नक्षत्र कैलाश के - 11 Madhavi Marathe द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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नक्षत्र कैलाश के - 11

                                                                                               11

छियालेक से लगभग 3 कि.मी. जाने के बाद गरब्यांग गाँव लगा। यहाँ कैलास दर्शन के लिए गई थी, वह दुसरी बॅच मिल गई। उनके चेहरे पर जो सुकून था, आनन्द था, अलौकीक भाव था वह देखने के बाद आगे जाने की लालसा तीव्रता से बढने लगी। उनसे बाते करके अच्छा लगा। हमारे बॅच का मनोबल बढाते हुए वह आगे निकल गये। और हमारा चलना फिरसे चालू हो गया।

गरब्यांग गाँव 1965 में ,भारत चीन के युध्द पूर्व तिबेट का बडा व्यापारी केंद्र था। युध्द के बाद व्यापार पूरी तरह से रूक गया। पहले कैलाशयात्री अल्मोडा से चलते हुए बहुत दिनों बाद गरब्यांग पहूँच ज़ाते थे। वहाँ आगे के सफर की तयारी शुरू की ज़ाती। इसमें महत्वपूर्ण तयारी थी बंदूके, बंदूक की गोलीयाँ और बंदूकधारी संरक्षक किराए से लेने की। युध्द से पूर्व काल में कैलास मार्ग असुरक्षित था। चोरी ड़कैती का आतंक सारे मार्ग पर फैला हुआ था। तकलाकोट का मनुष्यवस्ती ठिकाना छोड़, बाकी पूरा निर्जन इलाका वहाँ हुआ करता था। निरक्षर, असंस्कृत, कभी भी ना नहाने वाले समतल और उग्र दिखने वाले कर्दनकाल तिबेटी ड़कैत यात्रीयों को मारना ,लुटना, यही उपजिवीका करते थे। उनके पास साधन नही था। इन लोगों का बंदोबस्त करने के लिए 1841 में जम्मू के महाराज़ा गुलाब सिंह इन्होंने अपना सेनापती जोरावर सिंह इसे तिबेट में युध्द के लिए भेज दिया। जोरावर सिंह बहुत शूर था। तिबेटीयन सैनिक भी उसे घबरा ज़ाते। जोरावर के पास कुछ दैवी शक्तियाँ हैं इसीलिए कोई उसे मार नही सकता ऐसी कहानी थी। आखिर उसे , सोने की गोलियाँ बंदूक में डालते हुए मार दिया गया। और सोने की तलवार से उसके शरीर के तुकडे किए गये। अलग अलग मठों में तुकडों को दफनाया गया। लेकिन आश्चर्य की बात यह हैं की उसके बाद ड़कैती पूरी तरह से बंद हो गई। कैलाशयात्रा सुरक्षितता से पूर्ण होने लगी।

हिमालय में भूकंप भारी मात्रा में होते हैं। इसीलिए गरब्यांग में बहुत सारे मकान आधे जमीन में गडे हुए हैं। वहाँ, ऐसी अवस्था के गाँव को सिकींग व्हिलेज कहा जाता हैं। पुराने जमाने की संपन्नतापूर्ण प्रचूरता के साक्ष देनेवाले मकानों के व्दार तथा सब लकडी की बनी हुई नक्काशी यह समृध्दता और कला परंपरा की पहचान दे रहे थे। इस गाँव के लोग भोट जमाती के हिंदू या तिबेटी वंशज पाए ज़ाते हैं। यह लोग यात्रियों से अलग अलग औषधीयाँ माँग कर लेते हैं। 
निरागसता से भरे इस गाँव से विदाई लेते हुए मन भारी हो गया। विपश्यना में अनित्य इस शब्द को सातत्यता से मन में उतारते हैं  वही शब्द यहाँ तीव्रतासे याद आ गया। जो क्षण बीत गया वह कभी वापिस नही आ सकता। कितनी सारी घटनाऐं अपने जीवन में एक बार घटित होती हैं और कितनी सारी घटनाऔं में सातत्यता रहती हैं, लेकिन वह भी एक जैसी नही होती हैं। निश्चित समय हम सुबह रोज चाय पिते हैं लेकिन हर समय हमारी मानसिकता अलग होती हैं। एक क्षण भी एक दुसरे जैसा नही होता हैं इसीलिए विपश्यना में कहते हैं आप सातत्यता से जन्म लेते और मृत्यू को प्राप्त होते हैं। आपके विचार हर क्षण में बदलते रहते हैं वैसे शरीर कोशिकाऐं भी नया जन्म लेती हैं और मृत होती हैं। अपने शरीर में यह सृजन का त्यौहार हर क्षण चालू रहता हैं। शरीर ऐसे छूट रहा हैं तो गाँव छोड़ने का दुःख क्या करना ? ऐसे सुक्ष्मता से देखो तो सब नित्य नुतन हैं। विषय की ज़ानकारी होना और अनुभव होना इस में जमीन आसमान का फर्क हैं। इसके लिए ध्यान साधना जरूरी हैं। यह बात समझते हुए गरब्यांग गाँव से विदाई ली।

काफिला चल रहा था। विशाल आँसमान के नीचे चल रहे हमारे जैसे बुंदों को देखकर लगता हैं की, हम कैसे सृष्टी के अणूतम अंश हैं। इसका ज्ञान होते ही मन विकार मुक्त हो जाता हैं। रंगबिरंगे वातावरण देखते देखते अनित्य शब्द से मन, बाहर नित्य में आ गया। हम सब एक निसर्ग चित्र के अंश हैं ऐसा लगने लगा। पहाडों के आगोश में नदी सान्निध्य, रंगबिरंगे फुलों के कालीनों पर चलते हुए व्यक्ति, सब एक पेंटींग जैसा लग रहा था। 
चलते चलते कुछ देर बाद काफी दिक्कत वाला ढ़लान का रास्ता नजर आ गया। फिरसे हिमालय के अनित्यता के दर्शन हो गये। फिसलता हुआ गिला और पत्थरों से भरा रास्ता देखकर मन काँप उठा। तभी देवानंद पोर्टर सामने आकर  एक हाथ में लाठी देकर दुसरा हाथ थामते हुए रास्ता पार करने लगा। जल्दी ही हम सीधे रास्ते आकर पहूँच गये। 
अभी यात्रा शंगरू गाँव के तरफ बढ रही थी। यहाँ नेपाल से बहते हुए आनेवाली टिंकर नदी का मिलन होता हैं। यहाँ से गुंजी तक का रास्ता समतल हैं। शंगरू गाँव से आगे चलते गुंजी कँम्प दिखाई देने लगता हैं। लेकिन नदी पार जाने में वक्त लगता हैं। बीच में ITBP के जवानों ने चाय पिलाई। वहाँ ऐसे बीच बीच में चाय और थोडा कुछ खाना आवश्यक होता हैं। इससे तुम्हारा उर्जा स्तर अच्छा रहता हैं।

ऊँची ऊँची पर्वत श्रेणीयों के बीच से गुजरते गुजरते गुंजी ज़ाते वक्त नपलचू गाँव लगता हैं। वहाँ 25 या 30 पीले रंग में एक के उपर एक ऐसी रचना के पत्थरोंके बहुतही सुंदर मकान दिखाई दिए। मकानों की चौखट और व्दारों पर सज़ावटी नक्काशी की हुई थी। चौखट पर बीचो बीच गणपतीजी की मूर्ति सजी थी। लेकिन ज्यादा तर वह मकान बंद ही दिखाई दिए। नपलचू और गुंजी गाँव के बीच कुट्टी नामक नदी बहती हैं।उसे पार करते हुए हम गुंजी पहूँच गये। इस गाँव में 125 से लेकर 150 मकान होंगे। उनकी रचना कुछ अलग तरीके की लगी। सब मकान दो मंजिल के थे। नीचे ज़ानवरों का तबेला और उपर लोग रहते थे। ठंड़ से बचाव के कारण ऐसी रचना की होगी। इन लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती, भेडीयाँ पालन, उन तैयार करना, कालीन तैयार करना था। यात्रा में गुंजी गाँव नागरी वस्ती का आखरी ठिकाना था। यहाँ से बायी तरफ का रास्ता छोटा कैलाश के तरफ जाता हैं। बादल बिखरे होंगे तो छोटा कैलाश के दर्शन हो ज़ाते हैं। 
ऐसे नैसर्गिकता में जो जन्म लेते हैं उनका मानस या शारिरीक रचना इस वातावरण के अनुरूप ही होती हैं। उन्हे यहाँ रहने के लिए कठिनाईयों का सामना नही करना पड़ता हैं। लेकिन जो लोग साधना के लिए हिमालय आते हैं उन्हे दोनों स्तर से झगड़ना पड़ता हैं। ऐसे समय अपने मस्तिष्क में स्थित बेसल गँग्लिया नामक केंद्रकों का जो समूह हैं वह एकसाथ काम करता हैं और कौनसी भी आदत अपनाने की भुमिका निभाता हैं। इससे अपनी ऊर्जा भी बच ज़ाती हैं और छोटे तणाव या परिस्थितीयों पर ध्यान देने की जरूरत नही ऐसी स्थिती वह कार्यांन्वित करते हैं। इससे हम अपने ध्येय पर लक्ष केंद्रित कर सकते हैं। इसका व्यावहारीक कार्य नाम ईच्छाशक्ती हैं।

कँम्प पहूँचते ही सरबत पीते हुए सब आराम से बैठ गये। आज का पड़ाव यही पर था। मैं एक अच्छी जगह ढूंढकर नैसर्गिक सुंदरता का आस्वाद लेने लगी। दूर तक फैले ,वादियों से लहराते, हवाँ के झोंके मन और शरीर को लुभा रहे थे। अभी पेड़ कम दिखाई देने लगे। ऐसा लग रहा था हमे रंगबिरंगी दुनिया के बाहर भगवान अभी लेकर ज़ा रहे हैं। इस दुनिया में बहुतसे आकर्षण रहते हैं, अगर वह संसार की दुनिया ही नही रही तो मोह किस बात का होगा ?  हिमालय में जो थोडे बहुत लोग रहते हैं, वह कैसे रहते होंगे इस बात का अभी पता चलने लगा। उनके मन में मोह,  अभिलाषा यह शब्द ही नही रहते होंगे। यही शब्द मनुष्य का जीवन बदल देते हैं। इसे हासिल करने के लिए मनुष्य एक दुसरे को नीचा दिखाता हैं और अपने मन की शांति खो देता हैं। जैसा भगवान ने दिया हैं उसी में खूष रहना हैं इस मानसिकता में कितनी शांति, समाधान, अपनापन समाया हुआ हैं। 
इतने में क्षितीज की आवाज आ गई। “इतना क्या सोच रही हो ?” ऐसे पूछते वह भी सृष्टी निहारने लगी। “ऐसे वातावरण में तुम्हारे मन में कौनसे खयाल आते हैं?” मैने क्षितिज से पुछा। वह बोली उदास भाव। यहाँ जो लोग रहते हैं उनके प्रति मेरे मन में करूणा छा ज़ाती हैं। इतना विशाल संसार,  सुंदर दुनिया, इन सबसे यह लोग वंचित रह ज़ाते हैं। निसर्ग के प्रतिकूल परिस्थिती से उन्हे हमेशा झगड़ना पड़ता हैं। और इसी में जीवन खत्म हो जाता हैं। शिक्षा के अभाव के कारण उनके लिए बाह्य जगत के व्दार बंद हो ज़ाते हैं और एक सा जीवन इन्हे जीना पड़ता हैं। कुछ किए बीना ही जीवन खत्म हो जाता हैं। 
(क्रमशः)