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अनकही

आज फेसबुक की दुनिया में विचरण करते हुए फ्रेंड सजेशन में एक अत्यंत पुराना परिचित चेहरा प्रौढ़ रूप में सामने दिखाई पड़ गया।यह सोशल मीडिया भी कमाल है,भानुमती के पिटारे की भांति अरसों से खोए मित्र-परिचित इसमें मिल जाते हैं, जिनके मिलने की कभी किंचित भी संभावना नहीं होती।
खैर, मैंने फ्रेंड रिक्वेस्ट नहीं भेजा, किंतु यादों के गलियारे में भ्रमण करने अवश्य पहुंच गई।
बीएससी प्रथम वर्ष में डिग्री कॉलेज में जब एडमिशन लिया था तब उससे मुलाकात हुई थी, वह अपनी बुआ के घर रहकर ग्रेजुएशन करने आया था, हालांकि उसके पिता अधिकारी थे और वह इकलौती सन्तान था, कभी पूछा नहीं कि इस छोटे शहर में क्यों आ गए।
मेरे पिता जी का ट्रांसफर उसी वर्ष वहाँ हो गया, अतः डिग्री कॉलेज में एडमिशन करवा दिया, हालांकि मैं इलाहाबाद या बीएचयू विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करना चाहती थी लेकिन अब पिता जी ने स्पष्ट कहा दिया कि यहीं से पढ़ाई करो।
इंटर की दो-तीन सहेलियों के साथ मैं व्यस्त रहती, हम साथ बैठते क्लास में, हँसते, गप्पें मारते, हमारी इस दुनिया में कोई औऱ नहीं जुड़ पाया,वैसे दुआ-सलाम सबसे था।
उसका नाम अखिल था, उसने एक माह बाद एडमिशन लिया था।तब लड़के -लड़कियों में मित्रता ज्यादा प्रचलन में नहीं थी,आवश्यकता होने पर थोड़ी बहुत बातचीत हो जाती थी।प्रेक्टिकल में पांच-पांच लोगों के ग्रुप नाम क्रमांक के अनुसार बनाए जाते थे, मेरा नाम अनिका था, अतः वह हमारे ग्रुप में शामिल किया गया था।मैं पढ़ाई में अत्यधिक गम्भीर थी, हर विषय में नोट्स बनाकर पढ़ने की आदत थी मेरी।एक दिन हिचकते हुए अखिल ने मुझसे पिछले एक माह के नोट्स मांगे,मैंने 2-3 दिन में वापस करने की हिदायत के साथ नोट्स दे दिए।धीरे धीरे परिचय मित्रता में परिवर्तित हो गई, कोई क्लास खाली होती तो हम तीनों चारों बैठकर गप्पे मारते।हर जगह तीन तरह के लोग होते हैं, एक मित्र वर्ग, दूसरा विपक्ष वर्ग, तीसरा न्यूट्रल, जो"न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर" वाले वर्ग से सम्बंधित होते हैं।फिर हमारे ग्रुप में एक-दो लड़के और शामिल हो गए।हम सभी अच्छे दोस्त थे मात्र,जिसमें लड़का-लड़की का कोई भेद भाव नहीं था।हमारी मित्रता बिल्कुल स्वस्थ थी क्योंकि इश्क-मुहब्बत जैसी भावना हमारे लिए फिजूल की बात थी।एक बार अखिल मेरी प्रेक्टिकल फाइल वापस करने घर आया, तब मेरे परिवार से उसका परिचय हुआ, इसके बाद 4-6 बार वह घर आया दो वर्षों में।घर पर मुझसे ज्यादा बात तो पापा करते थे उससे।
आखिरी 5-6 माह में प्यार तो नहीं कह सकती, किन्तु कुछ आकर्षण मैं उसके प्रति महसूस करने लगी थी।उससे बात करना बेहद अच्छा लगता था।उसकी सांवली रंगत पर भावपूर्ण आंखे अत्यंत आकर्षक प्रतीत होती थीं।आज के युवा विश्वास नहीं करेंगे कि खाली पीरियड में हम गप्पें मारने की बजाय पढ़ाई किया करते थे।एक बार मैंने मजाक में पूछा कि कोई लड़की तुम्हें अबतक अच्छी नहीं लगी क्या?उसने हंसकर कहा कि तुम सब की दादागिरी देखकर अफेयर के नाम से डर लगता है।खैर, मन की बातें अनकही ही रह गईं,फिर ऐसा प्रबल भाव था भी नहीं जिसे शब्दों में व्यक्त किया जाय,फिर तब लड़कियां इतनी साहसी नहीं होती थीं कि वह पहले प्रपोज करें।उस समय प्रणय निवेदन की जिम्मेदारी या अधिकार क्षेत्र पुरुष वर्ग का ही था।लड़कियां सिर्फ स्वीकार या इनकार करती थीं।
ग्रेजुएशन के बाद अखिल ने कहां एडमिशन लिया मुझे पता भी नहीं था।एडमिशन न ले पाने के कारण मेरा वह वर्ष खराब हो गया क्योंकि पिता जी मेरा विवाह कर देना चाहते थे, किन्तु विवाह से दो महीने पहले ही वर के पिता ने दहेज की रकम बढ़ा दी, अतः पिता जी ने यह कहकर रिश्ता तोड़ दिया कि ऐसे लालची लोगों के यहां लड़की नहीं दूंगा।फिर आगे की शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय में एमएससी में एडमिशन दिलाकर हॉस्टल भेज दिया।
डेढ़-दो माह बाद मैं अपनी इकलौती सखी रेनुका के साथ क्लास में जा रही थी कि तभी मैं सीनियर ग्रुप में अखिल को देखकर चौक पड़ी।एक दिन मैंने उसे अकेले देखकर बात किया तो ज्ञात हुआ कि अब वह एमएससी करके पीएचडी करना चाहता है, यहीं अपने चाचाजी के यहां रह रहा है, साथ ही किसी दिन घर आने का भी निमंत्रण दिया।10-15 दिन बाद एक रविवार को मैं रेनुका के साथ उसके घर गई, वहां वह छत पर बने बाहरी कमरे में मेहमान की तरह रह रहा था।मैं एवं रेनुका माह में एकाध बार अखिल के घर चले जाते थे, मैं यह महसूस कर रही थी कि मुझसे ज्यादा उत्सुक तो रेनुका रहने लगी थी।दुबारा मिलने पर मेरा आकर्षण अखिल के प्रति पुनः बढ़ने लगा था। लेकिन उस जमाने में हमारे संस्कारों की डोर मन को इतने नियंत्रण में रखती थी कि मन का पतंग कभी भी स्वच्छंदता के आकाश में अनियंत्रित उड़ान नहीं भर सकता था।हॉस्टल में रहने के बावजूद मैं कभी भी 6 बजे के बाद बाहर नहीं रही।हॉस्टल आते समय मां ने कहा था कि बेटी मुझे तुमपर पूर्ण विश्वास है कि तुम कुछ भी गलत नहीं करोगी, जिससे हमारा विश्वास खण्डित हो अन्यथा तुम्हारी छोटी बहनों का भविष्य दावँ पर लग जाएगा।मैंने सदैव मां की बात का ध्यान रखा।आजकल चार दिनों का परिचय ही कथित इश्क में परिवर्तित हो जाता है, गर्ल-ब्वाय फ्रेंडशिप फैशन बन चुका है, जरा से आकर्षण को प्रेम समझने वाला युवा वर्ग कुछ ही समय में ब्रेकअप कर लेता है।
जहां मैं धीर-गम्भीर थी, वहीं रेनुका काफी बिंदास थी।एक दिन उसने मुझसे कहा कि मैं अखिल को पसंद करने लगी हूं, यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो मैं उसे प्रपोज कर दूं।मैं जानती थी कि मैं अपनी भावना कभी व्यक्त नहीं कर सकती, अतः उस रास्ते के बारे में सोचना भी क्या जिस पर चलना मुमकिन नहीं, अतः मैंने उससे कहा कि हम केवल अच्छे दोस्त हैं, तुम प्रयास कर के देख लो,भला मुझे क्यों परेशानी होगी।
कुछ दिनों बाद रेनुका चहकती हुई आई औऱ बताया कि अखिल ने उसके निवेदन को स्वीकार कर लिया है, आज हम दो घंटे घूम कर आए।मैंने ऊपरी मन से उसे मुबारकबाद दिया।उसके जाने के बाद न जाने क्यूं मेरी आँखों से दो बूंद आँसू टपक पड़े।न जाने वह मन की बात अनकही रह जाने की पीड़ा थी या अपनी पराजय की भावना, नहीं जानती, किंतु उस दिन के बाद से मैंने अखिल के घर जाना छोड़ दिया।रेनुका ने पूछा तो मैंने बहाना बना दिया कि मैं कबाब में हड्डी बनकर क्या करूँगी।
एमएससी करने के बाद मैं बीएड करने दूसरे शहर चली गई।रेनुका से पत्र-व्यवहार होता रहा।दो साल बाद पता चला कि उनका ब्रेकअप हो गया ,हालांकि दोनों की जाति भी समान थी लेकिन शायद अखिल रेनुका की भांति गम्भीर नहीं था इस रिश्ते में।धीरे धीरे रेनुका से भी सम्पर्क टूट गया।उनके रिश्ते के टूटने के पश्चात मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून हुआ कि यदि मैं जुड़ती तो शायद मेरा भी यही अंजाम होता।मैंने ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया कि उसने मुझे साहसी नहीं बनाया।
मैंने कालांतर में अपने माता-पिता के चुने व्यक्ति से सहर्श विवाह किया एवं अपनी छोटी सी गृहस्थी में बेहद प्रसन्न हूं।इस उम्र में उन पुरानी यादों को सोचकर चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।शिकायत तो पहले भी नहीं था तो अब किसी मलाल का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।जिंदगी में तो घटनाएं घटती ही रहती हैं।
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