संचित प्रायश्चित Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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संचित प्रायश्चित

वह दौड़ कर वाशबेसिन के पास गया और ज़ोर से खखार कर थूकने लगा। आंखें लाल हो गई थीं और उनमें पानी छलक आया था। पुतलियां ऐसी लग रही थीं मानो तरबूज के कटे टुकड़े के भीतर धंसा काला बीज हो। तरबूज सी ही पनीली आंखें। थूक- थूक कर मानो चैन नहीं मिला। उबकाई अब भी निरंतर आ रही थी। जीभ बाहर निकाल कर अंगुली से मसल - मसल कर वह भीतर का सब मैल निकाल फेंकने पर आमादा था। मगर मैल था कि भीतर अस्थिमज्जा तक में रच- पच गया था। निकलता ही न था। ऐसा महसूस होता था कि गंदगी और ज़्यादा फैल कर मुंह से लेकर उदर तक एक विषबेल सी फैलती जा रही हो।
सांप - बिच्छू का काटा सहना फिर भी आसान होता है।शरीर में चारों तरफ़ नीला जहर फैलता है तो फैलता रहे, कम से कम बेहोशी तो आ जाती है। आदमी नींद के नशे में झूमने लगता है। उसे कुछ याद नहीं रहता। परिजन भाग - दौड़ करते रहते हैं। डॉक्टर, वैद्य और ओझा अपने- अपने मंतर मारते रहते हैं। पर कम से कम काटे हुए आदमी को तो कुछ नहीं करना पड़ता।
पर यहां तो माजरा ही उल्टा था। न तो बेहोशी आई थी, न भय। न नींद, न नशा। सब कुछ अपने आप अपने होशोहवास में करना पड़ रहा था।
एक बार फ़िर से बहुत सा पानी पी लिया उसने। साफ़ पानी था। ठंडा। अभी- अभी फ्रिज से निकाल कर रखी बोतल का ठंडा पानी। लेकिन वो पानी भी उसके हलक को शीतलता प्रदान नहीं कर सका। उसे ऐसा लगता रहा जैसे जीवनजल "पानी" भी आज उसे धोखा दे रहा है। निर्मल जल भी भीतर के उस कलुष को धो नहीं पा रहा था।
रह- रह कर थोड़ी- थोड़ी देर बाद उसे उल्टी करने आते देख घर के बाकी लोग भी परेशान हुए थे। मगर कोई कुछ जानता न था कि क्या हुआ है उसे? हैरानी से सब देखते ज़रूर रहे थे पर उस स्वस्थ, बलिष्ठ, पूरे छह हाथ के आदमी को बीमार मानने जैसी हालत किसी को न दिखी। और अब तो सब नींद में बेखबर हो चुके थे। रात का सन्नाटा था।
कोई औरत होती तो इतना ओकने - उलटने पर कोहराम मच जाता। सब सोचते, न जाने इसके साथ क्या हुआ है! लेकिन वो अपनी उलझन लिए ख़ुद ही भिड़ता रहा अपने आप से। थोड़ा आराम आता तो वह बिस्तर पर आ लेटता। उसे लगता कि उसका जी अब ठीक हो जायेगा। जो हुआ सो हुआ। अब क्या जान ही गंवा दे? अधमरी तो हो गई काया। वह किसी अख़बार को उठा कर उसमें मन रमाने की कोशिश करता। पर यह क्या, ध्यान केवल एक ही प्रेक्षागृह में जाकर घूमने लगता। जैसे और कहीं कुछ था ही नहीं। मन के भीतर कहीं गहरे बिराजे शिवलिंग को जैसे विषैले दूध से अभिषिक्त कर गया हो कोई। उसका सिर घूमने लगता है। चक्कर सा आता और वह फिर बिस्तर से उठकर नल की ओर दौड़ जाता। पानी की तेज़ धार अपने माथे पर छोड़ता। बेतहाशा कुल्ले करने लगता। एक- दो बार उसने सुगंधित साबुन का इस्तेमाल भी किया मुंह धोने के लिए। पर सब व्यर्थ। लगता जैसे साबुन की साफ़ करने की लियाकत गई। पानी की धोने की तासीर गुम गई। उसका दूषित हुआ अंतर जस का तस रहा। उसकी बेचैनी कम नहीं हुई। उसने अपना ध्यान इस व्याधि पर से हटाने के लिए नए सिरे से सब सोचना शुरू किया।
वह सुबह जल्दी उठा था। हमेशा की तरह स्नान ध्यान से निवृत्त होकर उसने बहुत देर पूजा की थी। उपासना के सारे विधि - विधान संपन्न किए थे। तन- मन की शुद्धि के सब मंत्र पढ़े थे। दिन में फ़िर वह रोजमर्रा के कामों में लगा रहा।
सुबह से रात तक का सारा धर्म, सारी अर्चना, सारा अध्यात्म कहां विलुप्त हो गया? ये कलुष कहां से आया? ऐसा क्यों हो रहा है, यह सोचते ही उसका जी फिर से मिचलाने लगा। वह उठकर बैठ गया।
बच्चे सो चुके थे। पत्नी भी निद्रामग्न थी। उसे किसी को जगाना या उनकी नींद में खलल डालना अच्छा न लगा। उसने सोचा, वही खुद कुछ उपाय करे अपनी तबीयत का। वह धीरे से उठा। पांवों में चप्पल पहनी और चलता हुआ आंगन में आ गया। थोड़ी देर उसी तरह खड़ा रहा। उसे लगने लगा कि तबीयत कुछ संभल रही है। वह थोड़ी चहलकदमी करके पानी के घड़े के पास गया। वहां से थोड़ा पानी लेकर उसने पी लिया। वह फिरसे घूमने लगा। उसे नींद नहीं आ रही थी, और न ही बिस्तर पर लेटने का मन कर रहा था। वह उसी तरह घूमता रहा। थोड़ा टहलने से चित्त को शांति मिली। ठंडी हवा भी चल रही थी। भला सा लगा इस तरह टहलना।
उसे याद आया कि बचपन में पिता से पढ़ते हुए उन्होंने उसे कुछ मंत्र सिखाए थे। वे मंत्र शुद्धिकरण के लिए थे। बचपन में तो वो उसे ठीक से याद भी नहीं हुए थे। वह उल्टा - सीधा, टूटे - फूटे शब्दों को जोड़- तोड़ कर बस किसी तरह बोल देता था। वह न तो उनका सही उच्चारण ही जानता था और न ही उनका अर्थ उसे पता था। पर इतना वह अवश्य जानता था कि वे मंत्र शुद्धिकरण के लिए थे और उनका जाप करने से अंतर्मन शुद्ध हो जाता था।
बाद में जब वह विद्यालय में पढ़ने गया तो संस्कृत के अध्यापक ने उसे उन मंत्रों को सही उच्चारित करना सिखाया। बड़ी कक्षा में पहुंच कर तो वह उन मंत्रों की व्याख्या करने में समर्थ हो गया। शास्त्री की परीक्षा देने तक तो वह इनमें निष्णात हो गया। ऐसे मंत्र न केवल वह समझने लगा था बल्कि वह स्वयं भी इनके समकक्ष मंत्रों की सृष्टि करने लगा था। उसने भी एक विधि विधान के अपने मंत्र बनाए थे। वह शास्त्रों - पुराणों से कंठस्थ करके उनकी ऐसी व्याख्या करता था कि लोग एकटक होकर उसके प्रवचनों में लीन हो जाते। वह प्रवाह के साथ जनोपयोगी वचनों को कहने में पारंगत हो गया था। दूर- दूर से लोग उसे सुनने आते थे।
विवाह होते- होते तो उसकी ख्याति इतनी फैल गई कि लोग जब - तब उसके पास आने लगे। कभी किसी विधि- विधान के लिए उसे बुलाते तो कभी ग्रहशांति और शंका समाधान के लिए स्वयं उसके पास चले आते। वह कोई न कोई रास्ता अवश्य बताता था। अपने पास आने वालों को उसने कभी निराश नहीं किया। उसकी बातों और वाचालता से सामने वाला इतना प्रभावित होता कि वह उसकी सब बातों को एकदम सत्य मानकर ही आचरण करने लगता। वह जो कहता उसे मिथ्या मानने का साहस कोई न करता।
धीरे- धीरे स्थिति यह हो गई कि पिता की कपड़े की दुकान पर बैठने तक का समय उसे न मिलता। पिता पहले तो उसकी ख्याति से खुश हुए और स्वयं ही उसे इसके लिए प्रोत्साहन देते रहे कि वह अपने काम में लगा रहे। दुकान का काम पूरी तन्मयता और उत्साह से करते। पर बाद में उन्हें ये देखकर झुंझलाहट और कभी- कभी निराशा तक होने लगी कि पुत्र दुनियादारी से बिलकुल ही अलग जा रहा है। वह कारोबार में रंचमात्र भी ध्यान न देता।
एक बार तो पिता से आज्ञा लिए बिना वह एक यात्रा- कंपनी के साथ दो माह के लिए देश भर के तीर्थस्थलों की यात्रा पर चला गया। जब पिता को पता चला कि वो तीर्थाटन कर आया है तो वह कुछ चिंतित हुए, उदास भी। लेकिन उसके बाद से पिता ने और भी ज्यादा सख्ती से कारोबार में मन रमाना शुरू कर दिया। मानो वह उससे नाउम्मीद हो गए थे।
ये सब सोचते - सोचते वह किसी तंद्रा से जागा। उसका जी अब हल्का हो गया था, मगर जैसे ही उसका ध्यान इस बात पर गया कि रात के पौने दो बजे भी वह जाग रहा है और घर के सब सदस्यों के सो जाने के बावजूद टहल कर घूम रहा है तो वह खुद हैरान हो गया।
उसे नींद क्यों नहीं आ रही? क्या है जो उसे बेचैन किए हुए है! इतना ध्यान आते ही उसके गले में कुछ चुभने लगा। उसने अंगुली को गले पर फेरा। उसे लगा जैसे गर्दन में कुछ अटक गया है, और भीतर ही भीतर गांठ जैसी बन गई है। मन ही मन वह संशय की न जाने किस दुनिया में पहुंच गया। उसे लगा कि गले की ये गांठ अब धीरे - धीरे बढ़ती जायेगी और कालांतर में शायद कैंसर का रूप ले ले। वह सिहर गया। उसने फिर से तत्परता से अपना हाथ गर्दन पर फिराया। पर अब वहां कोई गांठ न दिखाई दी। सब सामान्य था।
तो क्या वो उसका वहम था? वह सोचने लगा। फिर गले में ये भारीपन क्यों लग रहा है! शायद कुछ अटक सा गया हो। वह तेजी से बढ़ कर फिर नाली के पास आ गया। उसने ज़ोर से थूका। थूकने से उसे राहत मिली। पर मन पूरी तरह शांत न हुआ। उसका बस चलता तो पूरे हलक को ही मुंह से बाहर निकाल कर धो लेता और नकली दांतों की बत्तीसी की तरह उसे फिर भीतर जमा लेता। पर ऐसा संभव नहीं था।
जबरन ख़खार कर थूकते - थूकते शायद उसके गले में खराश आ गई थी। अवश्य भीतर से चमड़ी कहीं चिर भी गई होगी क्योंकि अब थूक में बलगम के साथ- साथ थोड़ा - थोड़ा रक्त भी आने लगा था।
रक्त तो शरीर की भीतरी परतों में होता है। उसे अच्छा सा लगा। हो सकता है कि उसके अंतर में अब कोश - ऊतकों के अलावा और कुछ मैला न बचा हो। तभी तो रक्त तक बाहर निकल आया। उसने मन को सांत्वना दी। अब भीतर कुछ नहीं हो सकता। चमड़ी को रगड़- रगड़ कर उसने अंगुलियों से इतना घिसा है कि वो छिल कर रक्ताभ हो गई थी। शायद अब अंतर्मन पूरी तरह निर्मल हो गया हो।
उसने एकबार खूब सारा पानी पिया और कुल्ला करके वह बिस्तर की ओर लौटने लगा। वह भीतर ही भीतर अपनी कमज़ोरी से वापस उबर रहा था। उसने मन ही मन निश्चय किया कि वह यदि आज सलामत रहा तो कल से कभी उस राह से गुजरेगा भी नहीं, जहां आज ये आत्मा तक को खोटा बना देने वाला रोग उसे लग गया था।
अब उसे पूरी तरह यकीन होने लगा था कि गंदगी का कोई अवशेष उसकी काया में शेष नहीं है। उसका प्रभाव पूरी तरह धुल चुका है और उसकी आत्मा मलिन होने से बच गई है।
दरअसल आज गांव में दसवीं कक्षा का रिजल्ट निकला था। परीक्षा में पास हो जाने वाले लड़के पास होने की खुशी में गली में दौड़ते हुए आ रहे थे। कुछ- एक के हाथ में पकड़ी हुई कागज़ की पुड़िया में प्रसाद की मिठाई भी थी।
एक लड़का अपनी पुड़िया से एक बताशा उसे भी दे गया। उसने झटपट "ओम" का उच्चारण करके बताशा गड़प लिया। वह श्रृंगी हरिजन के मंझले बेटे को शक्ल से पहचानता भी तो नहीं था।
जैसे ही बताशा उदरस्थ हुआ उसे सामने से श्रृंगी भी आता दिखा। श्रृंगी दूर ही से उसे देख कर कनक- दंडवत की मुद्रा में नमस्कार के लिए झुक गया। उसके पीछे - पीछे बाबा - बाबा कह कर दौड़ते आते उस बालक को वो जब तक पहचान पाता बहुत देर हो चुकी थी। बताशा तो बताशा ठहरा। झट घुल गया मुंह में। उसकी सारी मिठास स्वादेंद्री के इर्द - गिर्द वर्षा के जल की भांति फैल गई।
दोपहर की घटना याद आते ही उसके मुंह में फिर से कड़वाहट का हमला हुआ। कितना प्रायश्चित हो, कैसे प्रायश्चित हो, सारा प्रायश्चित फिर से तिरोहित हो गया। उबकाई आने लगी। जी मिचलाने लगा। वह पानी का लोटा लेकर फ़िर से दौड़ पड़ा नाली की ओर...बताशे की मिठास तो पल भर में मिट गई, सदियों की कड़वाहट भला मिटे तो कैसे मिटे!
( समाप्त ) ... प्रबोध कुमार गोविल