वह पिछले कई बरस से इस नौकरी में था। उसके रिटायरमेंट में अभी तीन - चार बरस का समय और भी बाकी था। यह पहली जगह थी जहां जमकर वह इतने अर्से तक टिका था। वरना इससे पहले तो हर दो - तीन साल बाद किसी न किसी वजह से वह जगह और नौकरी दोनों ही बदलता रहा था।
उसकी ये नौकरी भी अजीब थी। बेहद नीरस और उबाऊ दिनचर्या थी यहां। इन तेरह बरसों में उसने एक- एक लम्हा किस तरह सामने से धकेल कर हटाया है ये वह ख़ुद ही जानता है। पर फिर भी एक साथ पूरे तेरह सालों को जोड़ कर देखे तो ये सारा समय कैसे गुज़र गया खुद उसे भी नहीं मालूम। इन तेरह सालों का साक्षी बन कर जो कुछ उसके पास बचा था उसमें कुछ बहुत ज्यादा नहीं था उसकी झोली में। अंगुलियों पर गिन सकता है वह। कान के पास से शुरू होकर बीच माथे तक सफ़ेद होते बाल, गालों के नीचे से शुरू होकर आंखों तक पहुंचती उम्र की झाइयां और जिस्म पर काले- भूरे और फिर रफ्ता- रफ्ता सफ़ेद होते रेशे।
रोज़ सुबह ठीक ग्यारह बजे एक चमचमाती कार इस विराट दरवाज़े से धूल उड़ाती हुई भीतर घुसती है और सिलसिला शुरू हो जाता है। वह दिन में उसका पहला और अनिवार्य सैल्यूट होता है। उसके बाद तो सब उसकी मर्ज़ी और शिष्टाचार की भावना पर होता है। अनेक छोटे- बड़े अफ़सर, बाबू और कामगार दाखिल होते ही रहते हैं मिल में। वह मूड, सुविधा और परिचय के आधार पर तरह - तरह से अभिवादन करता है। किसी को सैल्यूट, किसी को सलाम, किसी- किसी को केवल एक मुस्कुराहट और किसी को आंखों से बरसती आशीष। वह भी तो आखिर एक उम्रदराज आदमी हो चला है न अब, इसलिए उसे भी सलाम करने वाले इक्का- दुक्का मिल जाते हैं।
दोपहर को लंच टाइम में फिर एक बार चहल - पहल से दरगुज़र होता है उसका जम्हाई लेता दिन। जब कुछ कारें इधर- उधर होती हैं, कुछ स्कूटर, मोटर साइकिलें, बहुत सी साइकिलें और अनगिनत पैदल। मिल कंपाउंड के बाहर ये दो- चार छोटे - मोटे रेस्टोरेंट, ढाबे और अनेक खोंमचे उसके देखते- देखते ही आ जुटे हैं दो - पांच सालों में। बरसों पहले उसे याद है बस ये दो ठेले हुआ करते थे। एक पर फल और दूसरे पर पान। फल वाला अक्सर फलों पर से मक्खी उड़ाता रहता और पान वाले से बतियाता रहता था। बीच - बीच में छू- टटोल कर फलों की साज - संभाल करता रहता था। जब वह एकाध केले को काला पड़ता देखता तो उसे आहिस्ता से निकाल कर अलग रख लेता था। फिर उसपर बैठती मक्खियों की ओर से बेपरवाह हो जाता था। उन्हें उड़ाने की उसे फिक्र नहीं रहती थी। थोड़ी देर के बाद इधर - उधर देखता वह उसे उठाकर छीलने लग जाता था और धीरे - धीरे खाना शुरू कर देता था।
कभी- कभार वह अपना ठेला धूप में ही पड़ा छोड़ कर पान वाले के पास जा बैठता था और बातें करता रहता था। इस बीच गाहे- बगाहे वह पान भी खा लिया करता। हां, खैनी उसकी अपनी जेब में ही रहती थी। अंगुली से चूना निकाल कर हथेली पर रगड़ता हुआ वह अपने ठेले पर लौट आता था।
पान वाला उसकी अपेक्षा अधिक व्यस्त रहता था। इक्का- दुक्का ग्राहक हमेशा ही उसकी दुकान के सामने खड़े रहते थे। कोई सिगरेट के लिए, तो कोई पान के लिए। कुछ कुदरती आदत होती है न लोगों की। यदि घड़ी - दो घड़ी फालतू वक्त मिले तो वो कहीं और खड़े होने के बजाय पान की दुकान पर खड़ा होना ज़्यादा पसंद करते हैं। इस वजह से भी पान की दुकान कुछ आबाद सी रहती।
उसे याद है कि कैसे एक बार लंबी हड़ताल चली थी। उस दौरान कैंटीन भी बंद हो गई थी मिल की। तब यह चाय का होटल खुला यहां। बाद में हड़ताल टूट गई, कैंटीन भी चालू हो गई पर यह दुकान बंद नहीं हुई। दिन- रात बढ़ती ही गई। और अब देखो, अब तो छोटा- मोटा बाज़ार ही बन गई है सड़क।
ठीक ग्यारह बजे दाखिल होने वाली कार का रंग उसके देखते- देखते कई बार बदला है। बल्कि सच पूछा जाए तो वह कार ही कई बार बदली है। उसे तो इतनी पहचान है नहीं कि कौन सी फिएट होती है, कौन सी मर्सिडीज, कौन सी इम्पाला और कौन सी फोर्ड। हां, कई बार उसने कार के रंग और आकार- प्रकार से भेद ज़रूर देखा महसूस किया है। उसे तो इन कारों की अलग - अलग कीमत भी नहीं मालूम। पर इतना वह भी अनुमान लगा सकता है कि इस ग्यारह बजे वाली कार का हर साल- दो साल बाद बदलता हुआ आकार और रंग ये तो जता ही देता है कि कार के मालिक को भारी मुनाफा होता रहा है। यानी वह तरक्की पर है।
उसे याद है, उसने शायद तेरह बरस में इतनी पतलूनें और कमीज़ें भी नहीं बदली होंगी। और उसे जरूरत भी क्या होती है यहां। दिन भर तो फैक्ट्री की वर्दी ही पहननी होती है। सुबह आते ही वह पास वाले पेड़ के नीचे जाकर इधर - उधर देखता अपने कपड़े बदलता है। थैले को गेट के पास ही बनी कोठरी में रखे स्टूल के सहारे टिका देता है। फिर वर्दी पहन कर तिरछी टोपी लगाता हुआ वह अपने कपड़ों को कोठरी में लगी एक पुरानी खूंटी पर टांग देता है और चरमराते जूतों पर सवार होकर वह सड़क के करीब आकर खड़ा हो जाता है।
साढ़े ग्यारह बजे तक भीड़- भाड़ कम हो जाती है। करीब - करीब सब लोग भीतर दाखिल हो लेते हैं। और तब वह इत्मीनान महसूसता हुआ सड़क के करीब बनी हुई पुलिया पर बैठ भी लेता है।
उसकी ड्यूटी बारह घंटे की होती है। रात की पाली में दूसरा वॉचमैन आता है। उसके आने के बाद पांच - सात मिनट उसके पास बैठ कर, बातें कर के वह लौटता है। लौटने की उसे कभी जल्दी भी नहीं होती। लौटते समय गर्मी के दिनों में अक्सर वह पतलून पहनने के बाद कमीज़ को पहनता नहीं है। ऐसे ही बनियान पहने हुए कंधे पर कमीज़ डाल कर टहलता हुआ चल देता है।
शाम का समय उसका बहुत अच्छा गुजरता है। जब सायरन बजता है वह एकाएक मुस्तैद होकर टोपी को फिर से ठीक करके गेट के करीब आ रहता है। इस वक्त लौटती भीड़ के चेहरे देखना उसे अच्छा लगता है। वह कल्पना करता है कि कैसे थोड़ी देर बाद लोग अपने- अपने घरों में पहुंच जायेंगे। अपने बाल- बच्चों, स्वजनों के बीच। और फिर अगली सुबह तक के लिए एक अलग माहौल में अपने को महसूसते हुए मिल को भूल जायेंगे। यह सब उन्हें फिर से याद दिलाएगा कल सुबह का सूरज।
ऐसा ही होता रहा है खुद उसके साथ भी इतने बरस से।
इधर इस नौकरी में उसकी एक आदत और भी हो गई है। काफी समय उसे फालतू मिलता है। इसी से बैठे - बैठे सोचने की आदत हो गई है। काफी समय तक सोचता है तो सोच के रास्ते पर बहुत दूर- दूर निकल जाता है। फिर वहां से लौटता है तब, जब किसी आहट, किसी आवाज़ से लौटाया जाता है।
वह फैक्ट्री का चौकीदार है। वॉचमैन। उसकी ड्यूटी इस मेन गेट पर रहती है। उसे इसलिए रखा गया है कि पहरा दे। किसी भी खतरे - अनहोनी को रोकने का दायित्व उसी पर है। तेरह बरस से उसकी ड्यूटी इसी एक जगह पर है। उसका काम यही है कि उसकी नज़र जहां जहां तक जाए वहां तक मिल को कोई भी किसी किस्म का नुकसान न हो। यदि वह ऐसा कुछ भी होता देखे तो चौकन्ना हो जाए। हड़ताल के दिनों में तो और भी मुस्तैद रहता था वह। उसकी आंखें किसी भी अनर्थ - आशंका के प्रति सचेत रहती थीं। कभी भी नारे लगाते मज़दूर जाने क्या कर बैठें? मन ही मन तो वह भी उन लोगों के साथ ही रहता था। दिल से चाहता था कि वो जिन बातों के लिए मुहिम छेड़ रहे हैं वे पूरी हों। पर ड्यूटी पर रहते हुए कभी मिल- मालिक की ओर से भी कभी नमकहराम नहीं हुआ वो। एक अजीब सी दिलचस्पी उसे मजदूरों के हरेक क्रियाकलाप में रहती थी। मगर वो भी ऐसा कुछ नहीं करते थे कि उसे बीच में आने की ज़रूरत पड़े। कई- कई दिनों तक चलने वाली हड़ताल का वह भी खामोश दर्शक ही रहा था। कभी किसी प्रकार का दखल देकर अपनी दिनचर्या से कुछ अलग कर पाया हो उसे याद नहीं।
सुबह ग्यारह बजे स्पीड से आती कार एकाएक मुड़ती है तो उसका ध्यान बरबस खिंच जाता है। हो सकता है कभी इस तरह तेज़ गाड़ी चलाते ड्राइवर का हाथ डगमगा जाए। गाड़ी दरवाज़े से घुसने की बजाय मेन गेट के खंभों में ही टकरा जाए। ड्राइवर ज़ख्मी हो जाए। उसके साथ- साथ पीछे की सीट पर अधलेटे से बैठे सिगार पीते मालिक भी ज़ख्मी हो जाएं। यदि ऐसा हो जाए तो एकाएक आसपास से आवाज सुनकर लोगों का हुजूम इकट्ठा हो ही जाए। तुरंत दूसरी गाड़ियों में मालिक अस्पताल ले जाये जाएं। फैक्ट्री का रूटीन अस्त - व्यस्त हो जाए। हर जगह यही चर्चा हो। लोग आपस में इसे लेकर बातें करें। चाहे कितने ही लोग जुड़ जाएं पर दरबान होने के नाते उसे तो वहां सबसे पहले पहुंचना पड़े। गाड़ी जाने किस रूप में गिरे? मालिक कहां फंसे हों? मालिक की चोट ड्राइवर से कम हो, ऐसे में वह पहले क्या ड्राइवर को संभाले? मालिक देखते रहें। सहारा देकर लोगों के साथ मिलकर उन्हें निकालना पड़े। तब सहारा देकर ही दूसरी गाड़ी में बैठाना पड़े। हो सकता है कि दूसरी गाड़ी तत्काल आसपास मौजूद न हो। ऐसे में ज़ख्मी को संभाल कर पेड़ की छांव में लाने का ज़िम्मा औरों के साथ- साथ उसका भी तो है। उसे ही कोठरी में रखे मटके से पानी लाना पड़े और दौड़कर ज़ख्मी को पिलाना पड़े। मुंह पर छींटे मारने पड़ें। हो सकता है बेहोशी हो। मालिक की आंखें बंद हों। वह कुछ भी देख न रहे हों, फिर भी दौड़कर उसे सब करना पड़े। उसके लाए पानी को मालिक के क़रीब ही खड़ी भीड़ में से कोई बड़ा अफ़सर ले ले और छींटे मारने का काम वह स्वयं करे। देर तक आने - जाने वाले लोग उससे ही पूछें हादसे के बारे में, क्योंकि वही तो वहां पहरे पर तैनात है। वह एक एक बात लोगों को बताए उत्साह...
तेरह बरसों में आजतक कभी ऐसा हुआ नहीं है। उसकी आशंका निर्मूल ही रही है। किसी का बुरा वह स्वयं भी क्यों चाहे? अनिष्ट भला किसे अच्छा लगता है? पर वह तो ड्यूटी ही उसकी ऐसी है कि दस तरह की बातें दिमाग़ में आती ही हैं।
इतनी लंबी - चौड़ी फैक्ट्री है। दर्जनों वॉचमैन हैं। पर वह मेन गेट का चौकीदार है। हर बात के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। कोई भी वारदात हो, आख़िर मुख्य द्वार पर तो उसका असर होगा ही।
छोटी - बड़ी चोरी हो जाए तो चोर इधर ही से माल ले जायेगा। कोई बाहर का आदमी हो या फैक्ट्री का। वह कौन सा एक- एक को देखता है? हो सकता है कि किसी गाड़ी में ही माल- असबाब उठ जाए।
उसे याद है यहां काम पर लगने के बाद जब पहली बार वह गांव गया था। रात को सब काम से निबट कर गोमती जब उसके पास आकर लेटी थी, तब उसने सबसे पहले यही पूछा था कि दालान के किवाड़ का कुंडा लगा लिया या नहीं। कुछ देर बाद जब गुसल को उठा तो एक बार खुद जाकर उढ़काये हुए किवाड़ों पर टटोल कर देख आया था। मटके से पानी पीकर लौट रहा था तभी कोने की ओर देख कर चौंका था। फिर धीरे- धीरे पास गया उस डोरी के जिस पर उसके ही कच्छा - बनियान सूख रहे थे। कच्छे का नाड़ा एक तरफ़ से ज़्यादा लटकता देख कर उसने उसे खींच कर उतार दिया और पास पड़ी टूटी कुर्सी पर डाल आया था। लौटा तब तक गोमती पूरी तरह नींद में थी। बस, यही उसे खराब लगता था, चारपाई पर पड़ी नहीं कि नींद आई उसे।
आए दिन देखता सुनता है। तरह तरह के किस्से फैलते रहते हैं, भयानक किस्म की आग ही लग जाती है। हो सकता है कि किसी की ज़रा सी लापरवाही से यहां आग ही लग जाए। किस तरह होश हवास खोकर सब काम छोड़ लोग इधर - उधर दौड़ेंगे? सामने टाइम ऑफिस में दौड़कर फायर ब्रिगेड को फ़ोन करने के लिए कहने वालों में वह भी हो।
वह ऐसा क्यों सोचे? आग लगे दुश्मनों की बस्ती में। ये तो वो जगह है जहां उसकी उम्र के कीमती साल एक- एक करके दरकिनार हुए हैं। हां, कीमत अलबत्ता बहुत नहीं रही उसकी। इन सालों में टाइम ऑफिस वाले रणजीत बाबू को छोड़ कर दोस्ती जैसी चीज़ उसकी और किसी के साथ नहीं हो पाई। बस दुआ- सलाम तक ही रहा है उसका सीमित सा व्यवहार। फिर यहां भी सब अपने - अपने में मगन। रणजीत बाबू से तो उसकी पहचान सात- आठ साल पहले ही हो गई थी। और पांच - सात मिनट उनके साथ बैठ कर बतियाने का सिलसिला भी इसलिए चल निकला था क्योंकि वह उसके गांव के पास वाले ही किसी गांव से आए थे। एक सहज आत्मीयता सी भी बस अपने आप ही उपजती चली गई थी। परंतु रणजीत बाबू ने पिछले ही साल रिटायरमेंट ले लिया। वह गांव लौट गए। बाल- बच्चों के बीच पहुंच गए।
वह भी रिटायरमेंट के बाद गांव ही लौट जाएगा। वहां कोई छोटा- मोटा धंधा देख लेगा और चैन से रहेगा। वैसे उसे जरूरत क्या है धंधे की? रिटायरमेंट पर यहां से पेंशन नहीं तो फंड और ग्रेच्युटी का पैसा तो मिलेगा। उसके लिए तो वो बहुत काफी है। फिर अब घर में ऐसा कोई है भी नहीं जिसकी जिम्मेदारी उस पर हो। बेटे- बेटियां सब ठिकाने से लग ही गए हैं। गोमती बेचारी सात बरस पहले ही...
घर के बाहर इत्मीनान से चारपाई डाल कर बैठा करेगा। पोते- पोतियां खिलाएगा। गांव - गली के ठाले- फालतू आते - जाते रहेंगे। चार बातें होंगी। उस जैसे दूसरे बीते - गुजरे बूढ़ों का खेमा सा जुट जाएगा। वह भी इन सबके बीच बैठ कर इन तेरह सालों के किस्से कहानियां सुनाया करेगा।
रिटायरमेंट लेने के बाद गांव लौटने से पहले रणजीत बाबू के पास जब कामधाम नहीं रहा तो वो काफी काफी देर उसके पास बैठा करते थे। इस दौरान अपनी नौकरी के दिनों के कई किस्से सुनाया करते थे। वह चाव से सुनता था। रणजीत बाबू किस्सागो थे। तबीयत से सुनाते थे। छोटी बात छोटी की तरह, बड़ी बड़ी के अंदाज़ में।
वह तबीयत से किस्सेबाज़ नहीं है। बातचीत का वह लहज़ा उसमें आ ही नहीं सकता। फिर उसके पास किस्से भी कहां हैं? मालिक की कार कभी आज तलक टकराई नहीं है.. मजदूर नारे लगाते रहे पर कभी मिल पर पत्थर नहीं बरसाए उन्होंने... बॉयलर ने कभी आग नहीं पकड़ी...उसके देखते कोई छोटी - बड़ी चोरी चकारी आज दिन तक नहीं हुई।
तो क्या वह एक निरर्थक आदमी है? किसलिए रखा गया है वह? क्या उसका कोई इस्तेमाल है यहां? वह पगार किस बात की लेता रहा है? ...किसी खास दिन की आशंका में निहायत आम दिन जीने वाला आदमी... दुर्घटना हादसों को रोकने के लिए रखा गया आदमी...उन पर नजर रखने के लिए तैनात आदमी...उनके न होने पर शून्य में ताकता आदमी!
उथल - पुथल के सपाट अक्स संजोए आदमी!
चमकती कार गेट से निकल रही है और वह झटपट खड़ा होकर सैल्यूट ठोक रहा है।
( समाप्त ) ... प्रबोध कुमार गोविल