रक्षाबंधन फ़िल्म समीक्षा Jitin Tyagi द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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रक्षाबंधन फ़िल्म समीक्षा

जिस तरह की फिल्में पिछले काफी दशक से बॉलीवुड में बन रही हैं। ये फ़िल्म उस लीग से थोड़ा हटकर हैं। अब ऐसा नहीं हैं। कि इस फ़िल्म में बहुत ज्यादा मज़ा आ जाएगा। ऐसा कुछ नहीं होगा। क्योंकि अंत में आकर ये फ़िल्म भी बॉलीवुड की परम्परा में ढल जाती हैं। वैसे उदाहरण के तौर पर ये फ़िल्म उस तरह की हैं। जैसे कोई साधु ब्रह्मचर्य का ज्ञान दे, लेकिन खुद लड़कियों के चक्कर में आग में कूद जाएं। ये ऐसी ही फ़िल्म हैं। जिन लोगों ने ये फ़िल्म बनाई हैं। वो खुद कौन कितने पैसे वाला हैं। देखकर, उससे शादी करते हैं। लेकिन फ़िल्म के माध्यम से ज्ञान देते हैं। अरे, कोई समझाय इन्हें कि जब जमाना बदल गया हैं। तो दहेज़ लेने का प्रोसेस भी बदल गया हैं। जिस तरीके से इसमें दहेज़ दिखाया हैं। वो तरीका बहुत पुराना पड़ गया हैं। और अगर फ़िल्म के मेकर इस बात को नहीं जानते, तो खुद को जाकर आईने में देखे, पता चल जाएगा कि नया तरीका क्या हैं। आखिर खुद भी तो ये इस नई वाली परंपरा के आदमी हैं।

कहानी; अक्षय कुमार(लाला जी) चाँदनी चौक में गोल गप्पे की दुकान चलाता हैं। और ऐसे गोल गप्पे बेचता हैं। कि उन्हें खाकर लड़का हो जाता हैं। बस इसी कारण पूरे दिल्ली-एनसीआर की प्रेग्नेंट औरतें वहाँ गोल गप्पे खाने आती हैं। ताकि उन्हें लड़का हो जाए। अब अगले सीन में बताया जाता हैं। अक्षय कुमार की चार बहनें हैं। जिनकी इसी शादी करनी हैं। ताकि ये अपने सामने रहने वाले घर की लड़की(जिसका किरदार भूमि पांडेकर ने निभाया हैं।) से शादी कर सकें। इसके बाद घटनाओं का सिलसिला चलते-2 एक बहन की शादी हो जाती हैं। लेकिन कुछ समय बाद ही उस बहन के ससुराल वाले उसे दहेज़ के चक्कर में मार देते हैं। और फिर अंत में अक्षय कुमार फैसला लेता हैं। कि अब वो अपनी बहनों की शादी करकर उन्हें दहेज़ नहीं देगा। बल्कि उन्हें इस काबिल बनाएगा कि वो दहेज़ देने वाली नहीं, दहेज़ लेने वाली बनेंगी और फिर कुछ बकवास सी घटनाओं के साथ फ़िल्म का अंत हो जाता हैं।

एक्टिंग; अक्षय कुमार ने अच्छी एक्टिंग की हैं। लेकिन आप लोग सोचें कि कुछ अलग तरह की हैं। तो ये भ्रम निकाल देना। क्योंकि अमूनन अक्षय हर फिल्म से एक् जैसा ही लगता हैं। और बाकी लोगों ने वो ही जो मैं हर बार कहता हूँ। शर्त लगाकर एक्टिंग की ऐसी-तैसी की हैं।

डायरेक्शन; आनंद एल रॉय ने वैसा ही डायरेक्शन किया हैं। जैसा वो करते हैं। जबरदस्ती के कॉमेडी सीन बनाना, चीखना चिल्लाना, दो करैक्टर के बीच में जब संवाद हो रहा हो तो तीसरा करैक्टर जबरन घुसा देना। इन्होंने इस फ़िल्म की लेंथ कम रखी हैं। ये अच्छी बात हैं। बस, क्योंकि इतना टॉर्चर कौन झेले

स्क्रीनप्ले; इस फ़िल्म के स्क्रीन प्ले पर चर्चा करना पड़ेगा। आखिर क्यूँ किया ऐसा। ईश्वर हैं। तू दुनिया में, तुझे दुख नहीं होता के तेरे बनाएं हुए बन्दे ऐसे काम करके तेरा अपमान करते हैं। क्या था। ये, और क्या सोचकर लिखा था। की लोग पागल हो जायेंगे। एक सीन में अक्षय अपनी बहनों के साथ जा रहा होता हैं। और कुछ लड़के अक्षय की बहनों को छेड़ते हैं। जिसके एवज में बहनें खुश होती हैं। कि सीटी किसे मारी, मज़ा आ गया। और अगले ही सीन में अक्षय कुमार अपनी बहनों को बिन बताएं उन लड़कों को पिटता हैं। लेकिन इस सीन के थोड़ी देर पहले के सीन में तीसरे नंबर की बहन एक कबाड़ी वाले से बात करती हैं। और अक्षय उससे कहता हैं। शादी करले इससे।

ऐसे ही जो बड़ी वाली बहन हैं। वो काफी सीधी दिखाई हैं। लेकिन एक सीन में वो भूमि पांडेकर के बाप को मजाकों में गाली-गलौच, एक लड़की की जवानी क्या होती हैं। इस बारें में बड़े फूहड़ किस्म के शब्द बोलती हैं। लेकिन जब उसके ससुराल में उसे तंग किया जाता हैं। वो कुछ नहीं बोलती, मजाल हैं। उसकी वो जरा भी चर्चा करें। इस बारें में, और चुपचाप मर जाना पसंद करती हैं।

ऐसे ही जो और बहनें ऐसा लगेगा आपको की ये जबरदस्ती फ़िल्म के अंदर खड़ी कर रखी हैं।

मुझे पता हैं। आप लोगों को कुछ समझ नहीं आया। पर क्या करें पूरी फिल्म ही ऐसी हैं।

संवाद; कानों में खून निकालने वाले, बेसिर पैर के, परिस्थिति से कोई लेना देना। जैसे कि एक संवाद देखो, "पिछले जन्म में मैंने तेरी कोई पत्नी भगाली होगी जो तू इस जन्म में मुझे तड़पा रहा हैं।" ये संवाद हैं।


और अंत में ये फ़िल्म चाँदनी चौक में सेट हैं। लेकिन मैंने खुद चाँदनी चौक में 15 साल बिताएं हैं। पर ऐसा चांदनी चौक मैंने कहीं नहीं देखा। कुछ भी दिखाया हैं। बल्कि मैं तो ये कहूँगा की ऐसा दुनिया में कहीं भी कोई शहर नहीं पाया जाता। और मेरी एक बात समझ नहीं आती चाहे फ़िल्म हो या यु ट्यूब वीडियो भाई-बहन हमेशा लड़ते हुए ही क्यों दिखाए जाते। क्योंकि इतना कोई नहीं लड़ता। शाला हर सीन में लड़ाई, हर कोई जंग का मैदान हैं। क्या घर, लेकिन नहीं पता नही किस चीज़ का सेवन करते हैं। ये लोग जो ऐसे दृश्य दिखाते हैं।

आज़ादी के ऊपर एक कहावत हैं। कि कोई भी तब तक ही आज़ाद हैं। जब तक उसकी नाक दूसरे से ना टकरा पाएं लेकिन ये बॉलीवुड वाले हमारी दिमागी आज़ादी में जो घुसते हैं। उनका कोई इलाज हैं। नहीं, लेकिन दिक्कत ये नहीं हैं। कि ये इसे गलत मानते हैं। बल्कि इनके लिए तो ये सिनेमेटिक लिबर्टी हैं। लेकिन इनकी सिनेमेटिक लिबर्टी के नाम और हम दिमागी आत्महत्या क्यों करें।