रास्ता बहुत ही ऊबड़ - खाबड़ था। बड़े - बड़े पत्थरों से तो फिर भी किसी तरह बचते - बचाते जिप्सी बढ़ रही थी किंतु जगह- जगह सूखे बबूलों की जो टहनियां पड़ी थीं उनके कांटे बड़े खतरनाक थे।
मंजरी को रह - रह कर ऐसा लगता था कि कोई न कोई बड़ा कांटा अब चुभा, अब चुभा। गलती उसी की थी। जल्दी में आज पहली बार वह स्टेपनी भी गैरेज में पड़ी छोड़ आई थी। यदि गाड़ी पंक्चर हो जाती तो इस बियाबान जंगल में पड़े रहने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था। उसका मन हुआ कि यहीं से वापस लौट चले। लेकिन जितना भय गाड़ी खराब हो जाने को लेकर था उससे कहीं ज़्यादा दहशत इस बात को लेकर भी थी कि यदि काम न हो पाया तो क्या होगा। स्वामीजी का गुस्सा वह पहले भी कई बार देख चुकी थी। किसी और पर गुस्सा होते स्वामीजी को देखकर ही उसके अपने रोंगटे खड़े हो गए थे। यदि काम न हो पाने पर स्वयं उस पर स्वामीजी क्रोधित हो जाते तो भगवान ही मालिक था। गुस्से में थरथराते स्वामी जी सामने वाले पर यौन - हमला कर देते थे।
"जो होगा सो देखा जायेगा" सोचकर वह आगे बढ़ती रही। पूरा पहाड़ पार करके अब गाड़ी पीछे की ओर आ गई थी। दूरदराज की बस्ती भी दिखनी बंद हो गई थी। गाड़ी तरह - तरह के हिचकोले खाती उसे सही- सलामत गंतव्य के निकट ले आई। उसे जगह के बारे में जो - जो भी निशानियां बताई गई थीं उसने सावधानी से उनकी जांच की। यही जगह थी।
उसे जब पक्का यकीन हो गया उसने गाड़ी रोक दी। तिरछे तने के एक पेड़ के नीचे उसने गाड़ी पार्क की और लगभग कूद कर नीचे आ गई। उसने एक बार चारों तरफ़ देखा। निर्जन बियाबान, दूर - दूर तक किसी प्राणी का कोई नामोनिशान नहीं। एक ओर सीधा खड़ा पहाड़ और दूसरी ओर थोड़े से घने जंगल के बाद ठहरे से पानी की एक सुनसान नदी। नदी के इस भाग में पानी किसी झील की शक्ल में जमा हो गया था। लगता था जैसे प्रकृति ने प्रकृति को ही बांध कर कोई प्राकृतिक बांध बना छोड़ा हो। पानी जहां गहरा था, तल की काई के कारण गहरा हरा ही नहीं, बल्कि काला सा दिखाई दे रहा था।
उसे अचंभा हुआ। स्वामीजी भी खूब हैं। क्या जगह ढूंढी। वह यहां कब आए होंगे? किसने बताई होगी ये जगह। वह सोचती रही।
इक्यासी वर्ष की उम्र में न जाने किन कामों में स्वामीजी हर वक्त व्यस्त रहते थे? न जाने क्या करना चाहते थे अपनी जिंदगी में? कोई कमी नहीं थी। आराम से बैठ कर खाने और भजन करने का पूरा प्रबंध उनके आश्रम में मौजूद था। आश्रम भी तो अत्याधुनिक शानदार फ्लैट में था, किसी बात की कोई कमी नहीं।
लेकिन उसे इन सब बातों से कोई मतलब नहीं था। उसे तो जो कहा गया था वही करना था।
जिप्सी का दरवाज़ा बंद करने से पहले उसने सीट पर से बिसलरी की बोतल उठा कर दो घूंट पानी पिया और बोतल वहीं छोड़ कर दरवाज़ा बंद कर दिया। पत्थरों के बीच बनी छोटी पथरीली पगडंडी जिस दिशा में जाती थी, मंजरी चल दी।
सौ कदम चलने पर ऊंची- ऊंची झाड़ियों का वही पथरीला ढलान आ गया जो उसे बताया गया था। ढलान पर उतरते ही उसे एक ओर उल्टी पड़ी हुई वो छोटी सी लकड़ी की नाव भी दिखाई दे गई। नाव क्या थी मानो लकड़ी का एक आयताकार टब हो।
नाव को सीधा कर उसने पानी की ओर हल्का सा ठेला और उसमें सवार हो गई। चप्पू भी किनारे पर ही मिल गए।
पानी ठंडा था। दूर से देखने पर काला दिखता था पर मैला नहीं था। जलकुंभी से भरे किनारों को पार कर मंजरी जब थोड़ा बीच में आई, साफ दिखाई दिया कि तल में पड़े काले पत्थरों के कारण पानी का रंग काला दिखाई दे रहा है। पानी साफ था। मंजरी ने एक हाथ पानी में डाल कर मुंह पर कुछ छींटे मारे। हल्की सी ठंडक महसूस हुई।
पहाड़ पत्थरों के विशालकाय ग्लेशियर की भांति दूर खिसकता जा रहा था। मंजरी झीलनुमा नदी के लगभग बीच में पहुंच चुकी थी। दूर - दूर तक इंसान तो क्या किसी जीवित प्राणी का भी कोई चिन्ह दिख नहीं रहा था। जलपांखी भी दूर के किसी किनारे पर चींटियों की तरह दृष्टिगोचर हो रहे थे।
थोड़ी ही देर में वह टापू आ गया जिसकी तसवीर मंजरी को दिखाई गई थी। मंजरी ने एक साफ़ सा पत्थर देख कर उसके सहारे नाव को रोक दिया। चप्पू को किनारे टिका वह बाहर आ गई। यह एक चारों ओर पानी से घिरी छोटी सी जगह थी। कुछ बड़े - बड़े पत्थर हर तरफ फैले हुए थे।
मंजरी ने चारों ओर देखा। उसे पत्थरों के बीच की वह गोल जगह दिखाई दी जो किसी थाली की तरह समतल थी और हर तरफ से पत्थरों से घिरी होने के कारण आसानी से दिखाई नहीं देती थी। मंजरी उस साफ सुथरी जगह पर बैठ गई। उसने आंखें बंद कर लीं।उसे एक बार मन ही मन डर भी लगा किंतु फिर स्वामीजी का ख्याल आ गया। उसने साहस से काम लिया। उसी तरह बैठी रही। धीरे - धीरे उसने डर पर काबू पाने की कोशिश की। आंखें बंद कर लगभग आधा मिनट उसने स्वामीजी के बताए शब्दों का मन ही मन उच्चारण किया। उसकी आंखों में अब वो दृश्य कौंध गया जब स्वामीजी बड़ी रसोई में काम करने वाली एक महिला पर कुपित हो गए थे। किसी हिरनी सी सहमी उस निरीह महिला का अपराध केवल इतना था कि उसने स्वामीजी का आखिरी मंत्र समाप्त होने से पहले ही उनके सामने रखी चौकी पर मेवा से भरी लस्सी का कटोरा रख दिया। स्वामीजी आगबबूला हो गए। उनकी दहकते अंगारों सी आंखें देखते ही बेचारी ने झट कटोरा फिर से उठाने की कोशिश की थी पर क्रोध से तिलमिलाए स्वामीजी ने झुकी हुई महिला का एक वक्ष पूरी ताकत से पकड़ लिया।
तभी उनके कक्ष में दाखिल हुई मंजरी ये मंजर देख कर हतप्रभ रह गई। वो तो भला हो उस नवयुवक आनंद का जो संयोग से अगरबत्ती की राख लेने एक रकाबी हाथ में लेकर तभी अंदर आया था। उसने हाथ की तश्तरी जल्दी से फर्श पर रख कर स्वामीजी के हाथ से महिला का स्तन छुड़ाया।
स्वामीजी पुनः ध्यान मुद्रा में आ गए। महिला उस किशोर लड़के से निगाह चुराती हुई तीर की तरह कक्ष से निकल गई।
मंजरी को कुछ आश्रम वासियों से यह पता चला कि स्वामीजी का क्रोध ऐसा ही है।
यहां निर्जन एकांत में अकेले बैठे हुए भी उसे अपने शरीर में एक अलग तरह का कंपन महसूस हो रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे किसी तेज़ चकरी या झूले पर झूलने के बाद वह अपने पैरों पर खड़ी हो गई हो।
अकस्मात उसकी चीख निकल गई। उसे लगा जैसे वह गिर रही है। कोई शक्ति उसे पीछे की ओर धकेल रही है। वह पसीना - पसीना हो गई। पसीना माथे पर बूंदों की शक्ल में जम गया। उसे स्वामीजी की हिदायत याद आई कि किसी भी सूरत में डरना नहीं है, आंखें नहीं खोलनी है और उठना भी नहीं है।
पलक झपकते ही मंजरी ने अपने आप को किसी गहरे कुएं में पाया। वो समतल चट्टान जिस पर वो बैठी थी घूम कर नीचे की ओर धंस गई और अंधेरे में एक कुएंनुमा तल में समा गई।
मंजरी को हल्का सा चक्कर आया किंतु अब पत्थर स्थिर हो गया था। उसने राहत महसूस की और आंखें बंद कर उसी तरह बैठी रही। स्वामीजी द्वारा बताए गए श्लोक को मन ही मन पूरा पढ़ लेने के बाद उसने ग्यारह बार वही मंत्र उच्चारा। कहीं कोई त्रुटि नहीं, कहीं कोई भूल नहीं।
अब मंजरी ने आंखें खोलीं। वह दंग रह गई। कुएं का अंधेरा हल्की केसरिया रोशनी में बदल चुका था। ठीक सामने की दीवार पर उसे स्टील का बना वो शानदार स्विच भी दिखाई दे रहा था जिसका बीच का हिस्सा किसी रत्नजड़ित चक्र की भांति चमक रहा था। मंजरी ने स्विच के बीच का वह चक्र हल्के हाथ से दबा दिया।
इस अलौकिक दृश्य से मंजरी अभिभूत हो गई। उसे स्वामीजी पर गहरी श्रद्धा उपजी। कुंडनुमा उस गड्ढे के चारों ओर की दीवारों से पानी के हल्के से फव्वारे फूट पड़े। मंजरी भीग गई। सारी थकान उतर चुकी थी। भय विश्वास में बदल चुका था। कुछ मिनट बाद चट्टान अपनी जगह पर पूर्ववत आ गई।
मंजरी ने अपने कंधे पर टंगे छोटे से पर्स से नैपकिन निकाल कर मुंह और हाथ पौंछे जो पानी की फुहार से भीग गए थे। बालों को सहलाया।
उसे सहसा ये ख्याल आया कि यदि उस दिन रसोई वाली महिला की जगह स्वामीजी की लस्सी का कटोरा लाने वाली वह स्वयं होती तो?? उसे अपने वक्ष पर दो हाथों का स्पर्श महसूस हुआ। एक इक्यासी वर्षीय वृद्ध स्वामीजी का हाथ और दूसरा उन्नीस साल के उस संकोची सेवक लड़के का हाथ जो स्वामी जी से उसे छुड़ाने की कोशिश कर रहा था। वह शरमा कर रह गई। नैपकिन को पर्स में रख वह उसी छोटी नाव की ओर बढ़ चली।
सारी तैयारियां हो चुकी थीं। मीडिया में जाने वाली विज्ञप्तियां बना ली गई थीं। कैसेट्स और तैयार होकर सीडीज की कंसाइनमेंट आ चुकी थी। उनकी जांच भी कर ली गई थी। चित्र, पोस्टर्स, स्टिकर्स, फोल्डर्स व कार्ड्स आकर्षक पैकेट्स में सभी केंद्रों पर भेजने के लिए तैयार कर लिए गए थे। स्वामीजी के हस्ताक्षर वाले आकर्षक चित्र लेमिनेट करवा कर पैक करवा लिए गए थे। प्रेस कांफ्रेंस की सारी तैयारी मंजरी ने ख़ुद की थी।
केवल तीन दिन का समय शेष था। एक दिन के लिए आराम का समय सभी को दिया गया था। उसके बाद काम में जुटना था। आश्रम की गतिविधियां और चहल पहल अचानक चर्चा में आने लगी थी।
होर्डिंग्स, बोर्ड्स, तथा बैनर्स तैयार हो चुके थे। शहर के प्रमुख चौराहों के लिए नियॉन साइन बोर्ड्स भी बनवाए गए थे। शुभकामनाएं देने वाले व्यापारियों की फेहरिस्त इतनी लंबी थी कि शहर के सभी प्रमुख अखबारों में पूरे पृष्ठ की बुकिंग कई दिनों के लिए करवानी पड़ी।
भंडारे की तमाम व्यवस्था हो चुकी थी। कई हज़ार लोगों के लिए दोनों समय के भोजन की व्यवस्था थी। अगले अड़तालीस घंटे आश्रम में बड़ी सरगर्मियों के बीच गुजरे।
एक पखवाड़ा गुज़र चुका था। शहर के सबसे व्यस्त इलाके के एक मशहूर होटल में सुबह का नाश्ता लेकर सैलानियों का एक झुंड बाहर आया तो उसे बहुत सारे लोगों ने घेर लिया।
ये सब "मददगार" थे। सरकारी भाषा में ये सब लोग गाइड थे जो पर्यटकों की सहायता करना चाहते थे। कोई उन्हें शहर के सारे पर्यटन स्थलों की सैर कराने की दावत दे रहा था तो कोई खरीदारी के लिए बाजारों की जानकारी मुहैया करवा रहा था। मददगारों के हाथ में तरह तरह के चित्र और रंगीन पर्चे थे।
अधिकांश सैलानी भी खेले खाए लोग थे। उनकी दिलचस्पी न शॉपिंग में थी न भीड़ भरे बाजारों में।
उन्हें तो हज़ारों साल पुरानी भारतीय संस्कृति लुभाती थी। वही उन्हें यहां खींच लाई थी। यहां की प्राचीन पौराणिक गाथाएं उन्हें लुभाती थी और वे यहां के ऐतिहासिक चमत्कारों से प्रभावित होते थे। वे अपनी आंखों से उन अदभुत स्थलों, इमारतों और अजूबों को देखना चाहते थे जिनके लिए भारत भूमि सुविख्यात थी। ऋषि मुनियों की ये भूमि उन्हें आकर्षित करती थी।
अभी अभी होटल की लॉबी से निकले यूरोपियन दंपत्ति ने मददगारों के इस हुजूम की अनदेखी कर के कोने में चुपचाप खड़े एक रिक्शावाले को बुलाया और उससे सात सौ वर्ष पुराने अदभुत पथरीली फुहार वाले नैसर्गिक झरने तक चलने की गुज़ारिश की जिसमें स्नान करने से शरीर के सभी रोग किसी चमत्कारिक दैवी शक्ति से ठीक हो जाते थे।
( समाप्त ) ... प्रबोध कुमार गोविल