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आदर्श अभिभावकों को कैसा होना चाहियें?

पक्षी को कोई उड़ना नहीं सिखाता, बस इस कदर उड़ने की आवश्यकता होनी चाहियें कि उसके अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचें; फिर क्या.. उनका उड़ना अंदर से आता हैं; शायद यहीं बात मादा चील जानती हैं, तभी तो एक पर्याप्त उच्चाई पर जाती हैं और अपने बच्चें को वहाँ से नीचें धरा पर गिरनें को छोड़ देती हैं जिससें उसके पास उड़ने के सही ढंग से प्रयत्न के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं शेष रहें; उसकी समझ में मरने के अतिरिक्त जो कि कोई जीव नहीं चाहता, आखिर! सभी को अपनीं जान प्यारी होती हैं पर कयी बार बच्चें द्वारा उड़ सकना सम्भव नहीं होने से कोई विकल्प नहीं रहता, मरने के अतिरिक्त पर चील भी माँ हैं, बच्चें को गिरनें के लियें छोड़ती हैं यानी मरने के लियें नहीं क्योंकि जैसे ही उसका बच्चा ऊँचाई से नीचें सतह पर गिरनें वाला होता हैं, उसको अचानक ज्ञान होता हैं कि वह तो बच गया क्योंकि माता के पंजों में महफूज़ हैं वह, क्योंकि उसकी माता उसका ध्यान रख रही थी और जैसें ही उसको ज्ञात हुआ कि प्रयास के बाद भी उसका बच्चा असफल होने ही वाला हैं तब गिरनें से उड़ने की लड़ाई में अपनी जान गवानें के स्थान पर एक और प्रयास कर सफलता की ओर फिर से उसे बढानें के लियें माता उसे बचा लेती हैं और फिर पर्याप्तत ऊँचाई पर जाकर उसे गिराती पर मृत्यु से आवश्यकता पड़ने पर तब तक बचाकर पुनः इसी ही क्रम को दोहराती जाती जब तक कि उसका बच्चा उसी की तरह उड़ने की अनुकूल योग्यता का प्राप्ति कर्ता नहीं हो जाता।

यह संसार भी एक आकाश के समान हैं जिसमें जन्म लेने वालों को यदि उड़ना नहीं आयें तो इससें चलें जाने के अतिरिक्त यानी मृत्यु के हो जाने के सिवाएँ मनुष्य के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता इसलियें ठीक चील की तरह संतान के लियें भी हर माता पिता को अपना कर्तव्य निभाना चाहियें यानी संतान को जीवन की उस अवस्था में यानी उस ऊँचाई पर ले जाकर छोड़ देना चाहियें जिस पर वह उसका होश संभलने योग्य हो जायें और फिर उसें अपने हाल पर स्वेच्छा से प्रेमपूर्ण आशीर्वाद के साथ छोड़ देना चाहियें अपने स्वयं के बूतें छोड़ देने के लियें जिससें कि संतान भी उड़ना यानी स्वयं की स्वयं पर ही निर्भरता का गुर सिख जायें, क्योंकि वह गुरु ही क्या जिससें सीखनें वाले को जल में जाने के लियें गुरु पर निर्भरता हों यानी जो गुरु के सहयोग के बिना तैर नहीं सकें? वह सही अर्थों में गुरु हो ही नहीं सकता जो कि स्वयं की ही भांति बिना किसी अन्य की निर्भरता के सीखनें वालें को जिसें वह सीखने आया हैं उसमें योग्य नहीं बना सकें। हाँ! इसकी संभावना चील के बच्चों की तरह संतान के साथ यानी उनके मामलें में भी बहुत ही ज्यादा हैं कि वह असफलता के यानी गिरनें के बहुत निकट आ जायें यानी कुछ इस प्रकार गिरनें पर आ जायें कि स्वयं के पैरों पर फिर खड़े ही नहीं हो पायें पर चील की ही भाँति माता-पिता को धैर्य रखना चाहियें और संयम पूर्वक उन्हें पुनः चीज की तरह ऊँचाई पर ले जाना चाहियें यानी संतान के होश संभालने की प्रतीक्षा वात्सल्य के लियें यानी करुणा वश करनी चाहियें और फिर जब होश संभाला जा सकें तो फिर संतान के हाल पर छोड़ देना चाहियें और इसी कर्म के क्रम को तब तक दोहराना चाहियें जब तक कि संतान संसार रूपी आसमान में उड़ने की यानी संसार में अपने पैरों पर खड़ने की योग्यता पा नहीं जातें।

पर कुछ माता-पिता मोह वश अपने बच्चें को चील की तरह उचाई पर तो लेकर जाते हैं पर ऊँचाई पर से नीचें गिरनें तक अपने सनिध्य से महफ़ूज़ रखते और आसमान से धरती पर गिरनें तक संरक्षण देते हैं जिससें संतान को भी वैसें तो कोई उड़ना यानी पैरों पर खड़ा होना नहीं सिखाता, बस जिस कदर की उड़ने की आवश्यकता यानी अपने पैरों पर खड़े होने या आत्मनिर्भर होने की होनी चाहियें जिससें कि उसके अलावा संतान के पास कोई विकल्प नहीं बचें वह नहीं हो पाती; फिर क्या.. उसें उड़ना कैसे आ सकता हैं अतः वह उड़ना यानी अपनें पैरों पर खड़ना नहीं सीख पातें जिससें माता-पिता पर बोझ होने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं रह जाता।

तो कुछ माता-पिता बच्चों को होश संभालने पर छोड़ भी देते हैं पर एक बार या बार-बार भी यदि बच्चें असफल होते हैं तो उन्हें अगली कोशिश के लियें सज्ज करने के स्थान पर उनके समक्ष यह सिद्ध करना चाहते हैं कि तो तो जीवन में कुछ नहीं कर सकतें; चील यानी आदर्श माता या अभिभाव की तरह धैर्य और संयम से काम लेने के स्थान पर..।

पर जो माता-पिता ठीक वैसा ही करनें हैं जैसा कि आदर्श माँ और पिता को करना चाहियें यानी कि पूरी तरह चील की भांति तो उनकी संतान अपने पैरों पर तो खड़ी होती ही हैं बजायें इसके जब अपनें माता-पिता को सहारा देने की बात आती हैं तब भी अपना कर्तव्य उनकी ही तरह प्रेमपूर्णता से निर्वहन करती हैं।

यदि माता-पिता अपने कर्तव्य का निर्वाह ठीक करें पर संतान उनके प्रति यदि अपना कर्तव्य नहीं निभायें तो परमात्मा स्वयं उनके सहयोग की व्यवस्था करतें हैंपर जो वह बोतें हैं वह उन्हें काटनें से कोई नहीं रोक सकता।

- रुद्र एस. शर्मा (aslirss) २२ जुलाई शुक्रवार

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