जानता है कि मैं उसके पिता के समक्ष कभी भी किसी बात का प्रतिरोध नहीं कर सकी।शायद हमारे संस्कारों में पूरी तरह पैठी हुई विचारधारा कि परिवार में शांति बनाए रखने के लिए सबकुछ सहन करते जाओ,हमें मौन रहने पर विवश कर देता है जो अंततः हमारा स्वभाव बन जाता है।आज के युवा तो वैसे भी अपनी जिंदगी में किसी का तनिक भी हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करते।

मैं हमेशा से ऐसी कहाँ थी।विवाहपूर्व मेरी तार्किकता कमाल की थी,हर बात को बिना तर्क की कसौटी पर कसे मानने का सवाल ही नहीं उठता था।जब नवीं में पहली बार वाद-विवाद प्रतियोगिता में स्टेज पर बोला था तो मेरी बुलंद आवाज एवं ओजस्वी प्रस्तुति के कारण मेरा नामकरण इंदिरा गांधी कर दिया गया था।मेरे दबंग व्यक्तित्व के कारण पीठ पीछे साथी मुझे दुर्गा देवी के नाम से बुलाते थे।

छोटे भाई-बहन मेरी आँखों से डरते थे,जब वे आपस में लड़ते तो मेरी एक डांट से तुरंत चुप हो जाते।यह क्रोध की वजह से नहीं था, अपितु बड़ी बहन का अधिकार माँ की तरह था उन दिनों।माता-पिता की मैं सबसे समझदार सन्तान थी।आज भी भाई-बहन इस बात को कहते हैं कि मम्मी पापा आपको अधिक प्यार करते थे।मैं हँसती थी कि इस प्यार में सिर्फ जिम्मेदारियां थीं,फ़ायदा तो तुम सबने उठाया छोटे होने के कारण।

विवाहोपरांत मेरी सारी समझ पर अंकुश लग गया।दबंग सास का वर्चस्व था,जो अपने छोटे बेटे के अनुकूल थीं।पति की स्थिति मूकदर्शक कार्यकर्ता की थी उन लोगों के समक्ष।किंतु पति का मानसिक प्रभुत्व मुझपर चलने लगा।विवाहोपरांत मैंने महसूस किया कि लड़कियों की मनःस्थिति मायके एवं ससुराल में काफी भिन्न रहती है लेकिन शायद सबकी नहीं।क्योंकि अपने समय में भी मैंने काफ़ी लोगों को सबकुछ शीघ्र अपने नियंत्रण में लेते देखा है, जबकि मैं उम्र के छठें दशक में भी अधिकारविहीन हूँ।वहीं आज की युवतियां तुरंत परिवार की बागडोर हथिया लेती हैं।

खैर, अपने कर्तव्यनिर्वहन में मशगूल पति के लिए मैं उनके कर्तव्यपूर्ती में सहयोगी मात्र थी,अभिव्यक्ति या विरोध उन्हें बिल्कुल नागवार गुजरता था।पति के जीवन में उनके माँ-भाई प्राथमिक थे,फिर बेटे एवं भविष्य को संरक्षित करने के प्रयास में आधी से अधिक उम्र गुजर गई।

अब बेटा वाद-विवाद-विश्लेषण अपने दृष्टिकोण से करता है, उसका मानना है कि हमनें अपनी जिंदगी में बैलेंस नहीं बनाया।हर कार्य का एक उम्र होता है, जिसे सही समय पर करना चाहिए।आज के युवाओं की प्राथमिकता एवं कार्यशैली बिल्कुल भिन्न है।वे अपने सपनों को कर्तव्य की बलि वेदी पर कुर्बान करने के पक्षधर नहीं हैं।असल में वे जमाने की परवाह कम करते हैं, वे छोटी सी जिंदगी को बिंदास जीना चाहते हैं।खैर,फ़िलहाल यह मेरे विश्लेषण का विषय नहीं है।

वैसे,सच कहूँ तो मैं बेटे के इस बात से मन ही मन पूर्णतः सहमत हूँ कि अपनी जिंदगी में हमारे अधिकतर निर्णय भावुकतापूर्ण थे।आज मुझे अपनी शिक्षा का सदुपयोग न कर पाने का बेहद अफसोस है।अधिकार भिक्षा में नहीं मिलता,उन्हें लड़कर हासिल करना पड़ता है।असल में अपने निर्णय लेने की क्षमता पर ही मुझे पूर्ण विश्वास नहीं था।

अब बेटा अपने कैरियर, अपनी जिंदगी का हर निर्णय अपनी इच्छानुसार लेना चाहता है, सही या ग़लत परिणाम भविष्य के गर्भ में है।पति स्वयं तो कुछ कहते नहीं, मुझे माध्यम बनाते हैं कि बेटा तुम्हारी बात सुनता है।बेटा भी जनता है कि यह माँ की जुबान से पिताजी बोल रहे हैं।वह भी पिता का ही बेटा है, उसे भी अपनी मर्ज़ी का ही करना है।उनके बीच मैं सैंडविच बनी रहती हूँ, दोनों की झिड़कियां सुनती हूँ, मन ही मन घुटती हूँ।कहूँ किससे अपनी पीड़ा,बस खामोशी से सारी व्यथा अंतर्मन में समेटे यही सोचती रहती हूँ कि आख़िर मैं चुप क्यूँ हूँ?

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