"मुन्नू" का असली नाम ये नहीं था। लगभग बारह - चौदह बरस पहले बाईजी विधवा होकर अपनी ससुराल चांदगढ़ से अपने पीहर की इस कोठी में जब आई थीं, तो उन्हीं की ऊपरी साज - संभाल के लिए गांव से छह बरस का मुंतजर हुसैन भी ले आया गया था। मुंतजर के अब्बा के गुजरने के बाद उसकी अम्मी अपने नए नैन- मटक्कों के चलते उसे इन बाईजी की सेवा टहल के वास्ते छोड़ गई थी। नए पराए मर्द का क्या भरोसा, कैसे रखे अपनी बीवी के शौहर की औलाद को। और बस, मुंतजर बाईजी के पास आ गया। चांदगढ़ छोड़ कर जब वो यहां आईं तो बेचारा मुंतजर कहां जाता? बाईजी के असबाब का एक नग बन कर यहां चला आया।
देहरी पर बाईजी ने अम्मा से गले मिलते वक्त कहा - लो अम्मा, तुम्हारी सेवा- टहल के लिए ये मुंतजर रहेगा। कहकर बाई जी ने मुंतजर को आवाज़ दी। मुंतजर सामने आकर भोले पंछी सा खड़ा हो गया। बिन मां- बाप का बच्चा, नई जगह, नए लोग...बोल नहीं फूटे मुंह से एकाएक। और तब अपने ढीले मुंह से अम्मा ही बोलीं - का नाम ए बेटा तेरौ?
और मुंतजर से जवाब सुनकर जब अम्मा ने उसका नाम लेने की कोशिश की तो जबान ही पलटी खा गई। दो- तीन बार कोशिश करके भी अम्मा ठीक से नहीं उच्चार पाईं। "मुन्नजर - मुन्नजर" करती अम्मा की आवाज़ अम्मा के लाड़ले बेटे राज ने सुन ली। वह खिलखिला कर हंसा। अम्मा भौंचक्की सी देखती रह गईं। राज बोला - अम्मा मुन्नजर - मुन्नजर करोगी तो तुम्हारे मुंह से बत्तीसी सरक कर गिर पड़ेगी, तुम तो बस मुन्नू ही रख लो इसका नाम।
मुंतजर सिर झुकाए चुपचाप खड़ा रहा मानो अपने नए नाम को मन ही मन कबूल कर रहा हो। राज ने उस दिन से उसका नाम मुन्नू ही रख छोड़ा। उसकी देखा- देखी घर के बाकी लोग भी उसे मुन्नू ही कहने लगे। धीरे- धीरे वह इसी नाम का अभ्यस्त हो गया। और उस दिन राज के दोस्तों की बैठक में जब चाय- पानी लेकर वह पहुंचा तो पूछे जाने पर उसने भी अपना नाम मुन्नू ही बताया।
छह बरस के मुन्नू ने आठ- नौ बरस का होने तक छठे- छमाहे बाईजी से अपनी अम्मी को खत भी लिखवाया। पर जब पलट कर गांव से जवाब तक न आया तो गांव जाना तो दूर की बात रही, उसने खत तक डालना छोड़ दिया। धीरे- धीरे उसकी जिंदगी से अम्मी- अब्बा नाम के हर्फ मिट गए। इसी कोठी में उसके बचपन ने किशोरावस्था पाई।
जिस दिन अम्मा गुज़रीं मुन्नू भी ठीक वैसे ही रोया था जैसे घर के बाकी लोग। सुख- दुख चाहे जहां मना ले आदमी!
मुन्नू ने अपनी अम्मी की गोद की सुख - छाया न देखी तो क्या, मां का मरना क्या होता है यह तो जान ही लिया अम्मा की मिट्टी पर से।
अम्मा के होने - हौव्वे कोठी से पुछे तो चंद दिनों के लिए बाई जी की चलत भी थक गई। वह खाट पर पड़ गईं। पर मुन्नू ने न तब अम्मा की सुश्रूषा में कोई कोर छोड़ी थी, न अब बाईजी की टहल में कसर छोड़ी। जल्दी ही बाईजी संभल गईं और घर भी सध गया। अब कोठी बाई जी के गिर्द ही डुलनी शुरू हो गई। घर के और प्राणियों के साथ मुन्नू को भी लगा कि शेषनाग के फन पर डुलती दुनिया अम्मा के बाद नए पैंतरे में सुभीते से टिक गई।
मुन्नू ने इस घर के लिए पीर- बावर्ची- भिश्ती- खर बनने में कभी गुरेज नहीं किया और तिस पर भी जवानी की दहलीज पर पैर रखते- रखते अपनी जो कद- काठी निकाली थी सो गली- मोहल्ले की कोई ब्याहता- कुंवारी आते- जाते मुश्किल से ही अनदेखा कर पाती थी। देखते- देखते आदमी बन गया था वह अनाथ सा छोकरा।
आलस कामचोरी को छोड़कर दिनभर घर के कामकाज में जुटे रहना, उस पर समय मिलते ही वर्जिश, दौड़ना, मौका मिले तो गंगरौली के पोखर में तैर आना, इस सब का हाथ था उसके डील- डौल में।
बाईजी कभी पूछतीं - क्यों रे, तेरी अम्मी की याद नहीं सताती तुझे कभी?
मुन्नू दो बार तो चुप्पा जाता पर बाईजी के चेहरे से प्रश्न निशान हटते न पा धीरे से बोल जाता - सताए भी तो क्या करूं, वैसे तो जो अम्मी का काम था सो आप लोगों ने किया है... बस, इससे ज़्यादा न मुन्नू बोल पाता और न बाईजी सुन पातीं। बात आई - गई हो जाती।
घर में राज के बड़े हो जाने के बाद से कोई बाल - बच्चा न था सो मुन्नू को इसका लाभ भरपूर मिला। लाभ यूं नहीं कि कोई सुर्खाब के पर गांठ कर चस्पां कर दिए गए हों पर हां, मुन्नू ने बालपन से आज तक घर के किसी प्राणी को अपने पर बेमतलब उफनते- बिगड़ते नहीं पाया। मामूली बातों पर झिड़कियां खाते रहना, जो कोठियों के आम नौकरों का दस्तूर होता है, सो यहां नहीं हुआ। तीज- त्यौहार पर कपड़ा - लत्ता भी ठाठ का मिलता था और मालपानी भी। हर शुभघड़ी अम्मा या बाईजी का दिया करारा नोट भी मुन्नू फालतू खर्चता नहीं रहा था। इससे थोड़ा बहुत उसने जमाजोड़ भी लिया था। उसके अपने घर - परिवार में तो कोई उसकी खोजखबर लेने वाला रहा नहीं तो भला वह भी कहां भेजता अपनी कमाई? उसकी अम्मी अब केवल उसकी अम्मी थोड़े ही रह गई होगी। निकाह कर लिया था उसने दूसरा। बाल- बच्चे भी हो गए होंगे।
उसकी अम्मी भी दूसरे चुरा ले गए। औरों को गाली भला किस मुंह से दे, खुदा भी तो उठाईगीर निकला। उसके अब्बा को तो वही उठा ले गया एक मनहूस रात। ख़ैर!
घर में रसोई संभालने के लिए दूसरी नौकरानी दुर्गा शुरू से ही थी। कभी- कभी दुर्गा की अनुपस्थिति में, या शगुन - त्यौहार की भारी रसोई के वक्त माली की घरवाली भी बुलवाई जाती थी। लेकिन मुन्नू हर समय जुटा रहता। राज का तो छोटा- मोटा काम क्या, खाना- नाश्ता भी मुन्नू ही संभालता था। पिता के जीते- जी तो राज की हर गोट रानी न बनने पाती थी मगर अब तो उसकी फरमाइशों की लंबी फेहरिस्त थी। यह सब मुन्नू ही पूरी करता।
कम से कम दोपहर की रसोई के वक्त तो बाईजी भी भीतर ही बनी रहतीं। खासकर कोई एक व्यंजन वो ख़ुद अपने हाथों से ज़रूर बनातीं। बाकी समय पीढ़े पर बैठी दुर्गा से बतियाती जातीं और आंखों ही आंखों में रसोई का निज़ाम भी संभालती जातीं। क्या मजाल कि आग पर चढ़ने से पहले कोई बर्तन - बासन दो- तीन बार धुलने - पुछने से बच जाए।
ऐसे में दुर्गा को कभी- कभी खीज ज़रूर होती पर इससे सबके दरम्यान अपनापा भी बढ़ता। मुन्नू चाहे समझे न समझे, दुर्गा तो ये समझती ही थी कि औरत खसम से असमय निबट जाए तो माहौल के लिए सख्त हो ही जाती है। ये सब काया के नाज़- नखरे हैं।
बस इसी सबके चलते कोठी गुलज़ार रहती। इतना बड़ा महल सा घर, और ईन- मीन, साढ़े - तीन प्राणी। कभी- कभी बड़ा खौल व्यापता था। मुन्नू ने ऐसे गर्म दिन भी उस घर में देखे तो सर्द ठंडी रातें भी। और अब तो वह ख़ुद उस घर का हिस्सा हो चला था।
अपनी कोठरी में रात - बिरात अकेला पड़ा मुन्नू सोचता भी तो इस कोठी से बाहर अपनी दुनिया न पाता। राज और बाईजी तो क्या दुर्गा भी मुन्नू को भाई सरीखा ही मानने लगी थी। घर के काम में चौबीसों घंटे की गड्डमड्ड भला अपना- पराया रहने देती है!
लेकिन इसी कोठी में एक मटियाला सवेरा किसी क्रोधित ऋषि के शाप सा थरथराता दाखिल हुआ। मुश्किल से पांच बजे होंगे। तारे आसमान के मेहमान बने हुए थे। कालापन हल्के सुनहरेपन के लिए मैदान छोड़ रहा था। सूरज अभी उगा नहीं था पर पर्वत पार से अपनी आवनी का संदेशा उसने दर्ज करा दिया था।
मुन्नू रसोई में था। राज को आज किसी काम से जल्दी जाना था। मुन्नू उसी के लिए नाश्ते की तैयारी में था। सामने पड़े बासी प्याज़ के ढेर से एक प्याज़ उठाकर मुन्नू ने दो छिलके उतारे। प्याज़ किसी शिवमंदिर में रखे शंख की भांति दमकने लगा। मानो इसी से ध्वनि निकली हो, वो भूचाली धड़का हुआ। दरवाज़ा धकेल कर आंधी सी दुर्गा भीतर आई।
भागती- दौड़ती - हांफती दुर्गा भीतर घुसी और बिस्तर पर लेटी बाईजी के पांवों पर गिर पड़ी। दिव्यदेहा बाईजी चटख कर उठ बैठीं। दुर्गा ने जार- जार रोते हुए बाईजी के पांवों को झिंझोड़ डाला। बाईजी हड़बड़ा गईं - बोलेगी भी कुछ, हुआ क्या? बात तो बता!
ऐसी बातें बोलने को विधाता ने कलेजा दिया कहां है इंसान को कि ले और झट से बोल दे। पोर - पोर रिसती है हूक तो। दुर्गा रोती जाती थी, बिलखती जाती थी और बाईजी के सहेजते- संभालते भी ज़मीन पर पसर- पसर जाती थी। बाल बिखर गए थे। रो रोकर आंख का दरिया कपोल की मेड़ों को मानो बहा कर ले जाने पर आमादा था। बिंदिया किसी अभिशाप की तरह खिसक गई थी। पावभर वजन के चांदी के बेड़े भी पांवों को थामकर हलकान होने से रोक नहीं पा रहे थे।
दुर्गा का नौ - दस बरस का बेटा मार दिया गया था।
किसने मारा?
अरे अब जिनावर थोड़े ही आते हैं बस्तियों में, इंसानों ने और किसने???
पिछवाड़े से नवमी का जुलूस निकल रहा था कि एकाएक भगदड़ मच गई। दो बड़े - बड़े लोहे के सरिए बीच में आकर गिरे। गट्टेवाले बालाजी का पंडित तो कान पर ज़ख्मी तक हो गया। हुलस सब टें बोल गई। गली- गली बतंगड़ बौरा गए।
गली के दो- तीन लोगों ने एक खंडहर के बाजू से दो लौंडे देख भी लिए। दौड़ कर एक को पकड़ भी लिया गया। सबने मिलकर ऐसी मार लगाई, इतने लात- दोहत्थड़ जड़े कि खून और मिट्टी में लिथड़े लड़के के कपड़ों का भी अता - पता न रहा। उसके पायजामे की चिंदियां उड़ गईं। छत - चौबारों से मोहल्ले की जनानियां ताक न रही होतीं तो ये नाममात्र का चिथड़ा भी लड़के के तन पर न रहने पाता। घायल छटपटाता लड़का फिर भी जान लेकर भाग लिया। बदन में शायद ये सोचकर अतिरिक्त फुर्ती भर गई कि जुलूस को गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही तितर - बितर करने में कामयाबी मिली। खबर जाकर बड़े- बूढ़ों को सुनानी जो थी।
अब खून जो बहा, मिट्टी में मिला, अकारथ तो जाना नहीं था। ख़ुदा के पास तो न जाने कब इंसाफ मिले, क्यों न बाज़ी यहीं बराबर हो जाए। बस, गाज गिरी बेकसूर दुर्गा के दालान में खेलते बेटे पर। लंबे- तगड़े चार - पांच आदमी आए और कंधे पर टंगी वहशियत से बेबसी का आंगन नेस्तनाबूद कर गए। दुर्गा उसी मोहल्ले में रहती थी। एक- दो लड़के घायल हुए पर उसके बेटे ने तो तत्काल दम तोड़ दिया। इससे पहले कि कारवां अपने गलियारों में पहुंच पाता सवेरे की सैर को जाते एक बुजुर्ग घेर लिए गए। कपड़ों समेत आग लगा दी गई। सुबह की सैर आख़िरी यात्रा हो गई।
कर्फ्यू लग गया था। पुलिस आ गई थी। पर दुर्गा दम हथेली पर लेकर यहां आ ही गई। दिवंगत ठाकुर साहब के ज़िंदा रुतबे और बाईजी के रसूख का सहारा जो था। दुर्गा कर्फ्यू लगने तक वहीं रही। पूरे दो दिन घर अनमना सा रहा।
अगली शाम को मुन्नू कोठी की छत पर बैठा गली में उड़ती पतंगों को देख रहा था। वह कल रात से ही डरा हुआ था। उसे कल देर रात को आसमान में एक पुच्छल- तारा दिखा था। बेइंतहा चमकती वो उल्का उसमें इतना खौफ भर गई कि वह शाम के धुंधलके में किसी पूंछदार पतंग को देख कर भी सिहर जाता था।
मुन्नू मुंडेर पर बैठा था कि छत वाले कमरे से बाईजी का स्वर सुनाई दिया। वह माली की घरवाली से कह रही थीं कि देख, ज़रा उस मुंतजर को बुला ला।
- मुंतजर! कौन मुंतजर???
मुन्नू ने जैसे चौंक कर आजू - बाजू देखा कि किसे पुकारा गया। बाई जी ने मुंतजर किसे कहा? छत की मुंडेर पर उकड़ू बैठे मुन्नू को सरेशाम फिर कोई उल्का सी दिखी और वह झट से छज्जे से कूद गया, जहां अभी - अभी एक पतंग दर - बदर आ गिरी थी। माली की घरवाली छत पर उसे ढूंढने आई थी, पर वहां उसे न पाकर वह वापस चली गई।
रात को खाने की मेज़ पर राज ने कढ़ी की कटोरी परे सरकाई तो बाईजी ने उतावलेपन से रसोई की ड्योढ़ी पर देखा। मुन्नू वहां न दिखा तो उसे तलाशती हुई भीतर चली आईं। मुन्नू वहां दीवार पर लग कर रो रहा था।
- अरे, रो रहा है? बाईजी कुछ बूझ न पाईं। अपने अवचेतन में किसी अग्निशिखा की दमक ख़ुद बाईजी तो न देख पाईं पर शायद मुन्नू ने देख ली थी।
शहर में जो काला- अंधड़ फिरा था, यह अंधड़ कर्फ्यू लगवा गया। बुजुर्ग को जिंदा जलवा गया। दुर्गा के मासूम बेटे को मौत के घाट सुला गया ...और बाईजी के अलमस्त अवचेतन में चौदह बरस बाद मुन्नू को मुंतजर बना गया।
चौदह बरस की खिली धूप पर काला बादल आकर अनिष्ट फूंक गया। इस बलवे ने जहान भर की धूप समेट कर फिर से मुए सूरज के हलक में ठूंस दी!
( समाप्त )... प्रबोध कुमार गोविल