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वितंडी

- सर, मुझसे ये सब सहन नहीं होता।
- सहनशीलता... टॉलरेंस, ये एक गुण है। ये जन्मजात भी हो सकता है और इसे विकसित भी किया जा सकता है। हर व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व निर्माण के लिए ऐसा करना भी चाहिए।
- लेकिन सर, मेरी आत्मा आहत हो जाती है ऐसी बातों से। विभोर का तैश कम नहीं हुआ था। आज शायद वह प्रतिकार के मूड में था। थोड़ी सख्ती मुझे भी बरतनी पड़ी।
- देखिए, हमारी आपकी आत्मा किसी की बपौती नहीं है कि कोई भी इसे घायल या आहत कर देगा। और फिर ये तो आपके मानने न मानने के ऊपर है। आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि आत्मा घायल हो गई। आपकी आत्मा अदृश्य है। यह न आपको दिख रही है और न किसी और को। इसके ज़ख्मी हो जाने की बात तो तब होगी जब आप स्वयं ऐसा ऐलान करेंगे। नहीं तो कोई क्या जानेगा? अपने ऐलान पर काबू रखिए...मैंने विभोर को समझाया। वह मायूसी और मासूमियत के मिले- जुले अंदाज़ में मेरी बात सुन रहा था, नौकरी में नया- नया आया एक बेहद संजीदा और समझदार युवक।
- लेकिन सर, इसका मतलब तो ये हुआ कि हम सब कुछ सहते जाएं... मान- अपमान भी तो कुछ होता है!
- ज़रूर होता है। लेकिन याद रखो, जब हम किसी को गाली देते हैं तो सामने वाले का जमीर और हमारा मुंह, दोनों मैले होते हैं। ज़मीर का मैलापन तो लोग तब देखेंगे जब दिखाया जायेगा पर मुंह का मैलापान तभी सार्वजनिक हो जायेगा। मैं खुद आश्वस्त नहीं था कि मैं उसे क्या समझाना चाह रहा हूं पर शब्दों की पतवार डाल दी मैंने उसके आगे।
- ओके सर, बस आपकी बात मानकर मैं आज का सारा गुस्सा भुला देता हूं और ये चैप्टर क्लोज़ कर देता हूं, पर असलियत ये है कि मुझे अच्छा नहीं लगा।
इतना कहकर विभोर मेरा उत्तर या प्रतिक्रिया जानने के लिए ठहरा नहीं बल्कि तपाक से चला गया। यदि जाते- जाते सिर हिलाकर वह मुझे अभिवादन करके न जाता तो शायद मैं अपने को अपमानित सा पाता। ऐसे ही थे उसके तेवर।
उसके जाने से दरवाज़े के पास अभी- अभी जो खालीपन हुआ था वह कांप रहा था। शायद, हो सकता है यह मेरे ही सोच का कंपन हो। मुझे लगा कि मैंने बातों का बल्ला हाथ में लेकर विभोर की भावनाओं के ज्वार को किसी गेंद की भांति उछाल कर दूर चाहें फेंक दिया हो पर खिलाड़ी के से चेहरे की दीप्ति और आश्वस्ति न मेरे चेहरे पर आ सकी और न ही विभोर के।
दरअसल बात वही थी। साहब ने विभोर को अकारण ही डांटा था। विभोर पहले दो बार तो किसी तरह से बर्दाश्त कर गया था पर आज वह भी बिफर गया। भीतर, साहब के केबिन में तो वह अपने को जब्त किए रहा पर मेरे पास आकर फट पड़ा। कुछ संयोग ऐसा था कि इस बार भी मेरी उपस्थिति में ही हुई थी उसकी खिंचाई। वह साहब का क्रोध मेरे समक्ष उगलकर शायद यह सोच रहा हो कि मैं साहब को उसकी भावनाओं से अवगत करवा सकूंगा। वैसे यह सच था कि वो मुझे अपना शुभचिंतक समझता था लेकिन यह भी एक उतना ही बड़ा और तीखा सच था कि किसी की भावनाओं को साहब के दबदबे की लक्ष्मणरेखा के पार पहुंचा पाना मेरे लिए भी कठिन था।
साहब लगभग छह माह पूर्व तबादला होने पर जब इस शहर में आए थे तब भी बड़े अजीबोगरीब अनुभव हुए थे सभी को। आमतौर पर अन्य साहबों जैसे नहीं लगे थे मातहतों को वे। स्टेशन पर दफ्तर की कुछ महिलाकर्मी भी हाथों में गुलदस्ते लिए आगे बढ़ीं। परंतु पलभर में ही सारा माहौल बेस्वाद हो गया जब ट्रेन के डिब्बे के दरवाज़े से साहब अकेले ही उतरे थे। घोर आश्चर्य का विषय यह था कि साहब के साथ मेमसाहब आई अवश्य थीं किंतु वो पास के द्वितीय श्रेणी के डिब्बे से उतरीं। लोगों के चेहरे के सवालिया निशान को ताड़कर साहब तपाक से बोले - भई मेरा टिकिट सरकार ने खरीदा था, इनका मैंने।
इस बात पर एक दूसरे का मुंह देखते रह गए लोगों की प्रतिक्रिया भी भेलपूरी जैसी थी, मिली- जुली। किसी ने प्रशंसा की, कोई अवाक रह गया। कोई गदगद हो गया, कोई आहत हो गया। किसी की फूंक सरक गई, कोई सचेत हो गया। कोई आश्वस्त हो गया किसी की सिट्टी- पिट्टी गुम हो गई। किसी की पौ- बारह हो गई तो किसी की चूलें हिल गईं। जितने चेहरे उतने रंग। साहब के इस पहले उदगार ने सबको भीतर ही भीतर मथ कर आइना दिखा दिया। ...अच्छा, तो नया साहब ऐसा है?
दफ्तर में रोज़ तमाशे होते। साहब को कोई कुछ बोल नहीं पाता। साहब सबको कुछ न कुछ बोल देते, उल्टा - सीधा। पर कुछ तो था साहब की शख्सियत में ऐसा कि कोई भी उनकी किसी भी बात का विरोध कर पाने में अपने को सक्षम नहीं पा रहा था। दफ्तर का माहौल ही बदलने लगा धीरे- धीरे। पहले दिन- भर सिगरेट फूंकते रहने वाले बाबू भी अब साहब से नज़र बचाकर ही गुटका खा पाते। और साहब ने बुला लिया तो पहले मुंह से तंबाकू थूको, तब जाओ भीतर केबिन में।
- भैंस और तुझ में कोई फ़र्क है कि नहीं, ऑफिस में जुगाली करता घूम रहा है। जब यह बात साहब ने मिश्रा को कही तो सबने दो बातों पर ध्यान दिया। एक तो ये कि साहब किसी को भी आप या तुम नहीं, बल्कि"तू" कहने के आदी थे। दूसरे, ऑफिस के अनुशासन पर कोई कॉम्प्रोमाइज नहीं।
नीलकंठन जी को छुट्टी चाहिए थी। बस एक दिन की। हैदराबाद से उनके कुछ मेहमान आए थे। उन्हें घुमाने- फिराने ले जाना था। साहब की सख्त ताकीद थी कि छुट्टी की कोई भी दरख्वास्त चपरासी के माध्यम से न आए। संबंधित व्यक्ति को छुट्टी की वजह- बयानी के लिए खुद पेश होना होगा। नीलकंठन जी थूक गटकते हुए जैसे- तैसे भीतर पहुंचे।
- क्यों? साहब गरजे।
- जी, कल एक दिन की छुट्टी..
- क्या करेगा छुट्टी लेकर? 'तुम' या "आप" तो साहब की डिक्शनरी में था ही नहीं। जब कभी साहब अच्छे मानुष मूड में होते तो इसका कारण भी बताते थे। कहते - तू कहने में अपनापन है। हम मां को तू कह सकते हैं पिता को नहीं। भगवान को तू कह सकते हैं अजनबी को नहीं। सब निरुत्तर हो जाते थे। और साहब से मौके - बेमौके तू कहलवाने के लिए अपने को मानसिक रूप से तैयार करने में जुट जाते थे।
- जी... जी, वो ज़रा बाजार जाना था। नीलकंठन जी ने जैसे- तैसे छुट्टी की वजह बयान की।
- क्या लायेगा बाज़ार से, कंजूस कहीं का? साहब बिना उनकी ओर देखे फाइल पर झुके रहे।
- जी ..जी ..
- क्या जी जी .. पत्नी को पैसे दे दे, वो ले आयेगी जाकर जो भी लाना है। तुझे पता है औरतें कितनी खुश होती हैं अपनी सहेलियों के साथ बाज़ार जाने में! तू उसे पैसे नहीं देना चाहता न? उसके पीछे- पीछे ऑडीटर बन कर जायेगा। मुझे सब पता है।
- नहीं सर, वो किचन का सामान, उससे उठेगा नहीं।
- क्यों रे, तू खाता क्या है चावल के सिवा मद्रासी? किचन का क्या सामान लायेगा!
- सर, हम हैदराबाद का... नीलकंठन जी सकुचाए।
- हां- हां एक ही बात है, चावल ही तो चाहिए तुझे दोनों टाइम? लंच टाइम में एक बोरी लाकर रख ले, ऑफिस की जीप ले जा। छुट्टी का क्या करेगा, जा जाकर काम कर!
इतना कह कर साहब फिर से फाइल पर झुक गए।
नीलकंठन मुंह लटकाए बाहर निकले और सीधे शौचघर में घुस गए।
दोपहर को चाय पीने नीलकंठन जी और प्रमोद शंकर जी एक साथ गए। नीलकंठन ने डरते - डरते पूरी बात प्रमोद शंकर को बताई। प्रमोद शंकर हंसने लगे। बोले - तुम्हारी छुट्टी मंजूर हो गई।
- मंजूर हो गई?
- हां, अभी तो मुझे बुलाकर कहा साहब ने कि देखो, नीलकंठन के घर मेहमान आए हैं, उसकी छुट्टी मंजूर कर दो, उसे कहीं घूमने- फिरने जाना हो तो ड्राइवर से कह कर उसके घर जीप भिजवा देना, डीज़ल के पैसे उसके वेतन से जमा कर लेना।
नीलकंठ जी गदगद हो गए। दरअसल उनका यह पहला मौका था। साहब से नया- नया वास्ता पड़ा था। वह कुछ ही समय पूर्व ट्रांसफर होकर आए थे। खुद प्रमोद शंकर ने उन्हें अपना किस्सा सुनाया, जब उन्होंने मौसी के लड़के की शादी में आगरा जाने के लिए छुट्टी मांगी थी। साहब ने उनकी अर्जी को उठा कर हवा में उछाल दिया था। कहा - क्या करेगा शादी में जाकर, वहां जाने में हज़ारों रुपए बिगाड़ेगा। बिना ज़रूरत के दो- तीन जोड़ी तड़क- भड़क वाले कपड़े सिलवा लेगा। बस- ट्रेन में धक्के खायेगा। बच्चों की पढ़ाई- लिखाई चौपट करेगा हफ्ते भर तक। फिर वहां जाकर भीड़- भाड़ में औरतों के झुंड के पीछे खड़ा हो जायेगा गोद में बच्चे को लेकर। उल्टी - सीधी रस्मों के ऐसे फ़ोटो खिंच जायेंगे जिन्हें दो दिन बाद कोई देखेगा तक नहीं...एक सांस में न जाने क्या- क्या बोल गए थे साहब। लेकिन जब शाम को प्रमोद शंकर घर जाने लगे तो साहब ने खुद उन्हें केबिन में बुलावाया। उनकी छुट्टी तो मंजूर हो ही गई थी बल्कि उनका सैलरी एडवांस भी मंजूर हो गया था।
धीरे- धीरे यह बात सारे दफ्तर में फैल गई कि साहब मन के बहुत अच्छे हैं। बस जबान के ही कड़वे हैं। मुंह से कुछ भी, किसी को भी कहते रहते हैं मगर कागज़ पर कभी किसी का बुरा नहीं करते। हर समय डांट- डपट करते रहने की उनकी आदत को अब अपनी नियति मान लिया था दफ्तर वालों ने। जब किसी का भी साबका उनसे पहली बार पड़ता, लोग उबल पड़ते। न जाने क्या- क्या कहते, सैडिस्ट है, फ्रस्टेटेड है, औरत विरोधी है। ऑफिस की महिलाकर्मियों से साहब के बारे में प्रतिक्रिया लेना बड़ा कठिन हो गया था। साहब महिलाओं को हमेशा दया - भाव से देखते। उन्हें लगता था कि इनका काम दफ्तरों में आना नहीं है, इन्हें तो घर ही संभालने चाहिए। उनकी किसी भी बात में रोड़ा नहीं अटकाते थे साहब। बस, इसी से पुरुषकर्मी उन्हें औरत विरोधी मानते थे। दया- माया का यह भाव केवल औरतों की अवहेलना ही तो करता था। उनकी सारी चुनौतियां ख़त्म करता था। उन्हें हेय दृष्टि से देखने को ही दर्शाता था। पर उनके प्रति शिष्टता में कभी कोताही नहीं की साहब ने। पुरुषों को ही लताड़ पिलाते रहते थे।
धीरेंद्र प्रकाश का किस्सा भी ऐसा ही था। पचपन वर्षीय धीरेंद्र जी ने अर्जी दी कि उनका तबादला नागपुर कर दिया जाए क्योंकि उनके माता- पिता वृद्ध हैं और घर में वहां अकेले रहते हैं।
साहब उनकी एप्लीकेशन देखते ही गरम हो गए। फौरन उन्हें बुलवाया। बोले - इधर आ, तू क्यों कागज़ खराब करता रहता है अर्जी लिख लिख कर? धीरेंद्र जी को मानो सांप सूंघ गया। चुप।
- पेरेंट्स ओल्ड हैं, पेरेंट्स ओल्ड हैं..ये कोई कारण है ट्रांसफर का? अरे तू खुद ओल्ड है तो तेरे पेरेंट्स क्या अब यंग होंगे? नौकरी में आते समय क्या सोचा था, माता- पिता हमेशा जवान रहेंगे? भारत में कहीं भी जाने के लिए तैयार है ऐसा क्यों लिख कर दिया था सरकार को? सरकार को मूर्ख बनाता है? और अगर तेरे माता- पिता बूढ़े हैं भी तो तू कौन सा उन्हें संभाल लेगा! तू खुद को ही संभाल ले वही बहुत है। थोड़े दिन ठहर जा, तेरे बेटे की नौकरी लग जाने दे फ़िर वो संभाल लेगा तुझे भी और तेरे पेरेंट्स को भी...साहब धाराप्रवाह न जाने क्या- क्या बोलते चले गए।
परंतु सब जानते थे कि साहब का ये व्यवहार ऊपर- ऊपर है। पंद्रह दिन के भीतर धीरेंद्र जी के नागपुर तबादले के आदेश आ गए। और जब वो जा रहे थे तो साहब की गाड़ी ने स्टेशन पर सामान पहुंचवाया उनका।
किस्सा कोई एक थोड़े ही था। नांबियार जी ने मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया तब अपनी ड्यूटी शाम वाली शिफ्ट से बदलवाने के लिए लिख कर दिया- रात को स्कूटर चलाने में दिक्कत होती है, साफ़ दिखता नहीं, इसलिए सुबह वाली शिफ्ट में ड्यूटी लगा दी जाए। साहब से मिलने गए तो वही जवाब - तुझे दिन में दिखता है, एक- एक फाइल में बीस - बीस गलतियां करता है...?
कार्यालय में ये सब घट रहा था परंतु लोग मान - अपमान से मानो निवृत्त होकर काम में लगे थे। कभी- कभी शब्दों का वास्तविक अर्थ वो नहीं होता जो ध्वनित होता है, बल्कि वो होता है जो उसके पार्श्व में रह कर फलित होता है। चरितार्थ होता है।
विभोर उत्तेजित होकर चले जाने के बाद शाम को मेरे घर आ गया। सिरे से समझाया मैंने उसे।
पर वह कुछ मानने- सुनने के लिए तैयार ही नहीं था। बोला - सर, माना कि साहब बहुत अच्छे हैं पर बोलने के तौर- तरीके भी तो होने चाहिए। आख़िर वो एक एक्जीक्यूटिव हैं। और हम लोग भी जूनियर अफ़सर सही, पर हैं तो सम्मानित लोग! ठीक है कि हम उनके जितने बड़े न सही पर हमारी भी तो कोई लाइफ है। हमारा भी कोई स्थान है। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए जैसे वो कोई सुप्रीम पॉवर हों।
- पर वो ऐसा कुछ नहीं करते। किसी का नुकसान नहीं करते। दफ्तर को बहुत अच्छी तरह से चला रहे हैं। मैंने कहा।
- लेकिन बोलने का ये ढंग... सॉरी सर, आई कांट टॉलरेट!
मैंने किसी तरह समझा- बूझा कर विभोर को चाय पिला कर घर से विदा किया।
दिन निकलते रहे, किस्से बनते - बिगड़ते रहे, दिनचर्या चलती रही।
विभोर की बहन की शादी होने वाली थी। एक दिन शाम को बोला - सर मैंने सुना है कि सदर मार्केट के रेमंड्स वाले शोरूम में आपका कोई परिचित है, जो काफी डिस्काउंट करा देता है। प्लीज़ सर, आज मेरे साथ चलिए, मुझे हैवी शॉपिंग करनी है।
हम दफ्तर के बाद निकल लिए।
कॉफी हाउस के सामने से हम निकल ही रहे थे कि विभोर चहका। जिस तरह तपाक से आगे बढ़ कर विभोर उस लड़के से गले मिला मैं समझ गया कि ज़रूर ये कोई उसके बचपन का दोस्त है। मैं अचकचा कर नज़दीक की दुकान की शो- विंडो पर खड़ा हो गया। मैं जरा दूरी पर था परंतु उनकी बातचीत के कुछ हिस्से उछल - उमड़ कर कानों में आ रहे थे।
- साले, तूने शादी कर ली और मुझे बताया तक नहीं... हॉस्टल में साला हगने- मूतने भी हमें दिखा कर जाता था, और बीवी चुपचाप नीचे कर ली! हम क्या हिस्सा मांग रहे थे तुझ से उसमें?
- यार तेरा पता ही कहां था। फिक्र मत कर अगले संडे को आ। विभोर बोला।
- हां, अब बुला रहा है दिखाने जब सब कुछ बराबर कर लिया होगा उसका...
- तुझे मिठाई खानी है? आ जा चाहे जब। अच्छा ये बता, तूने ही कौन सा याद किया मुझे? शादी तो तूने भी कर ली होगी?
- तेरी तरह नहीं हूं मैं। वो तो किस्मत ही साली ऐसी है कि अभी तक हाथ में लेकर ही घूम रहे हैं। शादी होती न, तो तुझे बारात की मिठाई भी चखाता और बीवी का नमक भी! दोस्त ऐसे ही नहीं कहता।
उनकी बातें लंबी होते देख मैं कुछ आगे बढ़ आया था। उसके जाते ही लपक कर विभोर मेरे पास आया और बोला - ये मेरा बचपन का दोस्त था सर...
- दोस्त?? लेकिन वो तो तुम्हारे साथ दुश्मनों वाला व्यवहार कर रहा था। देखा नहीं, कितना अपमान किया उसने तुम्हारा और तुम्हारी पत्नी का?
- क्या कह रहे हैं सर, आप शायद उसके बोलने के ढंग पर जा रहे हैं, बड़ा प्यारा लड़का है सर, बहुत खुशमिजाज़।
थोड़ी देर बाद विभोर द्वारा अभी- अभी दुकान से ली है गई आइसक्रीम हम दोनों के हाथों में थी। हम बाज़ार के फुटपाथ पर दिपते - जलते बल्बों के बीच इतराती चहल - पहल में खड़े थे।
- क्या सोच रहे हैं सर, आपकी आइसक्रीम गिर जायेगी।
- कुछ नहीं, कुछ भी नहीं।
शब्दों का व्यवहार कितना समपार्श्विक होता है न, प्रिज्मैटिक! कभी हम सतरंगे शब्द जबान से फेंकते हैं और उस पार उगती है भावनाओं की स्याह- सफ़ेद लकीर, कभी सीधी सपाट सफेद रोशनी सी कही हुई हमारी बात मुंह से झरते ही सतरंगी हो जाती है।
वितंडी... माया वाचाली हम लोग!
मैं चौंका, क्योंकि यह सब मैंने कहा नहीं था, बस सोचा था मन में। विभोर आइसक्रीम के पैसे देने दुकान के काउंटर की ओर बढ़ गया था।
( समाप्त ) ... प्रबोध कुमार गोविल


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