अंधकूप Rama Sharma Manavi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अंधकूप

प्रेम, प्यार, इश्क, मुहब्बत सब हृदय के एक अनुपम भाव के नाम हैं।बिना इसके जीवन तपते मरुस्थल की मानिंद होता है।प्रेम जीवन को अत्यंत सुंदर बना देता है, परन्तु कभी कभी घृणित वासना प्रेम का नकाब लगाकर किसी को अंधकूप में धकेल देता है,जिसमें से निकलना सम्भव ही नहीं हो पाता ,अन्ततः एक दिन सांसे दम तोड़ जाती हैं।
रेखा पांच भाई बहनों में चौथे नंबर की सन्तान थी।घर में ही पिता ने आँटे की चक्की लगा रखी थी,जिसे पिता एवं मां मिलकर सम्भालते थे।दोनों बड़े भाई पास में ही किराए पर एक दुकान लेकर उसमें एक छोटी सी किराने की दुकान चला रहे थे।रेखा से बड़ी बहन का पिछले साल ही विवाह हो गया था, सबसे छोटी बहन छठी में पढ़ रही थी।पारिवारिक स्थिति ठीक ठाक थी।
रेखा सत्रह वर्ष की होने वाली थी, हाई स्कूल की परीक्षा पास कर चुकी थी, ठीक ठाक सी शक्ल सूरत की युवती थी।इस उम्र में आंखे तो वैसे ही तमाम सपने देखने लगती हैं, जिंदगी बेहद आसान एवं खूबसूरत नजर आने लगती हैं।
रेखा के मुहल्ले में ही रहने वाला धीरज उसके घर के पास ही चाट पकोड़ी का ठेला लगाता था।इस वर्ग के ज्यादातर बच्चे पढ़ाई करने की बजाय इस तरह के कार्य कर पैसे कमाना ज्यादा उचित समझते हैं।क्योंकि इसी माहौल में इसी मानसिकता के साथ उनकी परवरिश होती है।
धीरज रहता बड़े स्टाईल से था, उम्र पचीस के आसपास की थी।रेखा भी कभी अकेले कभी सहेलियों के संग धीरज के धकेल पर आती रहती थी।धीरे धीरे दोनों एक दूसरे की तरफ आकर्षित होने लगे।
अब धीरज रेखा से पैसे भी नहीं लेता था, साथ ही रेखा की तारीफ में ऐसी मीठी मीठी बातें करता था कि किशोरी रेखा उसके प्रेम जाल में पूर्णतया फंस गई।अब ऐसी बातें तो ज्यादा समय तक छिपती नहीं।घर वालों को पता लगते ही पहले तो रेखा को खूब डांटा-डपटा, फिर समझाते हुए बताया कि धीरज बिगड़ा हुआ लड़का है, उसके चक्कर में तुम्हारी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी।
परन्तु यह कथित प्यार इंसान को इस कदर अंधा बना देता है कि सोचनेसमझने की बुद्धि जैसे समाप्त हो जाती है।घर वालों के मना करने के बावजूद भी रेखा धीरज से मिलती जुलती रही तो घर वालों ने सख्ती दिखाते हुए रेखा का विवाह अति शीघ्र करने का निर्णय कर लिया।जब यह बात रेखा ने धीरज को बताया तो उसने रेखा को घर से भागने को तैयार कर लिया कि विवाह कर के कुछ दिनों में वापस आ जाएंगे तो सब मान ही जाएंगे।
आंख मूंदकर विश्वास करते हुए धीरज के समझाए अनुसार अपने घर से कुछ जेवर एवं पैसे लेकर वे दिल्ली चले गए, वहां एक मंदिर में रेखा की मांग भर विवाह की खाना पूर्ति करके एक कमरे में पति पत्नी की तरह रहने लगे।धीरज ने वहाँ भी चाट पकौड़ी का कार्य प्रारंभ कर दिया, रेखा उसकी मदद कर अपनी गृहस्थी में खुश थी।दो-तीन महीने में रेखा के लाए पैसे समाप्त हो गए, पैसों की किल्लत होने लगी तो धीरज ने रेखा को समझाया कि मेरे एक परिचित ने तुम्हें काम दिलाने को कहा है,घर का काम है, पैसे अच्छे मिलेंगे।रेखा के तैयार होने पर धीरज उसे वहां छोड़ गया, शाम को आने का वादा कर।वहां का माहौल रेखा को अजीब लगा।दिन भर खाना बर्तन इत्यादि घर के कार्य करवाए गए उससे।शाम से रात हो गई, धीरज को न आना था ,न आया।रात को वहां का माहौल देखकर वह समझ गई कि धीरज ने उसे नर्क में धकेल दिया।पता चला कि पचास हजार रुपये में उसे बेचकर चला गया।प्यार के नाम पर इतना बड़ा फरेब।काश!परिवार वालों का कहना मान लेती तो इस तरह जिंदगी गुनाह तो न बनती।
कुछ दिन तक तो मालकिन ने समझा कर धंधे को स्वीकार करने को कहा, तैयार न होने पर तमाम शरीरिक यातनाएं दी गईं।अंततः वह टूट गई एवं आत्मा को कुचलकर शरीर को बेचने लगी।एक वर्ष व्यतीत हो गया, इस बीच उसका दो बार अबॉर्शन करवाया गया, खैर, पाप के इस परिणाम से घृणा ही थी।अब तो आँखों के आंसू भी सुख चुके थे।बीच बीच में कोई थोड़ा सभ्य सा ग्राहक आता तो उससे निवेदन करती कि एक बार मेरे परिवार से बात करवा दो।पर वहां आने वालों के मन में कोई दया भाव तो होता नहीं था, वे तो केवल निर्दयी खरीददार थे,फिर वे किसी के पंचड़े में क्यों पड़ते।लेकिन एक दिन भाग्य को थोड़ी सी दया आ गई, एक ग्राहक ने परिवार से बात करवा दिया,हालांकि रेखा को उम्मीद नहीं थी कि नाराज घर वाले कोई मदद करेंगे।परन्तु उसको एक उम्मीद की किरण नजर आने लगी क्योंकि भाइयों ने गुस्सा करने के बाद कहा कि देखते हैं कि क्या कर सकते हैं।
कुछ समय बीता तो उसने उम्मीद छोड़ दी, परन्तु एक दिन दिल्ली के एक सामाजिक संस्था के हस्तक्षेप से पुलिस की मदद से भाई उसे छुड़ा ले गए, उसके साथ चार और युवतियां वहां से निकल गईं, शेष ने वह जिंदगी स्वीकार कर लिया था क्योंकि वे जानती थीं कि ये बदनाम भूलभुलैया गलियाँ हैं, एक बार यहां आ जाने पर यहां से निकल पाना नामुमकिन सा होता है, फिर यदि निकल भी गईं तो यह बेरहम समाज उन्हें स्वीकार भी नहीं करेगा,क्योंकि इस समाज में पुरूष कीचड़ से निकल कर भी पवित्र हो जाता है, परन्तु स्त्री के दामन पर लगा दाग उसकी मौत के बाद भी निशान छोड़ जाता है।
अपने शहर पहुंच कर भाइयों ने यहां की बात किसी को भी न बताने की सख्त चेतावनी दे दी थी।रेखा ने निश्चय कर लिया था कि घरेलू सहायिका बनकर शेष जीवन बिता देगी।किन्तु भाग्य ने उसे फिर धोखा दे दिया।तबियत खराब रहने लगी तो सरकारी अस्पताल में दिखाने पर पता चला कि उसे गम्भीर यौन संक्रमण जन्य बीमारी हो गई है।कुछ माह पश्चात ही उसने प्राण त्याग दिया।उसे प्रेम में इतना दुखद अंत प्राप्त हुआ, बस ग़नीमत इतना रहा कि एक लावारिस की मौत नहीं मिली।
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