अब नहीं आयेंगे वे Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अब नहीं आयेंगे वे

- गौरा, ओ गौरा... अम्मा ने चिल्लाकर आवाज़ लगाई। जाने कहां मर गई, इसे तो जब देखो तब बाहर ही भागने की लगी रहती है, जरा काम से फुर्सत मिली और निकल भागी। अब जरा जरा से काम के लिए चिल्लाते फिरो। इस लड़की का भी दिमाग़ सातवें आसमान पर चढ़ गया है अब, सुनती ही नहीं किसी की।
- क्या है अम्मा जी? हांफती हुई गौरा ने दौड़ कर बरामदे में कदम रखा।
- अरी कहां चली गई थी? देख तो ये कबूतर मरे नाक में दम किए दे रहे हैं, यहां घोंसला रख रहे हैं शायद। गंदगी से एक तो वैसे ही फुर्सत नहीं, फिर ये तिनके ला- लाकर बिखेरे जा रहे हैं। साफ़ करदे इसे जरा झाड़ू लाकर।
गौरा धीमी चाल से झाड़ू लेने चली गई।
अम्मा ने वहीं बैठकर खाट पर पैर पसारे और मटर की फलियां लेकर छीलने बैठ गईं। बाहर तेज़ धूप निकली हुई थी, बिल्कुल गर्मी का सा मौसम हो रहा था। धूप अब सुहाती नहीं थी इसीलिए अम्मा ने चारपाई यहां सरका ली थी।
... देखो, मरा रुपए पाव दे गया है और दाने नहीं हैं चार भी। हर जगह लूट है लूट। कमबख्त कह रहा था कि एकदम ताज़ी हैं। अम्मा बड़बड़ाती जा रही थीं, मानो अपने से ही कह रही हों।
- अरी ऐसे क्या हाथ जायेगा तेरा? वो बाहर वाला स्टूल उठाकर ला, उसपर चढ़ कर साफ़ कर। और देख, थोड़ी दूर जाकर फेंकना, यहीं कहीं डाल देगी तो फ़िर से उठा उठा कर धर लेंगे।
गौरा स्टूल पर चढ़कर झाड़- झाड़ कर कबूतरों का अब तक का परिश्रम बराबर किए दे रही थी। गुटरगूं- गुटरगूं करते वो दूर बिजली के तार पर जा बैठे थे और सूनी आंखों से अपने आशियाने का उजड़ना देख रहे थे।
इस समय घर में कोई नहीं था। तीनों छोटे बच्चे स्कूल- कॉलेज गए हुए थे। बड़ा अनंत ऑफिस गया हुआ था। बच्चों के पिता ऑफिस के ही काम से कहीं दौरे पर गए हुए थे। दोपहर के भोजन से निबट कर मिसेज तिवारी भी पड़ोस में गई हुई थीं मेहरा साहब के यहां। मयंक के स्वेटर के लिए बुनाई का नमूना सीखना था उनकी पत्नी से। अनंत की बहू गीता तो आजकल थी ही नहीं, पीहर गई हुई थी। और इसलिए इस एकछत्र साम्राज्य में अम्मा से शासित होने वालों में या तो नौकरानी गौरा थी, या फिर ये सन्नाटा!
अम्मा का क्रोध कबूतरों और सब्ज़ी वाले से गुजरता हुआ बरबस न जाने कब अनंत पर चला आया। - इसे देखो, लाटसाहब को अब ऑफिस दूर पड़ता है। अरे, आज क्या नया आया है तू इस घर में, बीस बरस हो गए। पढ़ता था तब भी क्या पास में था तेरा कॉलेज। साइकिल से वही आधे घंटे का रास्ता था सारा। मगर अब इंजीनियर हो गया है न, तो शर्म आती होगी साइकिल चलाने में। कहा स्कूटर लेले, तो वह पटरानी गीता बोल पड़ी बीच में - रोज़ इतनी दूर जाने में आधा वेतन तो पेट्रोल में ही निकल जायेगा।
लो और सुनो, अब तू ही तो रह गई है घर में सबके वेतन का हिसाब देखने - रखने वाली। साल भर से तू आई है इस घर में, उससे पहले तो हम ही रहते थे। हम सब क्या जाहिलों की तरह रहते थे जो तू ही तौर - तरीके सिखाएगी हमें! अरे, पढ़ लिख कर इतनी समझदार हो गई है तो थोड़ी सी बेशर्मी और क्यों नहीं साध लेती। साफ़- साफ़ क्यों नहीं कहती कि भरे- पूरे घर में अपने नाज़- नखरों के साथ रहने को नहीं मिलता। अलग चाहिए घर इन्हें, जिससे कोई रोकने - टोकने वाला न हो, आराम से मियां - बीबी बैठे चोंच लड़ाते रहें। अरी, यहां कौन कुछ कहता है तुझे? और कहकर जबान गंदी भी कौन करे, तू कौन सी सुन रही है किसी की। कमर देखो तो ब्लाउज से निकली पड़ रही है बाहर, पल्ला ले रखा है मेमसाहब ने ऐसे जैसे भैंस के सिर पर किसी ने रुमाल धर दिया हो। तमीज़ - तहज़ीब थोड़े ही शामिल है आजकल की पढ़ाई - लिखाई में। चूल्हे में जाए ऐसी पढ़ाई।
अम्मा की कल्पना के तरकश से निकल कर जाने कितने तीर बहू पर बरसते कि तभी मटर के दाने से हरा घिनौना कीड़ा उनकी हथेली पर आ गिरा। अम्मा ने उछल कर हाथ झटक दिया। - देखो तो, आधी तो कानी- कुतरी ही भेड़ गया है मरा, सब्ज़ी क्या ख़ाक बनेगी इनकी?
- गौरा, अरी फिर कहां जा मरी? ले जा, ये छिलके फेंक दे कचरे के डिब्बे में। और इन्हें ले जाकर रसोई में रख दे, शाम को बनेंगी ये। ज़रा देख जाकर छत पर पापड़ सूखे कि नहीं? सूख गए हों तो उठा ला, चिड़िया ही खा गई होंगी आधे तो, चोंच मारकर इधर- उधर तो कर ही दिए होंगे। यही तो मुसीबत है। अम्मा गौरा को आदेश देकर उठीं और बटन टांकने को पड़ी जयंत की कमीज़ उठा लाईं।
कबूतरों ने मानो ऐसे आसानी से हार जाना नहीं सीखा था। वो फिर उसी धैर्य से एक - एक तिनका उठाकर ठीक उसी जगह पर रखे चले जा रहे थे। जैसे उन्होंने भी जान- बूझ कर अम्मा को ही सताने की ठान रखी थी।
शाम को चार बजे के क़रीब मिसेज़ तिवारी ने स्वेटर बुनते हुए घर में कदम रखा। साथ में थीं मिसेज मेहरा।
- गौरा, अम्मा कहां हैं? सो रही हैं क्या? अच्छा- अच्छा सोने दे। बच्चे आए स्कूल से? आते ही होंगे। चल तू रसोई में जाकर चाय का पानी चढ़ा दे।
- आइए न, अरे, आप तो खड़ी ही रह गईं, बैठिए।
मिसेज मेहरा ने बैठते हुए एक नज़र कमरे के दरवाज़े पर डाली और पूछा - बहू गीता नहीं है क्या घर में?
- नहीं, गीता तो परसों ही पीहर चली गई न, बहुत दिन हो गए थे, कहने लगी अभी घर में सब लोग आए हुए हैं भाई - भाभी वगैरह, थोड़े दिन रह आऊं वहां भी। मैंने भेज दिया। अच्छा है, भाई - भाभी तो बेचारी के आते भी हैं साल में एकाध बार मुश्किल से। रह लेगी वहां भी दस- पांच दिन।
- आपके नीचे वाले किरायेदार अच्छे हैं, बड़े मिलनसार हैं।
- अच्छा, आपसे हो गई क्या उनकी पहचान? वैसे हैं तो काफ़ी अच्छे लोग, मेलजोल रखने वाले हैं।
- आईं थीं उस दिन घर। हां, एक बात पूछूं, वही बता रही थीं कि अनंत कहीं अलग मकान लेने की सोच रहा है, सच है क्या ये?
श्रीमती तिवारी ने थूक गटकते हुए कहा - नहीं जी, वैसे ही एक दिन बात हो रही थी कि बच्चों को भी कॉलेज दूर पड़ता है, उसे भी काफ़ी दूर जाना पड़ता है। इतना समय खराब होता है आने - जाने में, तो क्यों न उस तरफ़ कोई छोटा सा मकान देख लें इनके लिए। पर वह तो वैसे ही बात थी, उसे क्या इन्होंने यहां - वहां पहुंचानी भी शुरू कर दी?
- नहीं- नहीं, आप गलत समझ रही हैं, मैंने तो वैसे ही ज़रा पूछ लिया था, उन बेचारियों ने तो ऐसा कुछ विशेष कहा भी नहीं था। श्रीमती मेहरा ने सफ़ाई दी।
कबूतर आखिर नहीं माने। उन्होंने भी गौरा और अम्मा से मोर्चा लेकर अपना घोंसला वहीं रख लिया। अम्मा लाख बिगड़ें, पर अब क्या अंडे फिंकवा देंगी वहां से? राम- राम, ये पाप नहीं होने देंगी वे, बेचारे जीव ही हैं, क्या फ़र्क पड़ता है? अब तो फिर वे शोर भी नहीं करते हैं। घोंसला बनाने के लिए यहां - वहां तिनके लिए उड़ते फिरते थे, तब गंदगी होती थी। सारे में गुटरगूं गूंजती रहती थी। अब देखो कैसी दुबकी हुई सारा दिन अपने अंडों पर बैठी रहती है, आंखें मटकाती।
गौरा कभी उन्हें वहां से उड़ाने की कोशिश भी करती तो अम्मा उसे डपट देतीं - अरी क्यों मरी जा रही है, जरा एक बेर झाड़ू लगा देने में क्या दम निकलता है तेरा, जो पीछे पड़ी है उसके। मत छू उसे। दोपहर को जब अम्मा घर में अकेली सी होती हैं, तब जी ही बहलता है उनका इस गुटरगूं से।
बच्चों के इम्तहान सिर पर आ रहे हैं सो सब अपनी अपनी पढ़ाई में जुट गए। उस दिन खाना खाकर जयंत पढ़ने के लिए अपनी किताबें खोजता हुआ भाभी के कमरे में आया तो किताबें वहां नहीं थीं। भाभी से पूछा तो उन्होंने तुनक कर उत्तर दिया - बाहर पड़ी हैं, मैं ही रख आई थी, यहां सारे में फैली पड़ी थीं। एक पलंग डालने लायक तो जगह है कमरे में, फिर वो भी इस तरह भूसा- खाना सा भरा रहेगा तो आख़िर कोई तो जगह होनी चाहिए न उठने- बैठने को।
- पर भाभी आप मुझे ही कह देती, मैं उठाकर ले जाता। मैं तो यहां खाली पड़ा देख कर पढ़ने के लिए आ गया था। उधर मयंक का दोस्त उसके साथ पढ़ने के लिए आया था, वह ज़ोर- ज़ोर से बातें करके पढ़ रहा था, इसी से जरा देर को मैं यहां आ गया।
- दुनिया भर पढ़ने को यहीं आयेगी। पहले ही बहुत जगह है न, उधर वह अपना कमरा बंद किए पड़ी हैं, राम जाने किताबें पढ़ रही हैं या कुछ और...? गीता के क्रोध ने ननद को भी लपेट लिया।
- बस भाभी, यह सब सुनाना है तो भैया को सुनाना। नहीं है जगह तो उन्हें कहो, वह लेकर दे देंगे कहीं राजमहल।
गीता अवाक रह गई। अब ये छोटे - छोटे बच्चे भी इस तरह पलट कर जवाब देने लग गए? सब अनंत की ही वजह से है। वह गुस्से से कांपने लगी। आने दो, वह आज ही बात करके रहेगी। जिस घर में उसकी इज़्ज़त नहीं, वहां वह एक पल भी नहीं रह सकती। उसके पापा ने तो कहा भी था कि फैक्ट्री के पास ही वह अनंत को छोटा सा फ्लैट किराए पर दिलवा सकते हैं। फिर आखिर ऐतराज क्या है? लेकिन उन्हें मेरी परवाह हो तभी न? ख़ुद तो सारा दिन ऑफिस में रहते हैं आराम से, मैं यहां घुटती रहती हूं अकेली। सबके ताने सुनती रहूं और गृहस्थी के काम- धंधों में पिसती रहूं। न अपनी मर्ज़ी से कहीं जा सकती हूं, न किसी को बुला सकती हूं। क्या यही सब पाने की उसने कल्पना की थी?
उसने तो सोचा था छोटा सा घर होगा, वह उसे अपनी मर्ज़ी से सजा - संवार कर अपने पति के साथ रहेगी। शाम को ऑफिस से लौटे पति के सीने से लग कर उसकी दिन- भर की थकान दूर करेगी।
पर यहां तो कुछ और ही था।
शाम को अनंत आया तो गीता के तेवर देख कर ही समझ गया कि दाल में कुछ काला है। कुछ पूछा, तो फट पड़ी गीता - तुम्हें इससे क्या? तुम तो आधी ज़िंदगी ऑफिस में गुजारते हो, मुझ पर क्या बीतती है, तुम्हें इससे क्या मतलब। मेरे लिए इतना सा नहीं कर सकते। पापा ने तो यही देख कर पसंद किया था तुम्हें कि अच्छा- खासा कमाने वाले इंजीनियर हो, उन्हें क्या पता था कि सारे कुनबे की गाड़ी में अकेले तुम्हीं जुते रहोगे। अनंत ने शांत होकर सब सुना और जैसे कुछ उसके अंतर में उबलकर रह गया। फिर भी उसने गीता का हाथ अपने हाथों में लेकर हल्के से दबा दिया।
- अरे दुष्ट! कहां चढ़ रहा है, उतर नीचे। देख गिर जायेंगे, अभी छोटे ही तो हैं, हाथ मत लगा उन्हें, उतर। अम्मा मयंक पर चिल्लाती आईं, जो ऊपर चढ़ कर कबूतर के बच्चों को हाथ से सहला कर देख रहा था। कितने छोटे - छोटे हैं प्यारे- प्यारे। अभी तो उनके पर भी नहीं उगे थे। सारा दिन बस घोंसले में ही पड़े रहते थे। हौले - हौले चलने की कोशिश करते, पर कुछ दूर जाकर ही तिरछे होकर गिर पड़ते। फिर उनकी मां उन्हें पंखों और चोंच से सहला कर वापस लाकर यथास्थान रखती।
- अम्मा, ये खाते क्या हैं?
- और क्या खायेंगे, देखता नहीं इनके मां- बाप कैसे दिनभर धूप में उड़ते रहते हैं इनके लिए, वे ही सांझ ढले लाकर देते हैं इनका दाना - पानी।
- फिर जब ये उड़ने लग जायेंगे, तब तो ये ख़ुद बाहर जाया करेंगे। कैसे उड़ेंगे ये छोटे - छोटे?
- अच्छा, तू बातें बाद में बनाना, चल नीचे आ। अभी हाथ से गिरा देगा तो मर जाएंगे। कहती हुई अम्मा बाहर चली गईं।
- क्यों रे, ये कोई टाइम है तेरा अख़बार लाने का? सब स्कूल - दफ्तर चले गए, अब कौन पढ़ेगा तेरा अख़बार? अभी- अभी अख़बार वाले से लड़- भिड़ कर अम्मा भीतर आई ही थीं कि सामने देखा, वह पड़ा पंख फड़फड़ा रहा था। जाने कैसे नीचे गिर गया था। शायद उड़ने की कोशिश की होगी, उसी में गिर गया।
- गौरा, जरा इसे उठा कर ऊपर रख दे। जाने कैसे गिर गया है बेचारा। गौरा ने सुना तो भागती हुई आई और उस नन्हे से बच्चे को हाथ में उठा लिया। उसकी चोंच पकड़ कर खिलवाड़ करने लगी।
आज खाना खाते वक्त बाबूजी और अनंत दोनों इसी इंतज़ार में थे कि पहले दूसरा कुछ बोले। अनंत पहले बाबूजी के कानों को परख लेना चाहता था अच्छी तरह। वह समझा कर बता देगा बाबूजी को कि वह घर छोड़ कर नहीं जा रहा। ज़रा ऑफिस की सुविधा के कारण ही वो फ्लैट ले रहा है। फिर क्या, वह रोज़ नहीं तो सप्ताह में एक बार आकर मिलता रहेगा, शहर तो एक ही है। यहां भी तो सभी को परेशानी होती है। बच्चे छोटे थे तब निभ गया। एक न एक दिन तो प्रबंध करना ही था। कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे को पढ़ने की जगह नहीं मिलेगी घर में तो कैसे पढ़ सकेगा? गीता भी सारा दिन घर में अकेली बैठी बोर हो होती है, वहां से यूनिवर्सिटी भी पास है, कुछ चाहेगी तो ज्वॉइन कर लेगी। मन भी बहल जायेगा और आमदनी कुछ बढ़ी तो नुकसान देगी नहीं। आख़िर इसीलिए तो पढ़ाते- लिखाते हैं लड़कियों को।
बाबूजी सोच रहे हैं उन्होंने कहां गलती कर दी। अच्छे भरे- पूरे परिवार की बहू तलाश की, वह भी सबके साथ एडजेस्ट नहीं हो सकी। आख़िर वहां भी तो वह अपने भाई - बहनों के साथ रहती आई है। जितनी लंबी चादर होती है उतना ही पैर पसारा जाता है। कितनी इच्छा थी कि सब साथ ही रहेंगे। बच्चे आंखों के सामने ही रहेंगे तो अच्छा है। अनंत को इसी शहर में नौकरी मिली देख कर कितना प्रसन्न हुए थे वे। पर अब उसे बिना इच्छा के घर में रख कर बांधा तो नहीं जा सकता, फिर दूसरे छोटे बच्चे हैं घर में, उनके लिए ज़हर नहीं घोलना चाहते, आखिर हम ऐसा क्यों करें?
अनंत के ऑफिस का ट्रक आ गया। उसमें सामान रखा जा रहा है। कमरे से उसकी शादी में मिला सामान सब एक - एक करके आ रहा था। गीता अपने कमरे में एक एक चीज़ को परख कर देख रही थी, कौन सी यहां की है, कौन सी साथ ले जाने की है।
बाबूजी का चेहरा भावशून्य था। वे उसी तरह बैठक में अखबार में आंखें गढ़ाए बैठे थे, मानो इस सबसे उनका कोई वास्ता ही नहीं।
धूल उड़ाता हुआ ट्रक चला गया। साथ ही टैक्सी में बैठे अनंत और गीता भी चले गए। मां ने तो कहा भी - चल, हम साथ चलते हैं, आज वहां सब ठीक - ठाक करके आ जायेंगे। पर गीता ने ही सोचा क्यों कष्ट दे किसी को। फिर वहां दीदी आ ही जाएंगी, मम्मी को भी फ़ोन करवा दिया था, पहुंच जाएंगी।
बहुत गर्मी है। आंचल से पसीना पौंछती अम्मा गौरा पर चिल्ला रही हैं - अरी कहां मर गई, इससे तो एक जगह बैठना होता ही नहीं, जब देखो उड़ कर चल देगी। छुट्टी का दिन है, ढेरों काम हैं और ये है कि इसे कुछ परवाह ही नहीं।
- गौरा, ओ गौरा...!
गौरा आकर खड़ी हो गई। बोली - क्या है अम्मा, तुम्हीं ने तो पड़ोस में भेजा था काम से। आ रही थी बस। कहो तो काम क्या है?
- सुन बेटी, ज़रा झाड़ू लेकर कबूतर का घोंसला हटा दे वहां से, बेकार में गंदगी हो रही है, देख तो।
- मगर बच्चे हैं न उसमें तो?
- अरी कहां धरे हैं बच्चे, उड़ गए वो भी अपनी - अपनी दुनिया में। अब नहीं आयेंगे वे।
आंखें पौंछती अम्मा को एकटक देखती गौरा झाड़ू लेने बढ़ रही है, घोंसला साफ़ करने को!
( समाप्त ) ... प्रबोध कुमार गोविल