सॉफ्ट कॉर्नर Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सॉफ्ट कॉर्नर

चारों ओर नीरव सन्नाटा था। आसपास से हल्की किंतु बोझिल बातचीत का मंद सा स्वर कभी - कभी आ जाता था। सलाखों के बाहर संतरी के भारी बूटों का स्वर रिगसता - घिसटता उसके दांतों को चुभता था। सीमेंट के फर्श पर रेत के बारीक कण उसके जूतों से कुचले जाते थे न! कोठरी के भीतर वह अकेला ही था। अपने इस रूप की शायद उसने सपने में भी कल्पना नहीं की थी। लेकिन जो कुछ था, जैसा था,जैसे हुआ था उसने उसे कमज़ोर घायल नहीं बल्कि और मज़बूत संतुलित बना छोड़ा था।
कोठरी की दीवार के सिरे पर एक छोटा सा रोशनदान था। उससे एक पेड़ की टहनियां दिखाई देती थीं जो मंद हवा में कभी - कभी झूला झूलती और कभी खामोश अचल खड़ी हो जातीं। उसे तसल्ली थी कि उन शाखों पर कोई फूल नहीं था।
उसे नफरत थी फूलों से। वो कितने नाज़ुक होते हैं, लिजलिजे, उबाऊ। ज़रा देर में कुम्हला जाने वाले। उसे लगा जैसे बासी फूलों के झुरमुट से उठी गंध उसके नथुनों को भेद गई है और उसने महसूस किया जैसे एक साथ कई छिपकलियां सरसरा कर उसकी देह से गुज़र गई हैं। उसने थूकने के लिए कोने की ओर मुंह किया। एक पल को ठहरा। लगा, यहां थूक देगा तो वह थूक, उसी की घिनौनी बलगम उसे देर तक अपनी आंखों के सामने देखते रहना होगा। यहां कोई सफ़ाई के लिए नहीं आयेगा। उमस भरी कोठरी में थूक सूखने में भी घंटों लग जायेंगे। यह उसका घर नहीं है जहां नौकर दिन में दो बार आकर कमरे की सफाई कर जाए।
किंतु तभी न जाने क्या सोचा उसने, तपाक से थूक दिया। इतनी देर गले में ही घुटते रह जाने से बलगम के तार मुंह में लिसलिसा कर रह गए थे। उसे कितने ही स्मृतिदृष्य याद हो आए जब उसने कद्दावर रफ- टफ दिखने वाले मर्दों को इत्मीनान से इधर - उधर थूकते देखा था।
वह भीतर ही भीतर दहल गया, वह क्यों सोचने लगा इस तरह घिन आने की बात? यह तो औरतें सोचती हैं या फिर आभिजात्य ओढ़े विचरने वाले नर्म - नाज़ुक लोग। वह तो हमेशा कोशिश करता रहा है इस सोच के घेरे को तोड़कर इसकी गिरफ्त से निकल पाने की।
उसने एक सरसरी नज़र कोठरी के भीतर सिमटे फैलाव पर डाली। यहां सख्त खुरदुरी दीवारों के बीच वो सब कुछ नहीं है। यहां बैठा है तो नर्मी,शराफत, आभिजात्य के घिनौने अलंकरणों का भी भय नहीं है उसे। कितना महफूज़ है यहां।
उसे याद है कि उसने कभी स्कूल में अपने मास्टरों से मार नहीं खाई। अपने साथी लड़कों को बात - बेबात पर पिटते, डांट खाते देखता था वह। उसे क्यों नहीं डांटते शिक्षक? क्यों नहीं मारते? कौन से सुरखाब के पर लगे हैं उसमें जो उसकी बात मान ली जाती है। वो किसी रईस खानदान से भी तो नहीं है वो। फिर इतनी नम्रता, इतनी दरियादिली से क्यों पेश आते हैं लोग? कई बार खीज और जिद में वह अपना होमवर्क करके नहीं ले जाता तो देखता कि शिक्षक द्वारा सिर्फ़ समझा कर छोड़ दिया गया है वह। उसे सजा नहीं दी गई कभी।
एक दिन स्कूल से लौटकर वह दो - तीन मित्रों के साथ पास के गेस्टहाउस के बगीचे में कच्चे आम तोड़ने लगा था। तभी न जाने कहां से माली आ गया। उसने लड़कों को बुरी तरह डांटा था। एक पर तो हाथ भी छोड़ बैठा। हाथ में लिया आम झपट कर छीन लिया। पर उसकी ओर सिर्फ़ कनखियों से देखता रहा। बोला कुछ नहीं। यद्यपि उसने सहमकर हाथ का आम फेंक दिया परंतु रास्ते भर यही सोचता रहा कि माली ने उसे कुछ क्यों नहीं कहा? वह भी तो चोर था, चोरी में शरीक था फिर लताड़ा क्यों नहीं गया? सबको डांटते वक्त माली उसकी ओर ऐसे क्यों देखता रहा?
उसे घर में किसी बात के लिए ज़िद करने की ज़रूरत क्यों नहीं पड़ती। उसकी हर बात मान ली जाती है। उससे बहस करने उसके साथी नहीं आते। उसके दोस्त नहीं होते, सिर्फ़ अनुयायी होते हैं जो चुपचाप उसे सहते चलते हैं।
एक दिन साइकिल से गुजरते हुए न जाने कैसे उसका ध्यान नहीं रहा और सामने से आते चार - पांच लोगों के झुंड से टकरा गया। लड़खड़ा कर रह गई साइकिल। तिरछा होकर वह भी ठहर गया। वह सोच रहा था कि अब वे लोग संभवतः उसे बुरा भला कहेंगे। मुमकिन है हाथ भी छोड़ बैठें। वे तीन- चार हैं। वह अकेला है। कर भी क्या सकता है? पर नहीं, उसके मुंह से हल्के से "सॉरी" निकला और बस। वे सभी उसकी ओर ध्यान न देकर उस आदमी के घुटने की ओर देखने लगे जिसमें से खून रिस रहा था। वह स्वयं भी कातर सी नज़रों से देखता रहा। फिर वे लोग आगे बढ़ गए। किसी ने कुछ नहीं कहा।
उसे अच्छा नहीं लगा। उसे लगा कि उसे सॉरी नहीं कहना चाहिए था। बल्कि उल्टे चोर की तरह कोतवाल को डांटने लगना था। उन लोगों को देख कर न चलने के लिए बुरा - भला कहा चाहिए था।
तब शायद वह दूसरे ढंग से पेश आते। थोड़ा लड़ाई- झगड़ा होता। मारपीट भी हो जाती तो परवाह नहीं। थोड़ी बहुत चोट लगती तो क्या, अच्छी हो जाती दो चार दिन में। आहत तो वह यूं शरीफों की तरह छोड़ दिए जाने पर हुआ। उन लोगों को गुस्सा क्यों नहीं आया उस पर?
पर वह जानता है कि यदि उसे ज़रा भी चोट लग जाती तो घर पर सब कितने परेशान हो जाते। मां रसोई घर को दीदी लोगों के भरोसे छोड़ कर आयोडेक्स और गरम पानी ले आती। मना करते - करते भी उसके घाव सहलाए जाने लगते। पिताजी दिन भर फिर उसे किसी दौड़ - भाग वाले काम के लिए भी नहीं कहते। लिजलिजी सी घेराबंदी में जकड़ा जाने लगता वह।
और उसके दोस्त, वह देखता है कि आए दिन ही तो किसी के हाथ पर पट्टी बंधी होती है तो किसी के पैर पर चोट का घाव। कोई परवाह नहीं करता। खेल - खेल में दस बार जख्मी होते हैं, दस बार ठीक होते हैं। उस दिन शाम को खेलते- खेलते राकेश गिर पड़ा था तो उसने झट अपने टखने से बहते खून पर थोड़ी सी मिट्टी डाल ली थी और फिर से खेल में मशगूल हो गया था। यदि राकेश की जगह वह होता तो थोड़ी देर के लिए खेल रुक ही जाता। उसे बैठने को कहा जाता। घर चले जाने को कहा जाता। तेज़ बॉल फेंकने वाले की गलती बताई जाती।
वह खेलने के लिए साथियों के साथ मैदान में आता तो महसूस करता जैसे वह खेल नहीं रहा, खिलाया जा रहा है। जैसे उसकी हर खेल में कच्ची कौड़ी है और उसका दिल रखने के लिए उससे बाजियां जितवाई जा रही हैं। साथियों की नम्रता व कोमल नजरें उसे छेद डालतीं। क्यों उसके साथ सहज सख्ती नहीं बरती जाती?
एक दिन क्रिकेट खेलते हुए सोहन के हाथ से कैच छूटने पर सुरेंद्र कैसा बिगड़ा था! गाली देने लगा था। सब उसे कोसने लगे थे।
ठीक ऐसा ही एक दिन ख़ुद उसके साथ भी हुआ तो वह बिना किसी उलाहने- तबालत के छोड़ दिया गया। जबकि उसकी चूक से पारी की हारजीत का फैसला ही बदल गया। जैसे उसकी गलती उसकी न होकर किसी अदृश्य ताकत की गलती हो। किसी ने कुछ नहीं कहा।
क्लास में टीचर द्वारा कोई प्रश्न पूछने के लिए खड़ा किया जाता तो किसी को दिलचस्पी नहीं रहती। जैसे सब जानते हों कि वह सही जवाब ही देगा। कभी ऐसा भी हुआ है कि उसका दिया हुआ जवाब सही नहीं रहा। पर ऐसे में कक्षा ठहाके लगाकर नहीं गूंजी, बल्कि वह प्रश्न ही कठिन माना गया। अध्यापक ने उसे फिर से पढ़ाया, फिर से समझाया। जैसे उससे कभी कोई चूक हो ही नहीं सकती।
वह शरीफ़ समझा जाता है। लड़कियां उससे बेखटके बात कर लेती हैं। और लड़के लड़कियों से बात करने में कतराते हैं, अकेले में लड़कियों के झुंड से बचते हैं। पर वह अकेला भी आसानी से घेर लिया जाता है।
मधु, जिसके लिए उसके दिल में एक ख़ास जगह है, उसे दूसरी लड़कियों से देख कर ईर्ष्या नहीं करती। लड़कों के जिस ग्रुप में वह होता है वहां सस्ते मज़ाक नहीं किए जाते।
वह मधु के घर बेखटके चला जाता है। वहां किसी की शंकित नज़रों का पहरा उस पर नहीं होता। मधु या अन्य कोई भी लड़की उसके यहां आती है तो कोई शक- शुबहे से देखने वाला नहीं मिलता। वे दोनों साथ में निकल कर चल देते हैं तो कानाफूसी नहीं होती।
क्या उससे किसी को कोई डर नहीं? लोग उसे जहर उतरे सांप की मानिंद समझते हैं शायद।

हर जवान लड़के और जवान लड़की के अदृश्य पहरे पर तैनात ज़माना उसके साथ इतना मेहरबान, इतना विनम्र क्यों है?
फिर क्या ये कोई खूबी है उसकी? उसकी शख्सियत की कोई खास बात है ये? यदि ऐसा है भी, तो वह सहजता के लिए क्यों न तरसे?
आज उसे जो तसल्ली है वह इसी बात की है कि वह जेल में है। जेल, जहां रफ - टफ, मर्दानगी भरे व्यक्तित्व ही आते हैं। उसकी यह मान्यता है कि यहां तफरीह, मौज- मस्ती, बेपरवाही से जीने वाले आते हैं। गलती करके आखिरी दम तक सॉरी न कहने वाले आते हैं। खतरे उठाने वाले, रिस्क लेने वाले, पौरुष वाले!
जो कातर होकर भीख नहीं मांग सकते, कायरों की तरह आत्महत्या नहीं कर सकते, वही अपराध के रास्ते यहां आते हैं। जो निरीह बन कर दासता और अन्याय नहीं सह पाते, हथियार उठा लेते हैं, मरने- मारने पर आमादा हो जाते हैं वे यहां आते हैं।
कारागृह, बेड़ियों, अस्त्रों से लैस कानून को जो नचाने की जुर्रत करते हैं वो यहां आते हैं।
आज वह भी यहां आया है। कितनी अहम उपलब्धि है उसकी। कितना खुश है वह आज अपने को इस जमात में पाकर। कितनी बड़ी जीत छिपी है इस हादसे में उसके जीवन की?
अभिमन्यु की भांति चक्रव्यूह तोड़ कर वह घुस सका है यहां। अपने व्यक्तित्व से लिजलिजा पन धो- पौंछ डालने के लिए।
तीन- चार दिन पहले की बात है वह कुछ दोस्तों के साथ फ़िल्म देख कर निकल रहा था। सामने एक दुकान पर अपने दो- तीन साथियों को खड़े पाया। उनका किसी बात पर दुकानदार से झगड़ा हो गया था। बुरी तरह तू - तू, मैं - मैं हो रही थी। लोग इकट्ठे हो गए थे। बात बढ़ते- बढ़ते मारपीट पर आ गई थी।
अपने ही कॉलेज के आठ- दस छात्रों को आते देख कर लड़कों का उत्साह बढ़ गया। अब भयानक मारा- मारी शुरू हो गई। दुकानदार के भी चार - पांच संगी - साथी आ गए। दुकान से चीज़ें उठाकर इधर- उधर फेंकी जाने लगीं। लड़के सभी एक होकर पिल पड़े।
वह, जो आमतौर पर इस तरह की बातों - वारदातों से बचता आया है और ऐसे अवसरों पर साथियों को समझा- बूझा कर बीच - बचाव करने की कोशिश ही करता रहा है, आज न जाने क्या सोच कर उग्र हो गया।
उसने भी भरपूर साथ दिया खून- खराबे में।
झगड़ा बढ़ता देख इधर - उधर से तमाशबीन भी शामिल हो गए। दुकानदार ने चाकू निकाल लिया।
लड़कों की ओर से ईंट - पत्थर फेंके जाने लगे।
दुकान का एक युवक तेज़ी से उसकी ओर बढ़ा। हाथ में छुरा लिए झपटा। वह फुर्ती से बचा। उसका हाथ पकड़ने की चेष्टा में दोनों गुत्थम - गुत्था होकर गिर गए। देखते- देखते उस युवक के हाथ में पकड़ा हुआ छुरा स्वयं उसी युवक की आंख में जा घुसा। खून की धार उबलती हुई उसकी उलटी हुई आंख से बह निकली। वह हतप्रभ रह गया। चौंक कर उसके हाथ का छुरा पकड़े उठ खड़ा हुआ।
जिस वक्त पुलिस का पहला आदमी दिखा छुरा उसी के हाथ में था। वह घायल युवक छटपटा रहा था।
वह भौंचक - स्तब्ध अवश्य है कि उसने युवक की आंख इतने नज़दीक से फूटते हुए देखी है। दहशत भी है उस मंजर से। पर कुल मिला कर वह आज ग्लानि महसूस नहीं कर रहा। पश्चाताप तो बिलकुल भी नहीं। उसे तो सारी वारदात अपने एक नए जन्म सरीखी लग रही है। एक सर्वथा अलग - नया वह!
अब सबके दृष्टिकोण बदल जायेंगे उसके बारे में। यह सोच कर उसे सुकून पहुंच रहा है।
व्यक्तित्व का वह भाग जो उसने सारी उम्र चख कर नहीं देखा, जिसका स्वाद नहीं जाना, अब भरपूर उसके हक में आएगा। सामान्य से कुछ अलग हो जाने के बाद उसे यकीन है कि अब वह सामान्य लोगों में गिना जाने लगेगा।
कोठरी में बैठा सोचता - सोचता वह चौंक गया। उसने आहट सुनी। थोड़ी ही देर में उसने अपने पिता की आवाज़ सुनी। शायद उसके पिता के साथ उसके चाचा और पड़ोस में रहने वाले उसके एक प्राध्यापक भी थे। उसने आवाज से जाना। संभवतः सब उसकी जमानत के लिए दौड़- भाग में व्यस्त रहे होंगे।
पूरी बातचीत तो वह सुन नहीं सका पर इंस्पेक्टर का स्वर उसे साफ सुनाई दिया - आप फिक्र मत कीजिए, मैं जानता हूं लड़का ऐसा नहीं है। खुद मेरे दिल में भी इसके लिए सॉफ्ट कॉर्नर है, मैं पूरी कोशिश...
वह जैसे आसमान से गिरा। तो उसने कोई चक्रव्यूह नहीं तोड़ा। उसे कोई नया जन्म नहीं मिला। वह कोई बाज़ी नहीं जीता। ज़माने के लिजलिजे दृष्टिकोण ने उसे अभी भी अपनी गिरफ्त से आजाद नहीं किया।
उसने हिकारत से थूक दिया, फिर एक बार, बिल्कुल अपने बैठने की जगह के नज़दीक!
( समाप्त ) ... प्रबोध कुमार गोविल